बलबीर पुंज
कितनी बड़ी विडंबना है कि जब 13 नवंबर को पंजाब में ‘आप’ सरकार ने शस्त्रों/हिंसा के सार्वजनिक प्रदर्शन/महिमामंडन पर प्रतिबंध लगाया, तब उसी कालखंड में दो ऐसी घटनाएं सामने आई— जिसने इस आदेश की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। 12 नवंबर को हिंदू नेता सुधीर सूरी की हत्या मामले में कट्टरपंथी सिख संगठनों ने अमृतसर स्थित अदालत परिसर में पेशी के दौरान आरोपी संदीप सिंह ‘सन्नी’ पर फूल बरसाएं और उसके पक्ष में नारेबाजी भी की। 4 नवंबर को पुलिस सुरक्षा के बीच सुधीर की खुलेआम गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, यह घृणा प्रेरित कृत्य था। यही नहीं, जिस दिन मान सरकार ने उपरोक्त फैसला लिया, उसी समय जालंधर में माता के जागरण पर तलवारों से हमला हो गया। यहां दो लोग तलवार लेकर घुसे और प्रसाद बांट रहे लोगों से अभद्रता करते हुए श्रद्धालुओं के साथ पूजा के मंच पर हमला कर दिया। इसमें कुछ महिलाएं घायल हो गई।
क्या पंजाब में ‘बंदूकवाद’ और हिंसा को बढ़ावा देने पर पाबंदी लगाने जैसा निर्णय पहली बार लिया गया है?— नहीं। जुलाई 2019 में पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस सदंर्भ में कार्रवाई करने हेतु कड़ी टिप्पणी की थी। फरवरी 2020 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ‘बंदूकवाद’ को बढ़ावा देने वाली फिल्मों पर कार्रवाई का आदेश जारी किया था। इनका प्रदेश में कितना असर हुआ, इसका प्रमाण ढाई वर्ष पुराने एक मामले में मिलता है। ‘पखिया पखिया, गन विच पंज गोलियां’ गाने को लेकर शुभदीप सिंह ‘सिद्धू मूसेवाला’ पर मामला दर्ज हुआ था। इसपर संगरूर में लाइव-शो करते हुए मूसेवाला ने कहा, “हुण दस्सो किह्दा किह्दा कंडा कड़ना, जट जमानत ते आया होया है।” इस प्रकार के कई मामले है। भयावहता देखिए कि जिस ‘बंदूकवाद’ को मूसेवाला ने अपने अन्य कई बंधुओं के साथ गीत-संगीत के माध्यम से महिमामंडित किया, उसने ही मूसेवाला की जान ले ली। इसी वर्ष 29 मई को मनसा में मूसेवाला को 19 गोलियां मारकर भून डाला गया था।
जब से (मार्च 2022) पंजाब में ‘आप’ की सरकार आई है, तब से कानून-व्यवस्था को पहले से अधिक गैंगस्टरवाद, अलगाववाद, मजहबी कट्टरता और नशाखोरी आदि से चुनौती मिल रही है। मूसेवाला और सुधीर हत्याकांड के अतिरिक्त 10 नवंबर को डेरा समर्थक और सात वर्षों से बेअदबी के आरोपी प्रदीप सिंह की फरीदकोट में हत्या कर दी गई। हत्यारों ने उसपर सरेआम 60 गोलियां चलाई। 6 अप्रैल को पटियाला स्थित एक विश्वविद्यालय के बाहर कबड्डी खिलाड़ी धर्मेंद्र सिंह, तो 14 मार्च को जालंधर देहात क्षेत्र में एक मैच के दौरान अंतरराष्ट्रीय कबड्डी खिलाड़ी संदीप नंगल अंबियां को गोलियां मारकर मौत के घाट उतार दिया गया।
पंजाब में देश की कुल आबादी (138 करोड़) का मात्र दो प्रतिशत (2.7 करोड़) बसता है, जबकि लाइसेंसधारी हथियारों के राष्ट्रीय अनुपात में उसकी हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से अधिक है। गृह मंत्रालय के अनुसार, 31 दिसंबर 2016 में देश में 33 लाख 69 हजार से अधिक पंजीकृत बंदूकें थी, वही जनवरी 2022 तक पंजाब में लगभग चार लाख लाइसेंसी हथियार है। पंजाब में एक लाइसेंस पर तीन हथियार रखने की अनुमति है, तो तलवार आदि शस्त्रों की कोई गणना नहीं। यह प्रदेश में हिंसक मामले बढ़ने का एक पक्ष हो सकता है, परंतु ये संपूर्ण सत्य नहीं है।
वास्तव में, पंजाब के हालिया घटनाक्रम को केवल ‘बंदूकवाद’ से जोड़कर देखना बेईमानी है। यह उस रूग्ण रोग का लक्षण है, जो 1979-80 के दौर से प्रत्यक्ष तो है, किंतु इसके विषाक्त संक्रामक (ब्रितानी शासनकाल सहित) को पहचानने में बार-बार कपट किया जाता है। इस स्थिति के लिए वामपंथी और मैकॉले मानसपुत्र सर्वाधिक जिम्मेदार है, जिन्होंने वैचारिक कारणों से अपने भारत-विरोधी एजेंडे की पूर्ति हेतु इनका न केवल पोषण करते है, साथ ही ‘सेकुलरवाद’ के नाम पर इन तत्वों का कवच भी बन जाते है।
साढ़े चार दशक पहले कांग्रेस ने ब्रितानी कुटिलता— ‘बांटो और राज करो’ नीति से प्रेरित होकर अपने चिर-प्रतिद्वंदी अकाली दल को पंजाब में हाशिये पर पहुंचाने का प्रयास किया था। तब कांग्रेस ने अलगाववादी-चरमपंथी तत्वों को प्रोत्साहन देते हुए जरनैल सिंह भिंडरांवाले को बढ़ावा दिया। कालांतर में शीर्ष कांग्रेसी नेता, भिंडरांवाले को ‘संत’ कहकर संबोधित करने लगे। जब इस अनुकंपा से चरमपंथियों-अलगाववादियों ने स्वर्ण मंदिर में डेरा डाला, तब देशभक्त सिखों का वहां आना-जाना कष्टदायी हो गया और असंख्य गैर-सिख मजहबी यातनाओं-हिंसा का शिकार होने लगे।
तात्कालिक राजनीतिक बढ़त पाने हेतु तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जिन्न को तो बंद बोतल से बाहर निकाल लिया, किंतु न तो वह उसपर नियंत्रण रख सकीं और न ही उसे दोबारा बोतल में कैद कर पाई। तब सरकार सैन्य कार्रवाई (ऑपरेशन ब्लूस्टार) के लिए बाध्य हुई। परिणामस्वरूप, 31 अक्टूबर 1984 को दिल्ली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख सुरक्षकर्मियों ने गोली मारकर नृशंस हत्या कर दी। इसके बाद दिल्ली, उससे सटे क्षेत्रों और देश के अन्य भागों में हजारों सिखों का कांग्रेस समर्थित भीड़ द्वारा प्रायोजित नरसंहार हुआ। भारत से वर्ष 1971 का बदला लेने की ताक में बैठा पाकिस्तान, अपने असंख्य ‘वैचारिक-समर्थक’ भारतीय पासपोर्टधारकों के सहयोग से पंजाब में अलगाववाद को हवा देकर ‘भारत को हजारों घाव देकर मौत के घाट उतारने’ की योजना को आगे बढ़ाता रहता है।
कांग्रेस की भांति पंजाब में सत्तारुढ़ ‘आप’ पर भी अलगाववादी तत्वों से निकटता रखने का आरोप है। इसी वर्ष जुलाई में जब पंजाब की सार्वजनिक बसों पर भिंडरांवाले आदि की तस्वीर लगाने का मामला सामने आया, तब इसे हटाने हेतु आदेश को मान सरकार ने दवाब में आकर वापस ले लिया। इससे पहले वर्ष 2017 में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा अलगाववादी के घर ठहरने पर भी विवाद हो गया था। ऐसे तत्वों से संपर्क रखने का आक्षेप केजरीवाल के पूर्व सहयोगी कुमार विश्वास भी कई बार लगा चुके है। इस पृष्ठभूमि में मान सरकार का हालिया निर्णय छलावे से अधिक कुछ नहीं।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।