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हमारी न्याय व्यवस्था पर बीबीसी का प्रहार

बलबीर पुंज

गुजरात दंगे को लेकर यूनाइटेड किंगडम के राष्ट्रीय प्रसारक— बीबीसी की वृत्तचित्र को किस श्रेणी में रखेंगे? क्या इसे पत्रकारिता कहेंगे या फिर भारत के प्रति घृणा? इस घटनाक्रम में भारत सरकार की जो प्रतिक्रिया आई है, उसपर अलग से विस्तृत चर्चा हो सकती है। यह पहली बार नहीं, जब वामपंथ केंद्रित बीबीसी ने कोई भारत-विरोधी रिपोर्ट या वृत्तचित्र तैयार की हो और भारत सरकार ने उसपर प्रतिबंध लगाया हो। 1968-71 में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा बीबीसी पर लगाई पाबंदी— इसका प्रमाण है। स्वयं ब्रितानी सरकारों-राजनीतिज्ञों (मारग्रेटा थैचर सहित) के साथ भी बीबीसी का पुराना विवाद रहा है। इस पृष्ठभूमि में जिस प्रकार बीबीसी ने 20 वर्ष पुराने प्रकरण पर विकृत रिपोर्ट को प्रस्तुत किया है, वह उस औपनिवेशिक ब्रितानी अधिष्ठान से प्रेरित है, जिसने 19वीं शताब्दी में कमजोर कड़ियों को ढूंढकर कालांतर में वामपंथियों और जिहादियों के साथ मिलकर भारत का रक्तरंजित विभाजित करके पाकिस्तान को जन्म दिया। यही वैचारिक तिकड़ी— सामूहिक और व्यक्तिगत रूप से खंडित भारत को फिर से टुकड़े-टुकड़े में तोड़ने का प्रयास कर रही है।

पहली बात— वर्ष 2002 का गुजरात दंगा न तो भारत की पहली सांप्रदायिक हिंसा थी और न ही आखिरी। यह दिलचस्प है कि बीबीसी अपनी 101वीं वर्षगांठ में प्रवेश कर गया है और इतने ही कालखंड में देश के भीतर खिलाफत आंदोलन (1919-24) प्रदत्त मोपला-कोहाट नरसंहार, खूनी ‘कलकत्ता डायरेक्ट एक्शन डे’ से लेकर रांची-हटिया (1967), मुरादाबाद (1980), मेरठ (1987), भागलपुर (1989), मुंबई (1993), मऊ (2005), कंधमाल (2007-08), असम (2012), मुजफ्फरनगर (2013), दिल्ली (2019-20) और उदयपुर-अमरावती हत्याकांड (2022) जैसे असंख्य सांप्रदायिक प्रकरण सामने आए है, जिसके पीछे एक संकीर्ण चिंतन ‘केवल मैं और मेरा ईश्वर ही सच्चा’ बड़ी भूमिका निभा रहा है। आखिर बीबीसी और उसकी हालिया रिपोर्ट का समर्थन करने वाले केवल एक दंगे पर ही क्यों अटके है?

बीबीसी की वृत्तचित्र में दंगे का तो उल्लेख है, किंतु उसने इसमें कुटिलता के साथ उस नृशंस गोधरा कांड को गौण कर दिया गया, जो वास्तव में— इस पूरे घटनाक्रम का केंद्रबिंदु था। 27 फरवरी 2002 को अयोध्या से ट्रेन में लौट रहे 59 कारसेवकों को मजहबी भीड़ ने जीवित जलाकर मार दिया था, जिसमें अदालती सुनवाई के बाद हाजी बिल्ला, रज्जाक कुरकुर सहित 31 दोषी ठहराए गए थे। स्पष्ट है कि दंगे पर बीबीसी की एकपक्षीय रिपोर्ट— पत्रकारिता तो बिल्कुल भी नहीं है।

बीबीसी ने अपनी प्रस्तुति में भारत के तथाकथित सेकुलरवादियों, जिहादियों और इंजीलवादियों के उन्हीं मिथ्या प्रचारों को दोहराया है, जिसे भारतीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल (एसआईटी) ने न केवल वर्ष 2012 में सिरे से निरस्त कर दिया, अपितु कालांतर में इस निर्णय के खिलाफ दाखिल याचिका को भी स्वयं शीर्ष अदालत ने कड़े शब्दों के साथ 24 जून 2022 को रद्द कर दिया था। इस प्रकरण को देखकर मुझे वामपंथी ‘लेखिका’ अरुंधति रॉय का दो दशक पुराना वह आलेख स्मरण होता है, जिसे उन्होंने एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचार पत्रिका के लिए लिखा था। इसमें अरुंधति ने दावा किया था कि जाफरी की बेटी को निर्वस्त्र करके जीवित जला दिया गया था, जोकि सफेद झूठ निकला। तब जाफरी की बेटी अमेरिका में सकुशल थी। अपने इस कुकर्म के लिए अरुंधति को माफी तक मांगनी पड़ी थी।

उस समय अरुंधति के साथ तीस्ता सीतलवाड़ जैसे वामपंथियों और स्वयंभू सेकुलरवादियों ने विकृत विमर्श के बल पर 2002 के गुजरात दंगे को ऐसे परोसा कि जैसे स्वतंत्र भारत ही नहीं, अपितु विदेशी इस्लामी आक्रांताओं के जिहादी कालखंड के बाद पहली बार हिंदू-मुस्लिम के बीच कोई दंगा हुआ था। अहमदाबाद में यह हिंसा उन सांप्रदायिक दंगों की लंबी और दुर्भाग्यपूर्ण श्रृंखला में एक है, जिसका पहला मामला वर्ष 1714 में मुगलकाल के दौरान होली के दिन सामने आया था, तो 1993 तक अहमदाबाद ऐसे ही 10 बड़े हिंदू-मुस्लिम दंगों का साक्षी बन गया। न तो भाजपा, आरएसएस, बजरंगदल, विश्व हिंदू परिषद वर्ष 1714 में थे और न ही वर्ष 1969-1985 में हुए सांप्रदायिक दंगे के समय प्रभावशाली।

अरुंधति-तीस्ता जैसे मानसबंधुओं के भारत-हिंदू विरोधी चिंतन को बीबीसी भी अपनी ‘व्हाइट मैन बर्डन’ मानसिकता के कारण भी अंगीकार किए हुए है। इस दर्शन से प्रेरित ब्रिटेन के पूर्व विदेश मंत्री, आठ बार के सांसद और लेबर पार्टी के वरिष्ठ नेता जैक स्ट्रॉ भी है, जिनकी तथाकथित ‘गोपनीय जांच’ पर बीबीसी ने अपनी गुजरात दंगा संबंधित वृत्तचित्र का निर्माण किया है। स्ट्रॉ कितने ‘प्रमाणिक’ और ‘सच्चे’ है, यह उनके द्वारा इराक युद्ध (2003) का समर्थन करने हेतु झूठे-फर्जी सबूत गढ़ने से स्पष्ट है। वर्ष 2016 में सार्वजनिक हुई ‘चिल्कोट रिपोर्ट’ इसका प्रमाण है।

वास्तव में, बीबीसी अपने मोदी-विरोधी उपक्रम से न केवल ब्रिटेन को पछाड़कर विश्व की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बने, वैश्विक जी20 के साथ ‘शंघाई सहयोग संगठन’ (एससीओ) की अध्यक्षता कर रहे और ब्रिटेन के साथ मुक्त व्यापार समझौता करने जा रहे भारत को कलंकित करना चाहता है, अपितु इसके माध्यम से अपनी निरंतर गिरती प्रतिष्ठा-विश्वसनीयता को बचाने और ब्रितानी प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को उनके हिंदू होने के कारण ब्रितानी राजनीति में अलग-थलग भी करना चाहता है।

देश-विदेश में चैनलों की बाढ़ आने से प्रतिस्पर्धा के साथ दर्शकों को ओटीटी की ओर रूझान बढ़ने, ब्रितानी सरकार द्वारा बजटीय खर्च रोकने, लगातार राजस्व नुकसान होने और नौकरी में कटौती से बीबीसी त्रस्त है। अनुमान लगाना कठिन नहीं कि 77 प्रतिशत स्वीकृति के साथ विश्व के सबसे लोकप्रिय राजनेता— भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लांछित करके बीबीसी, एक विशेष वर्ग से ओछी प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहता है।

यह रोचक है कि जिस बीबीसी के वृत्तचित्र को स्वयं ब्रितानी प्रधानमंत्री के साथ अन्य राजनीतिज्ञ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से प्रोपेगेंडा बताकर निरस्त कर चुके या उसे महत्त्व नहीं दे रहे हो— उसे भारत में वही कुनबा अंतिम सच मान रहा है, जो ‘द कश्मीर फाइल’ को फर्जी बताकर 1989-91 में घाटी स्थित कश्मीरी पंडितों के नरसंहार को निरस्त करते है। सच तो यह है कि बीबीसी की हालिया वृत्तचित्र उन्हीं आपेक्षित खतरों और झूठे नैरेटिव की बानगी मात्र है, जो भारत के उत्थान में रोड़े अटकाएंगे।

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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