भारत देश के पर्वत अन्य देशों के पर्वतों की भांति साधारण नहीं है, वरन् इन पर्वतों पर विभिन्न देवी-देवताओं का वास है। उनमें भगवान शिव, भगवान विष्णु एवं माँ दुर्गा आदि अन्य देवी-देवता अनेकों रूपों में विराजमान हैं। अतीतकाल में अंग्रेजों ने इन्हीं पर्वत श्रृंखला के सौन्दर्य से परिपूर्ण शहरों यथा – शिमला, मसूरी, नैनीताल, दार्जीलिंग, रानीखेत आदि को अपनी मौज-मस्ती हेतु विकसित किया। उनकों विकसित करने में उनका यह प्रमुख उद्देशय था कि वे अपनी मित्र मंडली के साथ भारतीय महिलाओं पर अत्याचार व दुराचार कर सकें। अंग्रेजो ने भारत छोड़ने से पूर्व अपने समस्त बंगलें अपने चापलूसों और दासों को कम धनराशि में बेच दिए थे। वे देशद्रोही बंगले के मालिक इन भारतीय धरोहरों का संरक्षण करने में असमर्थ थे, अतः उन्होंने उनका विक्रय करना प्रारम्भ कर दिया और कुछ समय पश्चात ही वे बंगले होटलों में परिवर्तित होने लगे और वहाँ के अद्वितीय सौन्दर्य को देखने के लिए पर्यटकों की संख्या में प्रतिवर्ष तीव्र गति से वृद्धि होने लगी।
भवन निर्माणकर्ताओं का भी ध्यान व आकर्षण इन प्राकृतिक स्थलों की ओर होने लगा। उन्होंने वन्य सम्पदा को नष्ट कर वहाँ पर अत्यधिक मात्रा में अवैध भवनों का निर्माण किया। परिणामस्वरूप आवागमन हेतु सड़के संकरी होती गई। आज स्थिति यह है कि पर्यटकों को वहाँ तक पहुँचने के लिए 3-4 घंटे यातायात की बाधाओं से जूझना पड़ता है। इन पर्यटन स्थलों पर स्थापित होटलों का स्तर भी निम्नतर होता चला गया। इन पर्यटन स्थलों पर स्थित व्यापारिक स्थानों को चीन के द्वारा बनाए गए नकली कपड़े, खिलौने आदि से भर दिया गया। ऐसा करने के कारण स्वच्छ व हरियाली से परिपूर्ण शहर खाली होते गए, इसके विपरीत ये शहर पाॅलीथिन और प्लास्टिक की गंदगी से परिपूर्ण होते चले गए। विगत समय में जिन झरनों से स्वच्छ जल प्रवाहित होता था तथा जो जल जड़ी – बूटियों के औषधीय गुणों से युक्त था, अब वहाँ का पानी दूषित होना प्रारम्भ हो गया। इन स्थलों की जिस जलवायु में पशु पक्षी स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते थे, वही जलवायु आज उनके लिए हानिप्रद हो चुकी है। जो पहाड़ी क्षेत्रों के निवासी ईमानदारी के लिए सम्पूर्ण विश्व में सम्मानजनक स्थान को प्राप्त किए हुए थे, वे भी समय परिवर्तन के साथ धन के मोह में सही मार्ग से भ्रमित हो चुके हैं। जिस देवतुल्य पर्वतों की रज का स्पर्श तथा मस्तक पर टीका लगाने मात्र से भगवान प्रसन्न हो जाते थे, आज उन्हीं पर्वतों की रज में से सुरा की दुर्गंध आने लगी है। अन्धाधुंध विकास के कारण पहाड़ों का सन्तुलन बिगड़ता जा रहा है, जिस कारण वे पहाड़ अब अस्थिर होने लगे हैं। अब इन पहाड़ी स्थलों पर असन्तुलन इतना अधिक बढ़ गया है कि वहाँ के मूल निवासियों का भी वहाँ पर रहना दुभर होता जा रहा है। मानव ने स्वार्थसिद्धि हेतु इन देवतुल्य स्थलों की पवित्रता, शांति, सौन्दर्य को नष्ट कर दिया है, जिससे इन पर्वतों पर विराजमान भगवान शंकर, माँ दुर्गा, माँ ज्वालामुखी, माँ चितपूर्णा, माँ पूर्णागिरी, माँ कामाख्या, माँ कुष्मांडा, माँ बग्लामुखी, माँ वैष्णों, माँ शाकुम्भरी, माँ चंडी आदि अन्य देवी-देवता, आदिशंकराचार्य तथा अन्य साधु-संत स्वयं को असहज महसूस कर रहें हैं। मनुष्य के कुकृत्यों का फल समस्त प्राणियों को भोगना पड़ता है, यह फल ईश्वर के द्वारा प्राकृतिक प्रकोप के रूप में कभी न कभी अवश्य ही मिलता है। इस प्रकार की विकट स्थिती भारत देश के लिए अत्यंत ही कष्टप्रद होगी।
मैं इस लेख के माध्यम से यही संदेश जनता के मध्य प्रेषित कर रहा हूँ कि पर्वतों की श्रृंखला के मध्य विराजमान इन पर्यटन स्थलों को सुरक्षित करना हम सभी का प्रमुख दायित्व है। हम सभी को इन प्राकृतिक धरोहर को किसी भी प्रकार की हानि न पहुँचाकर इनको सुरक्षित व संरक्षित करना होगा, तभी इन पर्वतों पर विराजमान समस्त देवी-देवता, मनुष्य पर अपनी कृपा बनाए रखेंगे। अन्यथा इसके विपरीत होने पर समस्त जनता को देवीय प्रकोप का भाजन बनने हेतु तैयार रहना होगा।
*योगेश मोहन*
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