गांधी और गोड़से विचार युद्ध फिल्म देखने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। इस फिल्म को राजकुमार संतोषी ने निर्देशन किया है तथा असगर वजाहत के नाटक पर यह फिल्म आधारित है। इसका संवाद भी असगर वजाहत एवं राजकुमार संतोषी ने लिखा है। विचार की दृष्टि से यह फिल्म विचारोत्तेजक है। इसमें गोडसे और गांधी के विचार संतुलित ढंग से प्रस्तुत किए गए हैं। फिल्म बनाते समय यह ध्यान रखा गया है कि दोनों के विचार प्रमुखता से आएं। गोडसे के अपने तर्क थे और उन तर्कों के माध्यम से वह देश के हिंदुओं की दशा और दुर्दशा को देखकर व्यथित नजर आते हैं और उन्हें लगता है कि कहीं न कहीं गांधीजी हिंदुओं की समस्याओं, तकलीफों, वेदनाओं एवं कष्टों को समझने की चेष्टा नहीं करते। हर जगह उन्हें अपनी छवि की चिंता रहती है। वही गांधी के अपने तर्क हैं वह हर समस्याओं का निदान अहिंसा के माध्यम से देखना चाहते हैं। गांधी अपने विचारों से गोडसे को प्रभावित करने की चेष्टा करते हैं काफी हद तक कोशिश होती है लेकिन दोनों एक दूसरे के तर्कों और मान्यताओं को समझने में विफल होते हैं। जिसके परिणामस्वरूप गोडसे को अखंड भारत की परिकल्पना एवं हिंदू राष्ट्र की संकल्पना में बाधा बन रहे गांधी को मार्ग से हटाने का निर्णय लेना पड़ता है। इतिहास, साहित्य एवं सिनेमा में यही अंतर होता है कि जहां इतिहास पूर्व की घटनाओं को यथातथ्य प्रस्तुत करता है वही साहित्य एवं सिनेमा उसमें काल्पनिक कथाओं का समावेश कर उसे रोचक ढंग से प्रस्तुत करते हैं। इस फिल्म में भी वही रोचकता, वही कल्पनाशीलता और वही संवेदनशीलता का समावेश है, जिसके लिए साहित्य और सिनेमा जाने जाते हैं। इस पूरी फिल्म को आज भारतीय शिक्षण मंडल के सौजन्य से हम लोगों ने पीवीआर चाणक्य में देखा स्वयं राजकुमार संतोषी भी इस दौरान वहां मौजूद थे भारतीय शिक्षण मंडल के अखिल भारतीय संगठन मंत्री संगठन मंत्री माननीय शंकरानंद जी एवं प्रांत संगठन मंत्री भाई गणपति जी के साथ सैकड़ों कार्यकर्ता मौजूद थे। फिल्म कुल मिलाकर बहुत अच्छी बनी है। इसमें बताया गया है कि प्रथमत: गोडसे का प्रयास विफल रहता है और गांधी गोली लगने के बावजूद बच जाते हैं। और बचने के बाद दोनों के विचारों की टकराहट निरंतर बनी रहती है। गांधी को महिमामंडित करने की कोशिश इस फिल्म में दिखाई देती है। वही गोड़से को कई स्थानों पर गांधी के तर्क के आगे विचारशून्य दिखाया गया है जो समझ से परे है। गोडसे के अपने विचार थे और वह हिंदुत्व के जीवन दर्शन को जीने वाला व्यक्ति था। ऐसा लगता है कि नाट्य लेखक ने अपने विचारों के अनुरूप गंगा जमुनी तहजीब को दिखाने के लिए इस तरह की कल्पनाओं का फिल्म में समावेश किया है। गांधी न केवल गोडसे को क्षमा करते हैं बल्कि उनके विचारों से अवगत होने तथा अपने विचारों से गोडसे को प्रभावित करने के लिए उसके साथ जेल के एक ही बैरिक एवं कोठरी में रहते हैं। दोनों में जबरदस्त वैचारिक तकराहट होती है। दोनों एक दूसरे के तर्कों को काटने की कोशिश करते हैं और उनकी टकराहट से दर्शकों का मनोरंजन भी होता है। इस फिल्म में नाटकीय मोड़ उस समय आता है जब गांधी की हत्या करने के लिए दोबारा एक मुस्लिम युवक सामने आता है और जब वह हत्या करने के लिए गोली चलाने को उद्धत होता है उसी समय गोडसे उसका हाथ पकड़ कर उसके बंदूक की दिशा को दूसरी तरफ मोड़ देता है और गांधी बच जाते हैं। गांधी और गोडसे की जय जयकार होने लगतीहै।यहां तक तो सब ठीक है लेकिन इस फिल्म में 3–4 ऐसे स्थानों पर वामपंथी लेखक ने अपने नरेटिव को रखने में सफल रहा है। पहला नैरेटिव यह रखा गया है कि धर्म और संविधान दोनों एक दूसरे के विरुद्ध हैं। दूसरा नैरेटिव यह सेट किया गया है कि हिंदू और खासकर ब्राह्मण ही आदिवासियों का शोषण करने करते रहे हैं। तीसरा नरेटिव सेट करने की कोशिश की गई है कि गांधीजी सचमुच महान थे और कट्टरपंथी हिंदू उनके गंगा जमुनी तहजीब के खिलाफ थे। इसमें यह भी अतिरंजित ढंग से दिखाया गया है की कट्टर हिंदुओं ने खासतौर से हिंदू के पैरोकार संघ ने अंग्रेजो के खिलाफ कोई प्रतिरोध नहीं किया और वह केवल गांधी का विरोध करना चाहते थे। हिंदुत्व को एकांगी रूप से प्रस्तुत किया गया है।
प्रो नरेंद्र मिश्र, आचार्य, हिंदी संकाय, मानविकी विद्यापीठ, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
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