विजयमनोहरतिवारी
चिपकाया हुआ एक और नाम अपनी पुराने परिचय में लौट आया है। इस्लाम नगर अब जगदीशपुर कहलाएगा। एक समय वह जगदीशपुर ही था। एक समय वह इस्लाम नगर हो गया। समय के साथ ‘इस्लाम’ की स्मृतियों का ‘जगदीश’ जागृत बना रहा।
मेरे देखे इतिहास कोई मृत व्यवस्था का नाम नहीं है। वह घटनाओं का निष्पाण संग्रह भी नहीं है। वह जीवंत है। समय की शक्ति उसे प्रतिक्षण नए रूप और रंग देती रहती है। वह ऋतुओं की तरह है। जैसे ऋतु के साथ प्रकृति अपने आवरण हटाती है।
जीवित सभ्यताएँ जीवित हैं, इसके प्रमाण क्या हैं? वे अपनी स्मृतियों को सदा प्रज्वलित रखती हैं। जैसे नए अंकुरण का फूटना एक प्रमाण का अवतरण ही है। वही प्रमाणपत्र है।
भारतीय सभ्यता का धैर्य प्राणों की सीमा तक अंतहीन है। मैं मानता हूं कि पुनर्जन्म में आस्था यदि न होती तो भारत घुटकर मर गया होता। नवजीवन की आकांक्षाएँ भारत के प्राणों का आधार रही हैं। यह जीवन अंतिम नहीं है। यह जन्म भी अंतिम नहीं है। अनेक जन्म और जीवन धारण किए गए हैं। यह एक अनंत यात्रा है। यह जीवन अनंत यात्रा का ही एक पड़ाव है। इस विश्वास ने भारत को सब कुछ सह लेने की असीम शक्ति दी है। गहन अंधकार से भरी रात्रि का अंत होगा। प्रात:काल सूर्यनारायण पुन: प्रकाशित करने लौटेंगे। ये सदा ऐसा ही नहीं रहेगा। कैसा अटूट विश्वास है!
वे जो ‘जगदीश’ को ‘इस्लाम’ में घसीट लाए थे, उनके विश्वास विचित्र थे। वे अपने कर कमलों में अंतिम आदेशों को लेकर आए थे और उनके पालन की शीघ्रता में सदा ही विक्षिप्त थे। वह विक्षिप्तता किसी एक में नहीं थी। किसी एक समय में नहीं थी। किसी एक स्थान पर भी नहीं थी। वह सामूहिक थी। एक विस्तृत होती नकारात्मक शक्ति, जो सब ओर से ऊर्जा प्राप्त करती थी। उनके लिए यही जीवन अंतिम जीवन था। इसके उपरांत किसी जीवन की कोई संभावना नहीं थी। इस जीवन के अंत के बाद उन्हें अनंतकाल तक किसी अंतिम दिन की प्रतीक्षा में अंधकारपूर्ण मिट्टी में विश्राम करना था। वे विक्षिप्त ही विश्राम में चले गए। उस विक्षिप्तता के दुष्परिणाम अत्यंत कष्टकारी थे। भारत उनके आघातों को सह सका, क्योंकि उसकी दृष्टि में एक महान् निष्कर्ष का बीजारोपण था-‘काल के प्रवाह में ये भी व्यतीत हो जाएगा।’
एक नदी के तट पर जगदीशपुर ने एक दिन भयानक हत्याकांड होते हुए देखा। अपनों के रक्त से लाल हुई नदी का दूषित जल उसकी स्मृतियों में कभी बहकर निकला नहीं, ठहरकर रह गया। वे हत्यारे विजेता भाव से घोड़े दौड़ाते हुए और तलवारें चमकाते हुए चढ़े चले आए थे। उनके लिए यह अंतिम विजय थी। उनकी दृष्टि अौर उनके दर्शन में यह उनके द्वारा अर्जित किया हुआ पुण्य ही था। सर्वप्रथम उन्हें पराजित के परिचय छीनने का अधिकार जन्मजात प्राप्त था। कोई नगर हो या नागरिक, उसका नया नाम न किया तो हमारा नाम नहीं!
वह पहला दिन जब ‘जगदीशपुर’ को ‘इस्लामनगर’ कहकर पुकारा गया होगा, जगदीशपुर को अटपटा अवश्य लगा होगा! उस ह्दयविदारक हत्याकांड और नाम परिवर्तन के दुखद प्रसंग को तीन सौ वर्ष हो गए। पंद्रह पीढ़ियाँ व्यतीत हो गईं। अगर इस्लामनगर का नूतन परिचय जगदीशपुर के स्वभाव में समा गया होता तो पुराने परिचय में लौटने की यह घटना असंभव थी। वो नए और नकली परिचय पर मूर्खों की तरह इठला रहा होता!
फिर वो कौन सी शक्ति थी, जिसने ‘जगदीश’ की स्मृतियों को ‘इस्लाम’ के आवरण में जिलाए रखा? वे नया नाम देने वाले अपने अंतिम निर्णय की प्रतीक्षा में अपनी रक्तरंजित गाथाएँ पीछे छोड़कर चार कंधों पर चले गए। उन्हें अपनी बुद्धि और ज्ञान से अपने समस्त पुरुषार्थ इसी जन्म में कर दिखाने थे, क्योंकि पुनर्जन्म में उनकी कोई आस्था नहीं थी। वे शीघ्रता में थे। वे व्यग्र थे। वे व्यथित थे। व्यथा ही उनसे वितरित होनी थी।
शीघ्रतापूर्वक इसी जीवनकाल में उन्हें सब कुछ करना था, जिसमें विजय सुनिश्चित ही चाहिए थी। किसी भी प्रकार की नैतिकता की न आवश्यकता थी, न उपयोगिता। नैतिकता सभ्य समाज का एक व्यर्थ विचार है। जो समर्थ हैं, उनके लिए येनकेन प्रकारेण अनुकूल परिणाम ही महत्वपूर्ण है। विजय चाहिए, किसी भी रीति-नीति से चाहिए। नैतिकता-अनैतिकता के वाद-विवाद दुर्बलों के लिए हैं। विजय वीरस्य भूषणम्!
जगदीशपुर एक पर्वतीय दुर्ग का नाम भर नहीं था। एक जगदीशपुर के इस्लामनगर बनने का अर्थ एक नई परिपाटी के आरंभ से था, जिसका कोई अंत नहीं था। एक नगर के नाम परिवर्तन का अर्थ था अब अनेक नागरिक क्रम से स्वयं को तैयार करें। जब जो दुर्बल पड़ गया, अपना परिचय खो बैठा। छल से या बल से। वर्षों, दशकों और शताब्दियों में कहीं धीमी और कभी तीव्र गति के इन थपेड़ों में जीवन अपनी दिशा में गतिमान बना रहा, दिशाहीन भी होता रहा।
एक नगर के रूप में जगदीशपुर ने अपने लुप्त हो चुके परिचय को कभी विस्मृत नहीं किया। उसे यह टीस बनी ही रही कि वह इस्लामनगर नहीं है। अपने मूल से उसने अपने संबंध को कभी क्षीण नहीं होने दिया। वह कौन सी शक्ति है, जो इसे जिलाए रखती है? इतिहास के उन असहनीय अंधड़ों मंे सम्मानपूर्वक जलसमाधि लेने वाली रानी कमलापति के जीवन पर किसी ने ग्रंथ नहीं लिखे, बड़े शिलालेखों पर उन्हें नहीं उकेरा मगर वह एक समाज की सामूहिक स्मृति में अमिट बनी रहीं। एक शांत और ठहरी हुई लौ जैसी!
कौन सी शक्ति है, जो स्मृतियों को पीढ़ियों तक सुरक्षित सींचती रहती है? एक अवसर जैसे अपने ही आगमन की प्रतीक्षा करता रहा हो! शताब्दियों तक! भारत के समाज की आस्था ‘तप’ में है। यह शब्द ही बहुत कठिन है। अनुभव से कहीं अधिक कठोर शब्द। तप! इसमें निहित है तिल-तिलकर स्वयं को गलाने का साहस, सबके सुख की कामना और अंतहीन धैर्य। क्या वह शक्ति आस्था से उत्पन्न होती है, जिसने इस सभ्यता को कभी निष्प्राण नहीं होने दिया?
देखते ही देखते सब कुछ मिटा देने के भीषण आवेगों से भरकर आईं शक्तियाँ धूमकेतु की तरह प्रकट होती रहीं। समय के साथ वे राख और धुएँ के बादलों में खोकर स्वयं समाप्त हो गईं। निस्संदेह वे प्रलयंकारी थीं, जब जगदीश पर इस्लाम के नाम चिपके और कौन जाने कितने जगदीशों से उनके पूर्वजों के परिचय छीन लिए जाते रहे। किंतु एक नगर अपना पुराना परिचय नहीं भूला, यद्यपि उसे अपने दुर्ग की मिटती दीवारों में ठहरा हुआ ही रहना था।
जगदीशपुर जैसे हरेक ‘जीवित इस्लाम’ को उसके ‘मूल जगदीश’ का विस्मृत परिचय स्मरण कराने के लिए ही तीन शताब्दियों से स्थिर था। उसके जागृत नागरिक और उनके समकालीन प्रतिनिधि जहां संभव था, कहते-सुनते, लिखते-पढ़ते, स्मरण और पुनर्स्मरण कराते रहे, दशकों तक। वे अपने जगदीश के लिए कहीं तलवारें चमकाते हुए नहीं निकले। शासकीय प्रक्रियाओं में आवेदन, अनुशंसा और आदेश यहाँ से वहाँ गति करते रहे। एक प्रतीक्षा धैर्यपूर्वक होती रही।
यह एक विलंब से आया हुआ समाचार है। माघ 12, शक 1944 के दिन एक ‘असाधारण’ राजपत्र जारी हुआ और ‘जगदीशपुर’ ने ‘इस्लाम नगर’ का थोपा हुआ मुखौटा उतारकर दुर्ग के नीचे फैंक दिया! मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के निकट अपने मूल परिचय में लाैटने की यह घटना अाज ही घटी है।
(शहरयार मोहम्मद खान की ‘द बेगम्स ऑफ भोपाल’, निरंजन वर्मा की ‘बानगंगा से हलाली’, घनश्याम सक्सेना की ‘राजमहिषी ममोलाबाई’ और बलराम धाकड़ की ‘रानी कमलापति’ वे पुस्तकें हैं, जिनमें भोपाल के आहत अतीत की स्मृतियाँ अंकित हैं।)
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