राष्ट्र-चिंतन*
*भाजपा के ब्राम्हणवाद से हारेगा केजरीवाल*
*ब्राह्मणों को चरणस्पर्श किया, जाटों, गुर्जरों, राजपूतों को सिर पर उठाया*
*आचार्य श्री विष्णुगुप्त*
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ब्राम्हण 45, जाट 34, राजपूत 22, गुर्जर 17, पंजाबी 31 , वैश्य 21और पिछडे वर्ग को पांच टिकट, ये आकंडे भाजपा के दिल्ली नगर निगम चुनाव में घोषित उम्मीदवारों के हैं। इन आंकड़ो के देखने के बाद यह प्रतीत होता है कि भाजपा जातिवाद की मिसाइल से अरविन्द केजरीवाल को परास्त करेगी। खासकर ब्राम्हणवाद भाजपा के लिए आईकॉन बन गया है। भाजपा के घोषित उम्मीदवारों को देखकर यही कहा जा सकता है कि अब भाजपा का विश्वास है कि वह ब्राम्हण जाति को खुश कर चौथी बार दिल्ली नगर निगम में परचम लहरायेगी। ब्राम्हण कभी कांग्रेस के वोटर हुआ करते थे, ब्राम्हण, मुस्लिम और हरिजन कांग्रेस की जीत के समीकरण हुआ करते थे।
भाजपा लगातार 15 सालों से दिल्ली नगर निगम सत्तारूढ है। पिछले निगम चुनावों में अरविन्द केजरीवाल ने बहुत कोशिश की थी पर भाजपा पराजित नहीं हुई थी। इस बार फिर अरविन्द केजरीवाल ने भारी कोशिश कर रहे हैं और उफान वाले प्रश्न उछाल रहे हैं, दिल्ली की गंदगी के लिए और दिल्ली के विकास में पीछे रहने के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। केजरीवाल के उफान भरे प्रश्नों पर भाजपा रक्षात्मक नीति अपना रखी है, भाजपा के पास बड़े-बड़े नेता जरूर हैं पर केजरीवाल को टक्क्र देने में सभी भाजपा के नेता असफल हैं। यही कारण है कि दिल्ली नगर निगम चुनावों में भी अरविन्द केजीवाल की संभावनाएं अच्छी हैं। इसके अलावा केजरीवाल ने अप्रत्यक्ष तौर पर ब्राम्हणों, जाटों को सर्वाधिक टिकट देने खिलाफ अभियान चला रखा है, खास कर वैश्य जाति को भड़काया जा रहा है कि भाजपा अब उनकी दुश्मन बन गयी है, अब भाजपा ब्राम्हणों की रखैल बन गयी है, ऐसे पोस्टर वैश्य मतदाताओ के घरों में आम आदमी पार्टी के नेता पहुंचा रहे हैं।
एक संकेत यह भी है कि दिल्ली में भाजपा का हिन्दूवाद गौण हो गया है? भाजपा को हिन्दूवाद पर विश्वास नहीं रहा, हिन्दूवाद को भाजपा जीत का पर्याय नहीं समझती है? जातिवाद और खासकर ब्राम्हणवाद भाजपा के लिए आईकॉन कैसे और क्यों बन गया है? क्या भाजपा का ब्राम्हणवाद सही में दिल्ली नगर निगम के चुनावों में चौथी बार सत्ता दिला पायेगा? क्या भाजपा के पास दिल्ली में अपने काम पर विश्वास नहीं था? क्या भाजपा ने दिल्ली में ऐसे कार्य नहीं किये हैं जिसके आधार पर जनता उन्हें फिर से सत्ता पर नहीं बैठाती? क्या भाजपा का ब्राम्हणवाद काल बनेगा? कभी-कभी अतिवाद के प्रश्न आत्मघाती भी बन जाते हैं, राजनीतिक नुकसान के कारण भी बन जाते हैं, प्रतिस्पर्धी राजनीति की जीत के कारण भी बन जाते हैं। ऐसे भाजपा के किसी नेता ने ब्राम्हणों को सर्वाधिक टिकट देने और ब्राम्हणों को जीत का प्रतीक मानने का विरोध नहीं किया है। इसलिए यह माना जा सकता है कि भाजपा में ऐसी चुनावी राजनीति पर सवा्रनुमति जरूर है।
भाजपा उलट दिशा क्यों चल रही है? अपनी परमपरागत राजनीति भाजपा क्यों छोड़ दी है? क्या भाजपा को दिल्ली की आबादी संतुलन और आबादी समीकरण का धरातल ज्ञान है? कभी भाजपा के लिए वैश्य और पंजाबी आईकॉन होते थे। वैश्य तो हमेशा धर्म के साथ रहते हैं, वैश्य तो धर्म की बात करने वालों का साथ देते हैं। वैश्य ही भाजपा की असली पूंजी रहे हैं। जनसंघ की स्थापना काल से दिल्ली में भाजपा पर वैश्य जाति की बहुलता रही है। सिर्फ नगर निगम में ही नहीं बल्कि विधान सभा और लोकसभा चुनावों में भी वैश्य को सर्वाधिक सम्मान मिलता था। वैश्य के बाद पंजाबी वर्ग आतंे हैं। पंजाबी वर्ग यहां पर भाजपा की राजनीति में चैम्पियन की तरह थे। पंजाबी वर्ग देश विभाजन की नीति का भयंकर शिकार हुए थे। देश विभाजन की नीति 15 लाख हिन्दू पंजाबियों का कत्ल करने के कारण बनी थी। पाकिस्तान से जान बचा कर आये पंजाबी वर्ग दिल्ली में बसे थे। कांग्रेस की मुस्लिम नीति के कारण पंजाबी वर्ग कांग्रेस विरोधी था। पंजाबी वर्ग कांग्रेस को देखना तक पंसद नहीं करता था। पंजाबी वर्ग सिर्फ और सिर्फ जनसंघ और भाजपा को पसंद करता था और चुनाव में समर्थन देता था। भाजपा में मदनलाल खुराना, ओमप्रकाश कोहली, केदारनाथ साहनी और विजय कुमार मलहोत्रा जैसे अनेक वरिष्ठ नेता थे जा पंजाबी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे। मदनलाल खुराना तो दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री भी रहे थे। दिल्ली में आज पंजाबी वर्ग के नेता भाजपा में हाशिये पर हैं या फिर उन्हें पनपने का अवसर से ही वंचित कर दिया गया।
भाजपा बहुत पहले से ही ब्राम्हणवाद की राजनीति में फंसी हुई है। दिल्ली में बार-बार भाजपा ब्राम्हणवाद पर विश्वस जताती है और इसके कारण हार जाती है। मोदी युग में दिल्ली में चुनाव जीतने की असफल कसौटी ब्राम्हणवाद बन गयी। सबसे पहले भाजपा ने सतीश उपाध्याय को दिल्ली का प्रदेश अध्यक्ष बना डाला। सत्तीश उपाध्याय ने जातिवाद किया कि नहीं, यह कहना मुश्किल है पर उन्होंने भाजपा को भाजपा की जगहंसाई खूब करायी थी और नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता अभियान की हवा ही निकाल दी थी। सतीश उपाध्याय का मुस्लिम प्रेम भी भाजपा के लिए काल बना था। दिल्ली की इस्लामिक सेंटर में इन्होंने बाहर से कूड़ा मंगाया फिर सड़क पर डाला, उसके बाद कूड़ा झाडु संे साफ किया, पूरा प्रसंग कैमरे में पकड़ा गया था और भाजपा की बड़ी बदनामी हुई थी। सतीश उपाध्याय के कार्यकाल में ही केजरीवाल की भारी जीत हुई थी। सतीश केजरीवाल के बाद मनोज कुमार तिवारी को दिल्ली का अध्यक्ष बनाया गया था। मनोज तिवारी परमपरागत तौर भोजपूरी नचनिया-बजनिया है। मनोज तिवारी कभी अमर सिंह के कारिंदे थे, फिर सपा में भी रहे, वे उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ चुनाव भी लड़े थे। नितिन गडकरी की कृपा इन पर बरसी। भाजपा में शामिल हो गये। प्रदेश अध्यक्ष भी बन गये। दिल्ली का पिछड़ा विधान सभा चुनाव मनोत तिवारी के नेतृत्व में लड़ा गया। मनोज तिवारी ने सबसे अधिक टिकट दिलवाने में सफलता पायी थी। फिर भी अरविन्द केजरीवाल के सामने मनोज तिवारी कोई करिश्मा नहीं कर पाये थे।
हिन्दूवाद का लहर से अरविन्द केजरीवाल पराजित भी हो सकता था। पिछले विधान सभा में हिन्दूवाद की जोरदार लहर उठी थी। उस जोरदार लहर को भाजपा पहचान तक नहीं पायी थी और न ही उस लहर पर सपार होना चाहती थी। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो आठ सीटें मिली थी उसमें छह सीटें हिन्दूवाद की लहर से मिली थी। ये छह सीटें लगातार क्षेत्रों की थी। यमुनापार में भाजपा को वैसी छह सीटें मिली थी जहां पर सीएए के समर्थन में चले आंदोलन का असर था। यमुनापार में दंगे हुए थे। उस दंगें की आग से यमुनापार धधक रहा था। यमुनापार के हिन्दूवादी कमर कस कर सीएए विरोधियों को सबक सिखाने के लिए तत्पर थे। कपिल मिश्रा ने इसमें बड़ी भूमिका निभायी थी। कपिल मिश्रा ने सीएए विरोध के आंदोलन को सीधे तौर पर चुनौती दी थी। सीएए विरोध और सीएए समर्थन की सीधी लड़ाई थी। भाजपा अगर इस स्थिति को पूरे दिल्ली में फैलाने में भूमिका निभाती तो फिर भाजपा की जीत हो सकती थी, अरविन्द केजरीवाल को फिर से चुनाव जीतने का अवसर ही नहीं मिलता। पर भाजपा को कपिल मिश्रा जैसे हिन्दूवादी नेता का नेतृत्व पसंद ही नहीं है, ब्राम्हण के नाम पर मनोज तिवारी, सतीश उपाध्याय पर दांव लगा लेती है पर भाजपा को कपिल मिश्रा जैसे हिन्दूवादी पर दांव लगाना स्वीकार्य नहीं है।
दिल्ली का जातीय समीकरण बदला है। दिल्ली में मुसलमानों की संख्या बढी है, बांग्लादेशी, रोहिंग्या मुसलमानों के कारण चुनावी समीकरण बदले हुए हैं। वैश्य की संख्या अभी भी कम नही हैं, ब्राम्हणों की संख्या भी बढी है। पर पिछडे वर्ग की आबादी सबसे ज्यादा बढी है। पिछडे वर्ग में अनेकों जातियां आती है, जिनकी संख्या काफी ज्यादा है। दिल्ली में एक सर्वे में यह बात सामने आयी है कि वैश्य और ब्राम्हण से ज्यादा आबादी पिछडों की है। लेकिन पिछड़ी जातियां अभी भी भाजपा के सम्मान से दूर हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार आदि राज्यों में भाजपा पिछड़ी जातियों का समीकरण तो ढंग से बैठा लेती है पर दिल्ली में पिछ़ड़ी जातियां भाजपा के वरीयता सूची में शामिल ही नहीं हैं। भाजपा सिर्फ पांच सीटें पिछड़ी जातियों को देने की कृपा की है।
जातिवादी दृष्टिकोण से भाजपा कभी भी समृद्ध नहीं हो सकती है, कभी भी सत्ता में नहीं आ सकती है। भाजपा हिन्दूवाद के दृष्टिकोण से ही समृद्ध हो सकती है, सत्ता में आ सकती है। पर दिल्ली में भाजपा हिन्दूवाद के दृष्टिकोण को छोड़कर जातिवाद के दृष्टिकोण पर सवार हो गयी है। अरविन्द केजरीवाल भाजपा के हथियार से ही अपनी जीत सुनिश्चत कर सकते हैं।
*गुजरात में हिन्दुत्व प्रेम का डंका ही बजेगा*
*आचार्य श्री विष्णुगुप्त*
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गुजरात के हिन्दू न तो विकाउ है, न ही लालची हैं और न ही सेक्युलर मानसिकता के हैं। फिर गुजरात के हिन्दू कौन सी मानसिकता के हैं? गुजरात के हिन्दू राष्ट्रवादी हैं, राष्ट्र की अस्मिता से समझौता करना उन्हें स्वीकार नहीं है, सेक्युलर राजनीति उन्हें भाती नहीं है, लालच उन्हें डिगाती नहीं और पैसे पर बिकते नहीं हैं, लोकलुभाव घोषणाएं भी उनकी ध्यान नहीं खिचती हैं। इस तरह का दावा करने का मेरा आधार क्या हो सकता है? मेरा गुजरात का अनुभव ही आधार है। 2012 के गुजरात विधान सभा चुनाव में मेरी भी बहुत बड़ी भूमिका थी, मुझे संविधान विशेषज्ञ और कवि लक्ष्मी नारायण भाला जी की कृपा से नरेन्द्र मोदी की चुनाव प्रबंधन की टोली में शामिल होने सुअवसर मिला था। गुजरात के प्रायः सभी शहरों में चुनावी भ्रमण किया और जनता की चुनावी नब्ज को पकड़ने की कोशिश की थी। देश के बड़े-बड़े विचारक और चुनाव विशलेषक उस समय गुजरात में उपस्थित व सक्रिय थे। चुनावी विचारकों और चुनाव विश्लेषकों का कथन था कि गुजरात में सत्ता विरोधी हवा है, कांग्रेस की हवा बह रही है, गुजरात की जनता अब सांप्रदायिकता को सिर पर ढोना नहीं चाहती है, सांप्रदायिकता के कंलक से मुक्त होना चाहती है, गुजरात में विकास नहीं बल्कि विनाश का राज चल रहा है, नरेन्द्र मोदी का जलवा मद्धिम पड़ चुका है। सोनिया गांधी ने भी नरेन्द्र मोदी को संहारक और विनाशक करार देकर चुनावी वातावारण को गर्म कर दिया था, सोनिया गांधी का संदेश था कि हम सेक्युलरवाद से ही नरेन्द्र मोदी को पराजित करेंगे, यह कौन नहीं जानता है कि कांग्रेस सेक्युलरवाद की नीति पर चलती है। पर जब 2012 के गुजरात विधान सभा चुनाव का परिणाम आया तब नरेन्द्र मोदी को एक बार फिर प्रचंड जीत मिली, सारे के सारे चुनाव विश्लेषकों और चुनाव विचारकों के कथन झूठे साबित हुए, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि सोनिया गांधी का सेक्युलरवाद और मुस्लिमवाद आत्मघाती साबित हुआ था।
इस गुजरात विधान सभा चुनाव में भी बहुत सारे ऐसे दावे किये जा रहे हैं, बहुत सारे झूठ के पहाड़ खड़े किये जा रहे हैं, परतंत्र विचारक और परतंत्र विश्लेषक गुजरात की जनता के विचार से अलग चुनावी वातावरण तैयार करने में लगे हुए हैं। परतंत्र विचारकों और परतंत्र विश्लेषकों को एक और सुविधा और रास्ता मिल गया है। उनके सामने पहले कांग्रेस ही हुआ करती थी, लेकिन अब उनके सामने आम आदमी पार्टी भी है। कांग्रेस की चुनावी आग मद्धिम ही है। इसलिए कांग्रेस अब इनकी पंसद नहीं रही, इनकी पंसद अब आम आदमी पार्टी बन गयी है। आम आदमी पार्टी गुजरात की जनता में नहीं बल्कि परतंत्र चुनावी विश्लेषकों और विचारकों को एक संभावना जरूर दिख रही है। उन्हें ऐसा लग रहा है कि आम आदमी पार्टी गुजरात में करिश्मा जरूर कर सकती है, आम आदमी के करिश्में के सामने नरेन्द्र मोदी का करिश्मा पराजित ही हो जायेगा, अरविन्द केेजरीवाल में जिस तरह से दिल्ली में भाजपा और पंजाब में कांग्रेस को साफ कर दिखाया है उसी तरह गुजरात में भी सफलता हासिल कर सकते हैं। यही कारण है कि टीवी चैनलों पर आम आदमी पार्टी का दावा कुछ ज्यादा ही किया जा रहा है, आम आदमी पार्टी की कथित चुनावी सनसनी का जोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है। आम आदमी पार्टी के पक्ष में टीवी चैनलों पर हवा भी बनायी जा रही है।
नैतिक और वैचारिक पराजय का दर्शन भी कर लीजिये। हिन्दुत्व न तो कांग्रेस और न ही आम आदमी पार्टी का दर्शन रहा है, इन दोनों का दर्शन तो घोर मुस्लिम वाद का रहा है, गुजरात दंगों को लेकर कांग्रेस हमेशा नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाती रही और सांप्रदायिकत कह कर अपमानित करती रही है। कांग्रेस ने कभी भी गोधरा ट्रेन कांड में मारे गये कारसेवकों के प्रति संवेदना प्रकट नहीं की। अरविन्द केजरीवाल का एक बयान यह है कि उनकी दादी कहती थी कि उस राममंदिर की क्या जरूरत जो एक मस्जिद को तोड़ कर बनायी जा रही है, अरविन्द केजरीवाल ने कश्मीर फाइल्स फिल्म की आलोचना की थी और कश्मीर फाइल्स फिल्म को टैक्स फ्री करने से इनकार कर दिया था, दिल्ली विधान सभा में कश्मीर फिल्म पर हुई बहस में अरविन्द केजरीवाल ने कश्मीर में हिन्दुओं के कत्लेआम को भाजपा का षडयंत्र बताया था और कश्मीर के हिन्दुओं के बलिदान पर खिल्ली भी उड़ायी थी। इसके अलावा पाकिस्तान से दिल्ली आये हिन्दुओं को सुविधाएं देने से इनकार कर दिया था। इस तरह के अनेंकों उदाहरण पड़े हुए हैं।
गुजरात विधान सभा चुनावों में रंगा शियार की संस्कृति बह रही है। कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी का टीवी चैनलों पर एक प्रमो घूम रहा है जिसमें प्रियंका गांधी के ललाट पर चंदन के टिके की लंबी लाइन खिंची हुई है। प्रियंका गांधी के ललाट पर चंदन का टिका? हर कोई को आश्चर्य में डाल रहा है, जिस खानदान को हिन्दुओं से इतनी नफरत रही है उस खानदान के वंशज के ललाट पर चंदन के टिके के सीधा अर्थ क्या है? इसका सीधा अर्थ यह है कि अब हिन्दुओं से नफरत करने वाले इस खानदान को भी हिन्दुओं से डर लगने लगा है, हिन्दुओं को वोट नहीं देने का डर लगने लगा है, हिन्दुओं की नाराजगी से कांग्रेस एक तरह से हाशिये पर खडी है, यह कौन नहीं जानता है। अब अरविन्द केजरीवाल की कहानी जानिये। अरविन्द केजरीवाल अब भारतीय रूपयों पर लक्ष्मी जी का फोटो लगाने की मांग कर चुके हैं, इसके अलावा अरविन्द केजरीवाल गुजरात के मठ-मंदिरों में जा रहे हैं, ललाट पर लंबा चंदन टिका भी लगा रहे हैं और गले में रूद्राक्ष की माला भी पहन कर प्रचार में लगे हुए हैं, उनका एक बयान यह भी है कि उनका जन्म जन्माष्टमि के दिन हुआ है और भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें राजनीति में विशेष सेवा करने के लिए भेजा है। अरविन्द केजरीवाल अचानक हिन्दुत्व प्रेमी बन गये हैं।
निश्चित और अनिश्चत में किसकी जीत होगी, कौन निश्चित है और कौन अनिश्चित है? भाजपा का हिन्दुत्व निश्चित है, अटल है, अविचलित है और सक्रिय है, जीवंत है। जबकि कांग्रेस और केजरीवाल का हिन्दुत्व अनिश्चित है, भ्रम है, हथकंडा है, शिकारी जाल बिछायेगा, दाना डालेगा जैसा है। गुजरात के हिन्दू पिछले कई चुनावों में भाजपा के साथ हैं, उन्हें भाजपा के हिन्दुत्व में विश्वास है। लेकिन गुजरात के हिन्दुओं में कांग्रेस और केजरीवाल का अनिश्चित, भ्रम में डालने वाला और शिकारी जैसा हिन्दुत्व पंसद हो सकता है क्या? गुजरात की हिन्दू जनता कभी भी निश्चित को छोड़कर अनिश्चित पर दांव नहीं लगा सकती है, गुजरात की हिन्दू जनता कभी भी छद्म धर्मनिरपेक्षता को गले नहीं लगाती है।
गुजरात का चुनाव ही नहीं बल्कि 2014 से लेकर आज तक सभी संसदीय चुनाव धर्म के आधार पर ही लड़े गये हैं, इसमें हिन्दुत्व की प्रमुखता रही है, भााजपा की जीत और नरेन्द्र मोदी के परचम लहराने के पीछे का आधार हिन्दुत्व ही है। कभी यह अवधारणा थी कि मुस्लिम आबादी ही देश में सरकार बनाती है और सरकार बिगाड़ती है। यह अवधारणा गुजरात में बार-बार टूटी है और देश में 2014 से लेकर आज तक टूट रही है।
गुजरात की अस्मिता की समृद्धि प्रेरक है। गुजरात की प्रेरक अस्मिता क्या है? नरेन्द्र मोदी का देश का प्रधानमंत्री होना ही प्रेरक अस्मिता है। गुजरात की जनता नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री होने पर गर्व करती है। विकास की कसौटी पर भी गुजरात चमक रहा है। गुजरात में मुख्यमंत्री कोई भी हो पर चेहरा नरेन्द्र मोदी ही होते हैं, विकास रूकता नहीं है, विकास की गति बहती ही रहती है। एक डर यह भी है कि अगर कांग्रेस या केजरीवाल की सरकार बन गयी तो फिर उसी तरह से गुजराती अस्मिता कूचली जायेगी, अपमानित होगी जिस तरह कांग्रेस ने 2002 से लेकर 2014 तक गुजराती अस्मिता को कूचली थी और अपमानित करती थी।
उपर्युक्त तथ्यों और हिन्दुत्व की बहती प्रेरक अस्मिता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस गुजरात विधान सभा चुनाव में भी हिन्दुत्व प्रेम का ही डंका बजेगा, मोदी का ही परचम लहरेगा। चुनाव परिणाम आने के बाद परतंत्र विचारकों-विश्लेषकों के रेत की दीवारें ढह जायेंगी, झूठ के पहाड़ भर-भरा कर गिर जायेंगे।