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राष्ट्र नायक डा. आम्बेडकर 

आम्बेडकर की पुण्यतिथि 06 दिसम्बर पर राष्ट्र नायक डा. आम्बेडकर 

डा. आम्बेडकर के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता –  बृजनन्दन राजू

एक बालक स्कूल जाता है वहां उसे कक्षा से बाहर बैठकर पढ़ना पड़ता है। मध्यान्ह में उन्हें दीवार की ओर मुंह करके बैठना पड़ता है। स्कूल से पैदल आते समय गाड़ीवान बैठाने के बाद कुछ दूर ले जाकर अनुसूचित जाति से मालूम होने पर बैलगाड़ी से नीचे ढ़केल देता है। प्यास लगने पर कुंए पर रखी बाल्टी से पानी नहीं ले सकते। वर्षा से बचने के लिए जब रास्ते के किनारे बने एक घर की दीवार की ओट में खड़े हो जाने पर घर की मालकिन खींच कर उन्हें बरसात के दौरान बाहर कीचड़ में धकेल देती है। बालक भीगी पुस्तकें लेकर रोते हुए मां भीमाबाई के पास पहुंचता है। माँ उसे धीरज बंधाती है। आपको पढ़कर आगे बढ़ना है। बचपन की इन घटनाओं का बालक भीम के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। आगे चलकर वह बाबा साहब डा. भीमराव आम्बेडकर कहलाये।

वह बड़े ही मेधावी थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्राप्त कीं तथा विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में शोध कार्य भी किया था। पढ़ाई पूरी करने के बाद जब भारत आये तो उन्हें कमरा नहीं मिला। नाम बदलकर पारसी धर्मशाला में रहे। बाद में जानकारी होने पर उनका सामान रोड पर फेंक दिया गया। बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करने के दौरान नौकर उनके हाथ में फाइल देने के बजाय उनकी टेबल पर फेंक देता है। एक बार फिर से वह भेदभाव के शिकर होते हैं और अम्बेडकर नौकरी छोड़ देते हैं। क्लब में उनके साथ कोई खेलता नहीं था। सारी डिग्री उनके पास होने के बावजूद उसका कोई अर्थ नहीं था। उनके मन में वेदना उत्पन्न् हुई कि सारी डिग्री किस काम की जब समाज में सम्मान नहीं मिलता। उन्होंने समाज की मानसिकता बदलने और छुआछूत को दूर करने का प्रयत्न किया।

बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर प्रखर पत्रकार वरिष्ठ स्तम्भकार व लेखक,महान अर्थशास्त्री, समाज सुधारक, बैरिस्टर, दलितों के मसीहा और जननेता थे। लेकिन उनके व्यक्तित्व का समग्रता से अध्ययन नहीं किया गया। अम्बेडकर का जीवन बड़ा व्यापक विस्तृत और बहुआयामी था। कोई उन्हें दलितों का मसीहा और कोई सवर्णों का विरोधी कहता है जबकि वह सबके थे। महापुरूषों को किसी खेमें में नहीं बांटा जा सकता। उनका जीवन सम्पूर्ण मानवता के कल्याण को समर्पित था।

 जब पूरे देश में भारत को स्वाधीन कराने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में आजादी का आन्दोलन चल रहा था उसी समय डा. अम्बेडकर एक बहुत बड़ा समाज जो अपने ही समाज द्वारा उपेक्षित था उसके उत्थान में लगे थे। उनकी दृष्टि में आजादी से ज्यादा महत्व दलितों का उत्थान था। वह कहते थे कि क्या गारंटी है कि देश को आजादी मिलने के बाद एक बहुत बड़ा समाज जो अभावों में जी रहा है उन्हें आजादी मिल जायेगी। उनका मानना था कि छुआछूत गुलामी से भी बदतर है।

कुछ लोग कहते हैं कि वे हिन्दुत्व के विरोधी थे मूर्तिपूजा और धर्म के विरोधी थे। लेकिन अम्बेडकर ने स्वयं कहा है कि मैं धर्म पर विश्वास रखता हूँ। धर्म पर उनका बड़ा व्यापक विश्वास था। वह हिन्दुत्व के प्रबल समर्थक थे। वहीं मार्क्सवादी विचारधारा के लोग मानते हैं कि वे वर्ग संघर्ष में विश्वास रखते थे लेकिन अम्बेडकर ने स्पष्ट लिखा है कि मैं कम्युनिज्म और कम्युनिस्टों का शत्रु नंबर एक हूँ।  लेकिन उनके जीवन में एक बार भी ऐसा नहीं आया कि उन्होंने किसी भी एक वर्ग विशेष के खिलाफ कुछ खराब बोला हो। वे कुछ व्यवस्थाओं को लेकर संघर्ष कर रहे थे। उनका संघर्ष कुछ मान्यताओं और हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को लेकर था। अगर वह हिन्दू धर्म और मूर्ति पूजा के विरोधी होते तो कालेराम मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिए आन्दोलन क्यों करते।

18 जनवरी 1929 के बहिष्कृत भारत के संपादकीय में वह लिखते हैं कि ‘मार्क्सवादी धर्म को अफीम मानते हैं। इनको मक्खन और टोस्ट मिला, मुर्गे की टांग मिली वे प्रसन्न हो जाते हैं। मैं इनके मत का समर्थन नहीं करता हूँ। यही बात उन्होंने 1937 में मैसूर में आयोजित दलित वर्ग के सम्मेलन को सम्मेलन को संबोधित करते हुए दोहराई थी। उन्होंने कहा था कि अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए मजदूरों का शोषण करने वाले कम्युनिस्टों का मैं दुश्नम नंबर एक हूँ।

 हिन्दू मुस्लिम समस्या पर उनका बहुत ही सूक्ष्म और सटीक विश्लेषण था। बाबा साहब मानते थे कि हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रयास भ्रामक है। अंबेडकर स्वयं लिखते हैं कि क्या सच्चा मुसलमान भारत को अपनी मातृभूमि मानेगा। क्योंकि सन 711 से लेकर आज तक जो इस्लाम का इतिहास है वह युद्ध का आक्रमण का और क्रूरतम घटनाओं का है। मुस्लिम आक्रमणकारियों का भारत  पर आक्रमण का उद्देश्य हिन्दू धर्म का विनाश था। अम्बेडकर लिखते हैं कि मुस्लिम जिहाद केवल छेड़ ही नहीं सकते बल्कि जिहाद की सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति को सहायता के लिए बुला भी सकते हैं। आज अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में कुछ लोग दलित मुस्लिम एकता की बात कर दलितों को बरगलाने की कोशिश करते हैं वह अम्बेडकर के अनुयायी नहीं हो सकते।

आम्बेडकर ने हिन्दू समाज को सुधारने के लिए तमाम प्रयत्न किए, परन्तु हिन्दुओं का ह्रदय परिवर्तन नहीं हुआ तब उन्होंने धर्म परिवर्तन की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि ‘‘मैं एक अछूत हिन्दू के रूप में पैदा हुआ हूँ, लेकिन मैं एक हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं’’  धर्म-परिवर्तन की घोषणा के बाद हैदराबाद के इस्लाम धर्म के निजाम से लेकर कई ईसाई मिशनरियों ने उन्हें तमाम प्रलोभन भी दिये पर उन्होनें सभी को ठुकरा दिया। अम्बेडकर ने कहा था कि ‘‘मैं यदि ईसाइयत में गया या इस्लाम स्वीकार किया तो यह देश एक बड़े खतरे में चला जायेगा। इसलिए मैं उसी रास्ते को अपना रहा हूं जिससे इस देश के मौलिक तत्त ज्ञान के साथ मैं जुड़ा रहूंगा। अम्बेडकर ने भारत की धरती पर उपजा और पला बढ़ा बौद्ध मत स्वीकार किया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में बाबा साहब के मन में बहुत जिज्ञासा थी। वे एक बार संघ के शिविर में गये थे और वहां पर अस्पृश्यता का नामोनिशान न देखकर प्रसन्न हुए थे। संघ के स्वयंसेवक एकात्मता स्रतोत में हर दिन उनका स्मरण करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी जी से उनके निकट के सम्बंध थे। बौद्धमत अंगीकार करने से कुछ दिन पहले दत्तोपंत जी अम्बेडकर जी से मिलने गये थे। उस समय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी से चर्चा के दौरान अम्बेडकर ने कहा था कि ‘‘ मेरे सामने सवाल यह है कि अपने देहावसान से पहले मुझे समाज के लिए कोई भी डिफिनेट डाइरेक्श देना चाहिए। क्योंकि यह समाज  अभी तक दलित पीड़ित शोषित बना हुआ है। इसलिए अब उसमें  जो नवजागृति आ रही है, उसमें एक प्रकार की चिढ़ और जोश का होना सहज है और इस प्रकार का जो समाज होता वह कम्युनिज्म का भक्ष्य बनता है। और मैं यह नहीं चाहता कि अपना यह समाज कम्युनिज्म के अधीन आ जाय।

राष्ट्र के लिए अम्बेडकर के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। लोग उन्हें यह मानकर पूजते हैं कि उन्होंने संविधान लिखा। यह तो उनके जीवन का पार्टभर है। कुछ लोगों का मानना है कि उन्होंने ईसाइयत और इस्लाम के प्रस्ताव को अस्वीकार कर बौद्ध धर्म अपनाकर उपकार किया। यह सच्चाई तो है लेकिन अम्बेडकर का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने भारत का एक और विभाजन होने से बचा लिया। अंग्रेजों को जब लगा कि अब भारत पर लम्बे समय तक शासन नहीं किया जा सकता तो उन्होंने दलितों और मुस्लिमों को अलग राष्ट्र की मांग के लिए उकसाया। उस समय मोहम्मद अली जिन्ना सरीखे कुछ कांग्रेसी नेता अंग्रेजों के बहकावे में आ गये और पाकिस्तान की मांग तेज कर दी। वहीं देश के कुछ हिस्सों में दलितों के लिए अलग देश की मांग भी उठने लगी। अंग्रेज भारत को टुकड़े-टुकड़े में बांट कर जाना चाहते थे। उस समय के हमारे देश के नेताओं को अंग्रेजों की चाल समझ में नहीं आयी। कांग्रेस के सत्ता के लालची नेताओं ने हड़बड़ी में स्वाधीनता से पहले विभाजन स्वीकार कर लिया। लेकिन अम्बेडकर पर अंग्रेजों का जादू नहीं चला। वह अंग्रेजों की चाल समझ चुके थे। अम्बेडकर ने समाज के कटु विरोध आलोचना एवं उपेक्षाओं को सहन करते हुए भी अपने निर्धारित मार्ग से हटे नहीं। ईसाई एवं मुस्लिम समाज द्वारा दिखाए गये प्रलोभनों को ठुकराकर उन्होंने अपने अनुयायियों को बौद्धमत का अंगीकार करने की प्रेरणा दी जिससे व राष्ट्र के सांस्कृतिक प्रवाह के अभिन्न् अंग बने रहें। उन्होंने लोकसभा में घोषित किया था कि छुआछूत भेदभाव आदि समस्याएं हमारे अपने घर की हैं। उन्हें हम आपस में निपट लेंगे। किन्तु यदि कोई विदेशी शक्ति उसका अनुचित लाभ उठाकर हमारे अन्दर फूट डालने का प्रयत्न करेगी तो इसे कदापि सहन  नहीं किया जायेगा। यह वाक्य उनकी प्रखर देशभक्ति का परिचायक है।    

(लेखक पत्रकारिता से जुड़े हैं। )

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