बलबीर पुंज
आज भारत अपना 74वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। सभी पाठकों को इसकी असीम शुभकामनाएं। यह अवसर जहां जश्न मनाने का है, तो आत्मावलोकन करने का भी है। इसके लिए कुछ प्रश्नों का उत्तर खोजना स्वाभाविक है। यह ठीक है कि 1950 में भारत संप्रभु गणराज्य बना, किंतु क्या एक राष्ट्र के रूप में उसे पहचान भी तब ही मिली? क्या भारत में पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र और बहुलतावाद रूपी जीवनमूल्य, ब्रितानियों से मिले उपहार है? यदि ऐसा है, तो भारत को छोड़कर भारतीय उपमहाद्वीप में हमारे पड़ोसी देश या यूं कहे कि एक समय सांस्कृतिक भारत का हिस्सा रहे अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में इन मूल्यों का अकाल क्यों है? आखिर भारत में यह मूल्य किसके कारण अब तक जीवंत है?
भारत केवल इसलिए ही पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और बहुलतावादी नहीं है, क्योंकि अंग्रेजों ने अपने 200 वर्षों के राज के दौरान देश को कथित रूप से इन मूल्यों से परिचित कराया या फिर आपातकाल (1975-77) के समय हमारे संविधान की प्रस्तावना में चोर दरवाजे से ‘सेकुलर’ शब्द को जोड़ दिया। वास्तव में, भारत ने अपने मूल बहुलतावादी लोकाचार के कारण सभी प्रकार की पूजापद्धति और असहमति को सम्मान दिया है। “एकम् सत् विप्रा बहुधा वदंति” की वैदिक परंपरा से प्रेरणा पाकर ही सदियों पहले स्थानीय हिंदू राजाओं और प्रजा ने यहूदियों, पारसियों, ईसाइयों, इस्लामी अनुयायियों और उनकी परंपराओं को स्वीकार किया। कालांतर में जिन क्षेत्रों में वैदिक सनातन दर्शन और उसके अनुयायियों का ह्रास हुआ, वहां बहुलतावाद आदि समरस जीवनमूल्यों की हत्या हो गई। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कश्मीर घाटी इसके ज्वलंत उदाहरण है। स्पष्ट है कि इस भूक्षेत्र में बहुलतावाद का जीवन, जनसांख्यिकीय अनुपात और चरित्र पर निर्भर है।
जब वर्ष 1947 में विभाजन के पश्चात भारत के एक तिहाई से अधिक भूखंड को काटकर पाकिस्तान बनाया गया, तब उसने स्वयं को इस्लामी गणराज्य घोषित कर लिया। उस समय बहुत स्वाभाविक था कि हिंदू बहुल खंडित भारत स्वयं को ‘हिंदू राज्य’ घोषित कर लेता। किंतु ऐसा इसलिए नहीं हुआ और न ही इसकी आगे संभावना है, क्योंकि बहुलतावाद, लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता— अनादिकालीन भारतीय सनातन संस्कृति का केंद्रबिंदु है। भारत में धर्मनिष्ठ हिंदू राजा तो अनेकों हुए, किंतु इनमें किसी ने भी अपनी व्यक्तिगत आस्था को न ही शासकीय व्यवस्था का अंग बनाया और न ही अपनी प्रजा पर इसे जबरन थोपा। केवल सम्राट अशोक ऐसे अपवाद थे, जिन्होंने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध मत स्वीकार करके इसके प्रचार-प्रसार में राज्य के संसाधनों का उपयोग किया था। बीते 75 वर्षों से उन्हीं सम्राट अशोक का ‘धम्म-स्तंभ’, स्वतंत्र भारत के राजकीय प्रतीक के रूप में विद्यमान है।
हम सहस्राब्दियों से एक राष्ट्र के रूप में स्थापित है। 500-600 वर्षों से पहले तक पर्याप्त यातायात और संचार व्यवस्था नहीं होने से राज्यों को एक-दूसरे से संपर्क और सामंजस्य स्थापित करने में भीषण कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। इसी कारण तब केंद्रीय रूप से राज्यों को नियंत्रित करना दुस्साध्य था, इसलिए राज्यों का बनना-बिगड़ना स्वाभाविक था। किंतु तब भी सबके लिए भारत, भावनात्मक और सांस्कृतिक रूप से सदैव एक राष्ट्र ही रहा।
जो लोग भारत के राष्ट्र होने और उसकी राष्ट्रीयता पर प्रश्न खड़ा करते है, वे इटली, फ्रांस और जर्मनी के बारे में क्या कहेंगे— जिनका एकीकरण संचार-यातायात क्रांति के पश्चात क्रमश: 1861, 1870 और 1871 में हुआ। क्या इन देशों की ‘राष्ट्र अवधारणा’ पर प्रश्न उठाए जा सकते है? फ्रांस की आधिकारिक भाषा फ्रेंच है, किंतु वहां 75 अन्य क्षेत्रीय भाषाएं भी बोली जाती है। चीन में 20 से अधिक छोटे-बड़े मजहब है, तो मंदारिन के साथ 13 अबोधगम्य भाषा चलन में है। अब जो लोग विभिन्न भाषाओं-मजहबों के आधार पर भारत को अलग-अलग ‘राष्ट्र’ के रूप में देखते है, क्या वे वर्तमान फ्रांस और चीन को इसी प्रकार कलंकित करेंगे?
भारत में बहुलतावाद का जनक कौन है? स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रनिर्माताओं ने दो वर्ष, 11 माह और 18 दिन बाद गहन-मंथन के पश्चात भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार किया। तब इसके तत्कालीन स्वरूप को हिंदी और अंग्रेजी में प्रसिद्ध सुलेखक प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने अथक परिश्रम और बिना कोई गलती किए कलमबद्ध किया था। इसके बाद प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस ने संविधान की दोनों मूल प्रतियों को अद्भुत चित्रों के साथ मूल भारतीय इतिहास और परंपरा से जोड़ने का काम किया। इनमें नटराज (शिवजी), श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध के उपदेश, महावीर के जीवन, मोहनजोदड़ो, मौर्य, गुप्त आदि कालों के साथ नालंदा विश्वविद्यालय, छत्रपति शिवाजी महाराज, गुरु गोबिंद सिंहजी, गांधीजी, नेताजी इत्यादि के सुंदर चित्र हैं।
यह सभी मात्र सजावट हेतु कोई सामान्य कलाकृति नहीं है, अपितु भारत की वैदिककाल से गणतंत्र बनने की विकास यात्रा का पुनीत ग्रंथ है। संविधान की मूल प्रति पर उल्लेखित मौलिक अधिकारों के पृष्ठ पर श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के चित्र है। यह इसलिए भी स्वाभाविक है, क्योंकि मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा स्थापित मूल्य— बिना किसी भेदभाव के व्यक्ति, समाज और विश्व को अधिक सहज, सुखमय बनाने का भाव रखता है। यही कारण है कि अनेकों षड़यंत्रों और सामाजिक घालमेल के बाद भी भारत का बहुलतावादी चरित्र अक्षुण्ण है।
यह दिलचस्प है कि स्वतंत्र भारत में ‘सेकुलर’ कौन है और कौन ‘सांप्रदायिक’— इसका प्रमाणपत्र वामपंथ प्रदत्त वह समूह पिछले 75 वर्षों से निर्लज्जता के साथ बांट रहा है, जिसके मानसबंधुओं ने इस्लाम के नाम पर भारत का रक्तरंजित विभाजन कर दिया था। इतना ही नहीं, वामपंथी तब पाकिस्तान ही नहीं, अपितु भारत के कई और टुकड़े करने के पक्षधर थे, यह लक्ष्य अब भी बरकरार है। देश में ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ की सक्रियता— इसका प्रमाण है।
समस्त भारतीयों को राष्ट्र रूपी माला में पिरौने के बजाय ‘सेकुलरवाद’ के नाम पर मजहबी, जातीयष भाषाई और क्षेत्रीय भिन्नता पर बल दिया जा रहा है। ऐसा करने का एकमात्र कारण भारतीय समाज में राष्ट्रीयता, समरसता, एकता और सह-अस्तित्व की भावना को क्षीण करना है, जिससे उन शक्तियों को लाभ मिले, जो सदियों से अपने मजहबी एजेंडे (मतांतरण सहित) की पूर्ति करने हेतु ताक में है। समग्र भारतीय दर्शन और उसके प्रतिबिंब रूपी गणतंत्र को सर्वाधिक खतरा इसी संकीर्ण मजहबी अवधारणा और वामपंथी दर्शन के गठजोड़ से है।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।