-ललित गर्ग-
संवैधानिक पद पर विराजित राज्यपाल एवं चुनी हुई सरकारों के बीच द्वंद एवं टकराव की स्थितियां अनेक बार उभरती रही है। राजनीति के उलझे धागों के कारण ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियां देखने को मिलती है। गैर-भाजपा शासित राज्यों में सरकारों और राज्यपालों के बीच इस तरह का टकराव एक सामान्य बात हो गयी है, लेकिन यह टकराव न केवल लोकतंत्र के लिये बल्कि शासन-व्यवस्थाओं पर एक बदनुमा दाग की तरह है। बहुत समय से सरकारें राज्यपाल पर तो राज्यपाल सरकारों पर आरोप लगाते रहे हैं कि वे एक दूसरे के कामकाज में रोड़े अटका रहे हैं। इनदिनों तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, दिल्ली और पश्चिम बंगाल में ऐसी स्थितियां बढ़-चढ़कर देखने को मिली है। इन सभी राज्यों में गैर-भाजपा सरकार है और एक बात कॉमन है वो बात है राज्य सरकार का राज्यपाल के साथ विवाद। बीते कुछ समय से इन पांचों राज्यों में राज्यपाल बनाम राज्य सरकार का वाक-युद्ध भी देखने को मिल रहा है। सभी राज्यों में सरकारों और राज्यपालों के बीच बयानबाजी चलती रहती है। हाल ही में गैर-भाजपा शासित तीन दक्षिणी राज्यों में राज्यपालों और सत्तारूढ़ सरकार के बीच टकराव काफी उग्र हो़ गया, जो एक बड़ा संकट बन कर स्थितियों को असामान्य बना रहा है। देश के सामने अनेक समस्याएं हैं, उनसे मुक्ति की बजाय इस तरह की समस्याएं उभरना राजनीति के दूषित होने की निष्पत्तियां हैं।
ताजा उग्र विवाद केरल में देखने को मिला, जहां राज्यपाल अपने अधिकार का उपयोग करना चाहते हैं, तो राज्य सरकारें अपने निर्वाचित होने का हवाला दे रही हैं। केरल में राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने कुछ दिनों पहले दस विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से इस्तीफा मांग लिया। उनका कहना था कि उनकी नियुक्ति में तय नियम-कायदों का पालन नहीं किया गया। अब राज्य सरकार ने राज्यपाल का विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति का दर्जा समाप्त करने का अध्यादेश पारित कर दिया है। मगर अपने-अपने अधिकारों को लेकर धमासान जंग छिड़ी हुई है। राज्यपाल और प्रदेश की वाम मोर्चा सरकार के रिश्तों में पिछले कुछ समय से देखे जा रहे तनाव के मद्देनजर इस कदम को आश्चर्यजनक नहीं माना जा रहा है। हालांकि सरकार कह रही है कि इस फैसले का राज्यपाल के हालिया कदमों से कोई लेना देना नहीं है। इसे लेकर राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच ठन गई। बाद में उच्च न्यायालय ने राज्यपाल के आदेश पर रोक लगा दी।
सबसे बड़ी बात यह है कि केरल एकमात्र ऐसा राज्य नहीं है, जिसमें राज्य की निर्वाचित सरकार और केंद्र द्वारा नियुक्त संवैधानिक प्रमुख में टकराव की स्थिति बनी हुई है। दिल्ली में भी ऐसे टकरावपूर्ण हालात लंबे समय से बने हुए हैं, दिल्ली में भी गैर-भाजपा सरकार है। यहां उप-राज्यपाल तो बदल रहे हैं, लेकिन सरकार के साथ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। नजीब जंग के बाद अब केजरीवाल का विवाद वीके सक्सेना के साथ है। अरविंद केजरीवाल का आरोप है कि उप-राज्यपाल उनकी सरकार की महत्वपूर्ण योजनाओं की स्वीकृति में रोड़ा अटका रहे हैं तो वहीं उप-राज्यपाल का कहना है कि सरकार जनता के हित में काम नहीं कर रही है। उप-राज्यपाल इसको लेकर कई लेटर भी लिख चुके हैं। वे ये भी कह चुके हैं कि मुख्यमंत्री की तरह ही बाकी मंत्री भी उनकी बात नहीं सुनते हैं। अब हालात यह हैं कि उप-राज्यपाल ने दिल्ली सरकार की कई योजनाओं के लिए जांच समितियों का गठन कर दिया है। दिल्ली में उपराज्यपाल और सरकार के बीच तनातनी का दौर बहुत लंबे समय से चलता आ रहा है। यहां आम आदमी पार्टी सरकार का लगभग सभी उपराज्यपालों से तकरार बनी रही। शुरू में दोनों के बीच अधिकारों की लड़ाई उच्च न्यायालय तक भी पहुंची थी। यहां इस तथ्य से अवगत हो कि दिल्ली को चूंकि पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है, इसलिए इसकी तुलना अन्य राज्यों से नहीं की जा सकती। मगर तमिलनाडु और तेलंगाना जैसे राज्यों में ऐसी कोई दलील नहीं दी जा सकती। तमिलनाडु में दोनों के बीच कड़वाहट इस हद तक बढ़ गई कि राज्य की स्टालिन सरकार ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से सार्वजनिक तौर पर अपील की कि वह राज्यपाल आरएन रवि को पद से बर्खास्त कर दें। इसी तरह तेलंगाना में राज्यपाल टी सुंदरराजन ने सार्वजनिक तौर पर संदेह जाहिर किया कि उनका फोन टैप किया जा रहा है। किसी भी राज्य में राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद की अवमानना से जुड़े इस तरह के विवाद दुर्भाग्यपूर्ण हैं। इस तरह की विडम्बनापूर्ण स्थितियांे का समाधान निकाला जाना अपेक्षित है। राज्यपाल के पद की गरिमा एवं सम्मान को अक्षुण्ण रखा जाना भी जरूरी है।
निश्चित ही सरकारों की मनमानी एवं अलोकतांत्रिक प्रक्रियों पर नियंत्रण के लिये जब-जब राज्यपाल के द्वारा प्रयास हुए उन्हें राजनीतिक रंग देने की कोशिशें हुई। पश्चिम बंगाल में भी कुछ दिनों पहले तक राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच इसी तरह लगातार टकराव बना रहा। राज्यपाल ने सरकार के गैर-संवैधानिक कामकाज और फैसलों पर अंगुली उठाई तो सरकार उन्हें चुनौती देती रही। तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच संबंध कुछ अच्छे नहीं थे। दोनों ही एक दूसरे की सार्वजनिक रूप से आलोचना कर चुके हैं। ये विवाद कोरोना महामारी के दौर व्यापक स्तर पर देखने को मिले। झारखंड और राजस्थान में भी अलग-अलग मौकों पर कुछ मसलों पर इस तरह के टकराव देखे जाते रहे हैं। इस तरह विपक्षी दलों को यह कहने का मौका मिलता है कि जहां भी विपक्षी दलों की सरकारें हैं, वहां राज्यपाल उनके कामकाज में बेवजह दखल देने का प्रयास करते देखे जाते हैं, जबकि भाजपा सरकारों वाले प्रदेशों में ऐसी स्थिति नहीं है। क्या इस तरह की स्थितियां आग्रह, पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह को नहीं दर्शाती? क्या राज्यपाल इस तरह की मनमानी एवं अनहोनी होते हुए देखते रहे? राज्यपाल पद की गरिमा और मर्यादा को लेकर सवाल उठाने वालों की मंशा पर भी ध्यान देना होगा। पर राज्यपाल से भी अपेक्षा की जाती है कि वे अपने को केंद्र के सत्तारूढ़ दल का प्रतिनिधि मान कर उसकी विचारधारा के अनुरूप राज्य सरकार से काम करवाने का प्रयास करने के बजाय राज्यपाल की गरिमा के अनुरूप काम करें।
देश की एकता एवं अखंडता को बरकरार रखने के लिये प्रत्येक राज्य में संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल की आवश्यकता होती है। यह पद सजावटी न होकर विशेषाधिकारों से लैस होता है। हालांकि केंद्र द्वारा राज्यपालों को अपने नुमाइंदे के तौर पर नियुक्त करने की प्रवृत्ति पुरानी है, पर राज्य सरकारों के साथ इन टकरावों को देखते हुए एक बार फिर से राज्यपाल की नियुक्ति पर नए सिरे से विचार की जरूरत रेखांकित हुई है। फिर सवाल उठता है कि आखिर सक्रिय राजनीति में रह चुके लोगों को इस पद का दायित्व सौंपा ही क्यों जाना चाहिए। यह ठीक है कि राज्य सरकारें निर्वाचित होती हैं, उन्हें जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए काम करने का अधिक अधिकार होता है और राज्यपाल को उनके कामकाज को सुगम बनाने के लिए बेहतर स्थितियां बनाने का दायित्व निभाना होता है। मगर इसका यह अर्थ नहीं कि सरकारें राज्यपाल को केंद्र का ‘आदमी’ मान कर नजरअंदाज करें या उनकी अवहेलना करें। ताजा विवादों के बीच राज्यपाल-व्यवस्था को समाप्त करने का प्रश्न फिर से खड़ा हुआ है, इस विचार एवं सुझाव पर भी मंथन किया जाना चाहिए। सरकार एवं राज्यपाल के टकराव का खामियाजा आखिर आम जनता कब तक भुगतने को विवश होती रहे?