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भारत में उपभोग की असमानता पिछले 40 वर्ष के सबसे निचले स्तर पर

किसी भी देश की आर्थिक नीतियां सफल हो रही हैं, इसका एक पैमाना यह भी हो सकता है कि क्या समाज में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक इन आर्थिक नीतियों का लाभ पहुंच रहा है? भारत में हाल ही के समय में इस संदर्भ में कुछ विशेष प्रयास किए गए हैं और यह प्रयास एक तरह से प्राचीन भारत में लागू की गई आर्थिक नीतियों की झलक दिखलाते नजर आ रहे हैं। भारत में अर्थ से सम्बंधित प्राचीन ग्रंथों, आध्यात्मिक ग्रंथों सहित, में यह कहा गया है कि यह राजा का कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजा की अर्थ से सम्बंधित समस्याओं का हल खोजने का प्रयास करे। पंडित श्री दीनदयाल उपाध्याय जी ने भी एक बार कहा था कि किसी भी राजनैतिक दल के लिए केवल राजनैतिक सत्ता हासिल करना अंतिम लक्ष्य नहीं होना चाहिए बल्कि यह एक माध्यम बनना चाहिए इस बात के लिए कि देश के गरीब से गरीब व्यक्ति तक आर्थिक विकास का लाभ पहुंचाया जा सके। सामान्यतः विभिन्न देशों में आर्थिक विकास के चक्र के दौरान देश के नागरिकों के बीच आय की असमानता की खाई बहुत गहरी होती जाती है। विशेष रूप से जिन देशों में पूंजीवादी मॉडल को अपनाया गया है वहां इस तरह की समस्या गम्भीर होती गई है और इन देशों को इस समस्या को हल करने का कोई उपाय दिखाई नहीं दे रहा है। विश्व में आज ऐसे कई देश हैं जिनके 20 प्रतिशत नागरिकों के पास 80 प्रतिशत से अधिक की सम्पत्ति जमा हो गई है जबकि 80 प्रतिशत नागरिकों के पास केवल 20 प्रतिशत से भी कम संपत्ति है। प्राचीन भारत में आय की असमानता की समस्या के इस तरह से गम्भीर रूप लेने का उल्लेख भारतीय ग्रंथों में नहीं मिलता है। दरअसल, उस समय भारत में आर्थिक मॉडल ही इस प्रकार का था कि राज्य में सेठ साहूकार जरूर हुआ करते थे परंतु आज के विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की तरह नहीं होते थे कि राष्ट्र की अधिकतम संपत्ति पर अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयास करें। प्राचीन भारत में उत्पाद की वास्तविक लागत में लाभ का केवल कुछ हिस्सा (5 अथवा 10 प्रतिशत) जोड़कर ही उत्पाद को बेचा जाता था। आज तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां उत्पादों पर कितना लाभ लेती हैं, इसकी कोई सीमा ही नहीं है। इन कारणों के चलते ही आज विभिन्न देशों के आर्थिक विकास के साथ साथ अमीर व्यक्ति अधिक अमीर होता जा रहा है और गरीब व्यक्ति और अधिक गरीब होता जा रहा है। आज अमेरिका जैसे विश्व के सबसे अमीर देश में भी लगभग 6 लाख व्यक्ति ऐसे हैं जिनके पास रहने के लिए घर नहीं है और वे खुले में रहने को मजबूर हैं। आय की असमानता के रूप में यही हाल लगभग सभी विकसित देशों का है।

भारत में आर्थिक नीतियों को लागू करने में इस बात का ध्यान रखा जा रहा है कि किस प्रकार आर्थिक प्रगति का लाभ गरीबतम नागरिकों तक भी पहुंचे। अभी हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मोनेटरी फण्ड में प्रस्तुत किए गए एक रिसर्च पेपर – “महामारी, गरीबी एवं असमानता: भारत से साक्ष्य” – में बताया गया है कि भारत में कोविड महामारी के खंडकाल में भी उपभोग की असमानता में सुधार दिखाई दिया है और वित्तीय वर्ष 2020-21 में यह पिछले 40 वर्षों के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। इसी प्रकार भारतीय स्टेट बैंक द्वारा भी सम्पत्ति की असमानता विषय पर जारी किए गए एक अन्य प्रतिवेदन में लगभग इसी प्रकार के तथ्य को उजागर किया गया है। इसके पीछे मुख्य कारण यह बताया गया है कि देश में कोरोना महामारी के दौरान, मार्च 2020 में, चालू की गई प्रधान मंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के अंतर्गत 80 करोड़ नागरिकों को 5 किलो गेहूं अथवा चावल मुफ्त उपलब्ध कराया जा रहा है इससे देश के गरीबतम व्यक्तियों को वास्तविक रूप से आर्थिक सहायता पहुंच रही है। यह सहायता देश में पहिले से ही लागू राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत उपलब्ध कराई जा रही सहायता के अतिरिक्त है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत प्रत्येक गरीब परिवार को 35 किलो अपरिष्कृत अनाज, गेहूं एवं चावल क्रमशः एक रुपए, दो रुपए एवं तीन रुपए प्रति किलो की सस्ती दर पर प्रतिमाह उपलब्ध कराया जाता है। हालांकि अब 1 जनवरी 2023 से प्रधान मंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के अंतर्गत दिया जाने वाला लाभ अब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत दिया जाता रहेगा।

केंद्र सरकार द्वारा ग्रामीण किसानों एवं ग्रामीण इलाकों में गरीब नागरिकों को विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत उपलब्ध करायी जा रही सहायता के चलते प्रति परिवार प्रति वर्ष लगभग 75,000 रुपए की आय होने लगी है। प्रधान मंत्री किसान योजना के अंतर्गत किसानों को प्रति परिवार 6,000 रुपए प्रति वर्ष सीधे उनके बैंक खातों के माध्यम से प्रदान किए जा रहे हैं। एमजीनरेगा योजना के अंतर्गत प्रतिदिन 182 रुपए की दर पर कम से कम 100 दिनों का रोजगार प्रति परिवार उपलब्ध कराया जाता है जिसके अंतर्गत प्रति परिवार 18,200 रुपए की आय प्रति वर्ष होती है। उज्जवला योजना के अंतर्गत सब्सिडी सहित गैस सिलेंडर उपलब्ध कराया जा रहा है जिसके अंतर्गत प्रति परिवार 1138 रुपए की सब्सिडी प्रति परिवार प्रति वर्ष प्राप्त होती है। इसी प्रकार ग्रामीण इलाकों में 318 रुपए की न्यूनतम मजदूरी प्राप्त होती है और एक अनुमान के अनुसार प्रति परिवार कम से कम 150 दिनों का कार्य तो प्रति परिवार उपलब्ध होता ही है। इस मद से प्रति वर्ष प्रति परिवार 47,700 रुपए की आय होती है। इस प्रकार उक्त समस्त मदों का जोड़ रुपए 73,038 रुपए आता है। उक्त योजनाओं के माध्यम से देश के ग्रामीण इलाकों में गरीबतम नागरिकों को सहायता पहुंचाने का गम्भीर प्रयास केंद्र सरकार द्वारा किया जा रहा है, जिसके कारण देश में उपभोग की असमानता में अतुलनीय सुधार दृष्टिगोचर है।

कोरोना महामारी के खंडकाल में अमेरिका ने भी अपने नागरिकों के खातों में 2000 अमेरिकी डॉलर की राशि प्रति व्यक्ति जमा की थी। परंतु मुद्रा स्फीति की दर अधिक होने के कारण (उस समय अमेरिका में मुद्रा स्फीति की दर पिछले 40 वर्षों के अधिकतम स्तर अर्थात 8 प्रतिशत से अधिक हो गई थी) नागरिकों की क्रय शक्ति कम हो गई थी। दूसरे, लगभग सभी नागरिकों के हाथों में अमेरिकी डॉलर के रूप में एकमुश्त राशि आ जाने के कारण उत्पादों की मांग बहुत तेजी से बढ़ी, जबकि उत्पादों की उपलब्धता पर ध्यान नहीं दिया जा सका था। इसके कारण, मुद्रा स्फीति की दर भी बहुत बढ़ गई थी। जबकि भारत में गरीब वर्ग के नागरिकों को सीधे ही अन्न उपलब्ध कराया जाता रहा, जिस पर मुद्रा स्फीति का प्रभाव यदि हुआ भी था तो इसे केंद्र सरकार ने वहन किया था। इस कारण से अमेरिकी नागरिकों को जहां वास्तविक सहायता राशि (मुद्रा स्फीति समायोजित) कम मिली वहीं भारतीय गरीब नागरिकों को वास्तविक सहायता राशि अधिक प्राप्त हुई।

भारत में न केवल उपभोग की असमानता में सुधार दृष्टिगोचर है बल्कि सम्पत्ति की असमानता में भी कुछ सुधार दिखाई दिया है। साथ ही, गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों की संख्या में भी स्पष्ट रूप से कमी दिखाई दी है। इसकी सराहना तो विश्व बैंक ने भी मुक्त कंठ से की है। गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों की संख्या के बारे में विश्व बैंक के एक पॉलिसी रिसर्च वर्किंग पेपर (शोध पत्र) में बताया गया है कि वर्ष 2011 में भारत में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे व्यक्तियों की संख्या 22.5 प्रतिशत थी जो वर्ष 2019 में घटकर 10.2 प्रतिशत पर नीचे आ गई है अर्थात गरीबों की संख्या में 12.3 प्रतिशत की गिरावट दृष्टिगोचर है। जबकि विकसित देशों यथा अमेरिका की कुल आबादी के 11.4 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं एवं जर्मनी की कुल आबादी में से 15.5 प्रतिशत नागरिक गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने को मजबूर हैं तथा जापान में 15.7 प्रतिशत नागरिक गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। लगभग यही स्थिति अन्य विकसित देशों की भी है।

इसलिए अब यह कहा जा रहा है कि भारत द्वारा अपनाई जा रही आर्थिक नीतियों के परिणाम आम नागरिकों को अधिक लाभ पहुंचाते दिखाई दे रहे हैं एवं अब पूरे विश्व को ही प्राचीन भारत द्वारा अपनाई गई एवं वर्तमान में भारत में अपनाई जा रही आर्थिक नीतियों को लागू करना चाहिए जिससे पूंजीवादी मॉडल को अपनाए जाने के चलते जिस प्रकार की आर्थिक समस्याओं का सामना विभिन्न देश कर रहे हैं, इन समस्याओं से निजात पाई जा सकती है।

प्रहलाद सबनानी

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