डॉ. शंकर सुवन सिंह
युवा शब्द युवक से लिया गया है। एक जवान व्यक्ति को युवा कहा जाता है किसी भी व्यक्ति का महत्व उसके
गौरव (भारीपन) में होता है। व्यक्ति का गौरव उसके युवापन में ही होता है। जवान अर्थात जव-आन (जिसका
गौरव गतिशील हो वही जवान है) अर्थात जिसकी शान में गतिशीलता हो। ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण में
चरैवेति शब्द का उल्लेख मिलता है जिसका अर्थ है चलते रहो। भारत की संस्कृति चरैवेति-चरैवेति के सिद्धांत
पर आधारित है। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को सत्कर्मो में संलिप्त रहना चाहिए और अपने कर्मो को
बिना किसी फल की चिंता किये हुए करते रहना चाहिए। किसी भी व्यक्ति का गौरव उसके विचारों से नापा
जाता है। तभी तो कहा गया है मन चंगा तो कठौती में गंगा अर्थात अगर व्यक्ति का मन शुद्ध है, किसी काम को
करने की उसकी नीयत अच्छी है तो उसका हर कार्य गंगा के समान पवित्र है। संत कबीर ने कहा था मन के
हारे हार है और मन के जीते जीत अर्थात जीवन में जय और पराजय केवल मन के भाव हैं। अतएव
सकारात्मकता के भाव से मन पर विजय प्राप्त की जा सकती है। व्यक्ति मन से बड़ा होता है तन से नहीं।
आदमी मन से मजबूत होता है तन से नहीं। आदमी का मन विचारों की गतिशीलता का द्योतक है। मन से बड़ी
कोई दूसरी शक्ति नहीं है। चरैवेति सूत्र का अनुसरण करने वाला युवा उम्र के किसी भी पड़ाव पर जवान बना
रह सकता है। गतिशील युवक जवानी का द्योतक है। ठहरा हुआ युवक बुढ़ापे का द्योतक है। जिस प्रकार ठहरा
हुआ पानी खराब हो जाता है उसी प्रकार ठहरे हुए युवक की जवानी खराब हो जाती है। ख़राब (व्यर्थ)
जवानी, बुढ़ापे का प्रतीक है। कहने का तात्पर्य जवान व्यक्ति सत्कर्मों से युवा होता है और दुष्कर्मों से बूढ़ा।
समय से पहले भौतिक संसाधनों की अपेक्षा कर रहा युवा अपनी संस्कृति व सभ्यता को भूल गया है। संस्कृति
संस्कार से बनती है और सभ्यता नागरिकता से। चाणक्य नीति में एक सूत्र मिलता है अलब्धलाभो नालसस्य
अर्थात आलसी को कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। एक सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा हुआ है कि कम से कम 75
प्रतिशत युवा 21 साल की उम्र पूरी होने से पहले ही नशा कर चुका होता है। नशा नर्क की निशानी है। युवा
आए दिन अपराध के जुर्म में फंसते जा रहे है जिसका कारण नशा ही है। नशा सारे अपराध की जड़ है। चाणक्य
नीति में एक सूत्र है न व्यसनपरस्य कार्यावाप्तिः अर्थात बुरी आदतों में लगे हुए मनुष्य को कार्य की प्राप्ति नहीं
होती है। भारत में युवा दिवस युवाओं को सकारात्मक मार्गदर्शन देने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। भारत में
प्रत्येक वर्ष 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस, स्वामी विवेकानंद की जयंती पर मनाया जाता है। इस वर्ष
2023 में विवेकानन्द जी की 160 वी जयंती है। वर्ष 1984 में, भारत सरकार ने 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा
दिवस के रूप में घोषित किया। कठोपनिषद के पहले अध्याय के तीसरे स्तम्भ का चौदहवां मंत्र इस प्रकार है
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥ जिसका अर्थ
यह है कि उठो, जागो, और जानकार श्रेष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ज्ञान प्राप्त करो। ऋषियों का कहना है कि
ज्ञान प्राप्ति का मार्ग उसी प्रकार दुर्गम है जिस प्रकार छुरे के पैना किये गये धार पर चलना।कठोपनिषद के इस
कथन को युगद्रष्टा स्वामी विवेकानंद ने सर्वग्राही बना दिया। स्वामी विवेकानंद के उपदेशात्मक वचनों में यह
सूत्रवाक्य विख्यात है उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। इस वचन के माध्यम से उन्होंने देशवासियों को
अज्ञानजन्य अंधकार से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन की प्रेरणा दी थी। वेदों में वर्णित चार आश्रम एक व्यक्ति के
कर्म और धर्म पर आधारित थे। प्राचीन भारत का प्रत्येक सिद्धांत, वैज्ञानिक और तर्कसंगत तर्क पर आधारित
है। वैदिक जीवन में व्यक्ति की औसत आयु 100 वर्ष हुआ करती थी। वैदिक जीवन के चार आश्रम थे- ब्रह्मचर्य,
गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। प्रत्येक आश्रम (चरण) का लक्ष्य उन आदर्शों को पूरा करना था जिन पर ये
आश्रम(चरण) विभाजित थे। जीवन के चार आश्रमों के अनुसार पहला चरण ब्रह्मचर्य है जो 25 वर्ष की आयु
तक रहता है। इस अवस्था में मनुष्य विद्यार्थी जीवन जीता है और ब्रह्मचर्य का पालन करता है। इस चरण का
आदर्श वाक्य मनुष्य को स्वयं को प्रशिक्षित करना है। दूसरा चरण गृहस्थ है जो 25 वर्ष की आयु से 50 साल
तक की आयु तक रहता है। यह चरण गृहस्थ व्यक्ति के जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है, जहाँ मनुष्य को
अपने पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों दोनों को संतुलित करना होता है। तीसरा चरण वानप्रस्थ है जो 50
वर्ष की आयु से 75 वर्ष की आयु तक रहता है। यह आंशिक त्याग का कदम होता है। नौकरी पेशा लोगो के लिए
ये सेवानिवृत्ति की उम्र होती है। इस चरण में व्यक्ति ऐसे रास्ते पर चलना शुरू करता है जो उसे दिव्यता की
ओर ले जाती है। चौथा चरण संन्यास है जो कि 75 वर्ष की आयु से शुरू होता है और मर जाने तक रहता है।
यह अवस्था भावनात्मक जुड़ावों से पूरी तरह मुक्त है। इस चरण में व्यक्ति तपस्वी बन जाता है। इन आश्रमों के
माध्यम से व्यक्ति को नैतिकता, आत्म-संयम, बुद्धिमत्ता, व्यावहारिकता, प्रेम, करुणा और अनुशासन के मार्ग
दिखाए गए थे। उन्हें लालच, क्रूरता, सुस्ती, घमंड और कई अन्य दोषों से दूर रहने के लिए निर्देशित किया
गया था। यह व्यवस्था बड़े पैमाने पर समाज के लिए फायदेमंद थी। अतएव हम कह सकते है कि इस व्यवस्था
का अनुसरण करने वाला व्यक्ति आजीवन युवा बना रहता है। किसी भी देश का युवा उस देश के विकास का
सशक्त आधार होता है। जब यही युवा अपने सामाजिक और राजनैतिक जिम्मेदारियों को भूलकर विलासिता
के कार्यों में अपना समय नष्ट करता है, तब देश बर्बादी की ओर अग्रसर होने लगता है। आज के युवा वर्ग में देश
का भविष्य निहित है। अतएव आज के युवा वर्ग को अपने जीवन का एक उद्देश्य ढूँढ लेना चाहिए। हमें ऐसा
प्रयास करना होगा ताकि युवाओं के भीतर जगी हुई प्रेरणा तथा उत्साह ठीक पथ पर संचालित हो। पूरे विश्व
में भारत को युवाओं का देश कहा जाता है। हमारे देश में अथाह श्रमशक्ति उपलब्ध है। आवश्यकता है आज
हमारे देश की युवा शक्ति को उचित मार्ग दर्शन देकर उन्हें देश की उन्नति में भागीदार बनाने की। युगांतर से
युवा नवचेतना का संवाहक है। अतएव हम कह सकते हैं कि युवा, युग परिवर्तन का वाहक है।
लेखक
डॉ. शंकर सुवन सिंह
वरिष्ठ स्तम्भकार एवं विचारक
असिस्टेंट प्रोफेसर, कृषि विश्वविद्यालय
प्रयागराज (यू.पी)