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पाकिस्तान में हिंदू-सिख निशाने पर क्यों हैं?

बलबीर पुंज

गत 7 फरवरी को 190 पाकिस्तानी हिंदुओं को पाकिस्तान अधिकारियों द्वारा भारत जाने से रोकने का मामला सामने आया। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, वे सभी सिंध से थे, जो अपने बच्चे-महिलाओं सहित तीर्थयात्रा हेतु वैध वीजा के साथ भारत आने हेतु वाघा सीमा पहुंचे थे। किंतु पाकिस्तानी आव्रजन प्राधिकरण ने उन्हें यह कहकर स्वीकृति नहीं दी कि “वह इस बात से संतुष्ट नहीं पाए कि वे भारत क्यों जाना चाहते हैं।” आखिर पाकिस्तानी अधिकारी किस बात से आशंकित थे? क्या पाकिस्तान में हिंदू-सिख, अफगानिस्तान जैसी नियति से गुजर रहे है?

कुछ माह पहले अफगानिस्तान में क्या हुआ था? 25 सितंबर 2022 को 55 अफगान हिंदुओं-सिखों का अंतिम जत्था, मजहबी यातनाओं से बचने हेतु अफगानिस्तान छोड़कर भारत आ गया था। वर्तमान अफगानिस्तान सहस्राब्दी पहले हिंदू-बौद्ध दर्शन का एक संपन्न केंद्र था। कालांतर में, मुस्लिम आक्राताओं के सफल हमले, उनकी मजहबी दायित्व की पूर्ति और जबरन मतांतरण के बीच वर्ष 1970 तक यहां हिंदू-सिखों की अनुमानित संख्या लगभग सात लाख थी, जो गृहयुद्ध, मजहब केंद्रित हिंसा और तालिबानी राज में घटकर मात्र 43 रह गई है। इस त्रासदी का दंश कश्मीर भी झेल रहा है। यहां हिंदुओं का जघन्य 1989-91 वृतांत, जनस्मृति में अब भी ताजा है। तब जिहादियों ने स्थानीय मीडिया, लोगों और प्रशासनिक अधिकारियों के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन से कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हिंसक-अमानवीय उपक्रम चलाया था।

इस पृष्ठभूमि में समझना कठिन नहीं कि क्यों पाकिस्तानी हिंदू-सिख, अवसर मिलने पर हमेशा के लिए भारत लौटना चाहते थे। 7 फरवरी को पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग (एचआरसीपी) द्वारा जारी ‘ए ब्रीच ऑफ फेथ: फ्रीडम ऑफ रिलिजन ऑर बिलीफ इन 2021-22’ नामक रिपोर्ट से पाकिस्तानी अल्पसंख्यकों— विशेषकर हिंदुओं की स्थिति स्पष्ट हो गई। इसमें अकेले वर्ष 2021 में जबरन मतांतरण की 60 घटनाओं का उल्लेख है, जिसमें से 70 प्रतिशत पीड़िताएं हिंदू नाबालिग थीं। अधिकतर ऐसी घटनाएं सिंध के थारपारकर, उमरकोट और घोटकी क्षेत्रों में हुई है, जहां की आबादी में लगभग आधा हिस्सा हिंदुओं (अधिकांश दलित) का है। पाकिस्तान में यह चित्रण न ही किसी प्रतिकार का परिणाम है और न ही रातों-रात जनित।

विभाजन के समय पाकिस्तान में हिंदू-सिख वहां की कुल आबादी में 15-16 प्रतिशत थे, जो अब दो प्रतिशत है। वर्तमान समय में पाकिस्तान की कुल जनसंख्या 21-22 करोड़ है। यदि विभाजन के समय के पाकिस्तानी हिंदू-सिख अनुपात को आधार बनाए, तो वहां आज हिंदू-सिखों की आबादी कम से कम 3 करोड़ होनी चाहिए थी। किंतु 2017 में पाकिस्तानी जनगणना के अनुसार, इनकी संख्या 45 लाख है। प्रश्न है कि ढाई करोड़ पाकिस्तानी हिंदू-सिख कहां गए? इसका उत्तर उन तीन विकल्पों में निहित है, जो इन्हें बीते 75 वर्षों में पाकिस्तान के वैचारिक अधिष्ठान के अनुरूप स्थानीय कट्टरपंथियों द्वारा दिए गए है— मतांतरण, पलायन और पहले दो अवहेलना करने पर मौत।

यह ठीक है कि पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्नाह ने 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तानी संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था— “पाकिस्तान में हर व्यक्ति मंदिर और मस्जिद या फिर अन्य किसी पूजास्थल में जाने के लिए स्वतंत्र होगा”, तो अप्रैल 1950 के ‘नेहरू-लियाकत समझौते’ में भारत के साथ पाकिस्तान ने अल्पसंख्यकों को समान अधिकार देने के साथ उनकी संस्कृति और संपत्ति आदि की सुरक्षा करने पर प्रतिबद्धता जताई थी। किंतु पाकिस्तान की ओर से यह बहुलतावादी उद्घोषणाएं उसके ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ प्रदत्त विषाक्त चिंतन का प्रतिरोध है, जिसमें अविभाजित भारत की लोकतांत्रिक और बहुलतावादी व्यवस्था में हिंदुओं के साथ बराबर बैठने में घृणा और 600 वर्षों तक हिंदुओं पर राज (उत्पीड़न सहित) करने की दुर्भावना है। यही कारण है कि पाकिस्तान सहित भारतीय उपमहाद्वीप का एक बड़ा समूह आज भी स्वयं को उन इस्लामी आक्रांताओं— कासिम, गजनवी, गौरी, बाबर, औरंगजेब, अब्दाली, टीपू सुल्तान इत्यादि का उत्तराधिकारी मानता है, जिनके मानस का एकमात्र उद्देश्य— भारतीय उपमहाद्वीप से सनातन संस्कृति और उसके प्रतीक-चिन्हों को मिटाना था। पाकिस्तान स्थित मंदिरों-गुरुद्वारों पर जारी हमले और हिंदू-सिखों का जबरन मतांतरण— इसका प्रमाण है।

पाकिस्तान में “मैं सच्चा, तू झूठा” चिंतन बहुसंख्यक मुस्लिमों के लिए भी घातक बना हुआ है। एचआरसीपी की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2021 में ईशनिंदा कानूनों के अंतर्गत 585 मामले दर्ज किए गए थे, जिसमें से बड़ी संख्या मुस्लिमों की है। गत 11 फरवरी को ननकाना साहिब में मोहम्मद वारिस नामक व्यक्ति को ईशनिंदा के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार किया था, जिसे सैंकड़ों की उन्मादी भीड़ ने थाने पर हमला करके बाहर निकाला और फिर पीट-पीटकर उसकी हत्या कर दी। जब इतने से भी मन नहीं भरा, तो शव को सड़क पर घसीटा गया ताकि लोग उसपर पत्थर-अंडे फेंक सके।

यह नारकीय स्थिति केवल यही तक सीमित नहीं है। बीती 3 फरवरी को कराची में ‘तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान’ के लोगों ने पहले से प्रताड़ित अहमदिया मुस्लिमों की मस्जिद पर हमला किया था। इससे पहले 30 जनवरी को तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) ने पेशावर स्थित मस्जिद में नमाज पढ़ रहे 100 से अधिक मुस्लिमों को बम धमाका करके मार डाला था। दीन के नाम पर मुस्लिम द्वारा अपने हमबंधु की हत्या कोई हालिया घटना नहीं है। एक आंकड़े के अनुसार, पाकिस्तान में वर्ष 2010-18 में सुन्नी मुसलमान मजहबी कारणों से 4,847 शिया मुस्लिमों की हत्या कर चुके है। ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण संख्या 1987-2007 में भी थी। कई अन्य इस्लामी देश भी इसी प्रकार के दीनी संघर्ष से दो-चार है।

पाकिस्तान में हिंदू और सिख लगभग समाप्ति के कगार पर है। क्या कारण है कि एक मोहम्मद अखलाक (दिल्ली के निकट दादरी में 28 सितंबर 2015 का मामला) की निंदनीय हत्या सप्ताहों तक वैश्विक सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनता है, किंतु दशकों से प्राचीन संस्कृति के ध्वजवाहकों का हो रहे नरसंहार पर चर्चा तक नहीं होती? हम में से जो मानवाधिकारों की बात करते है, क्या वे उन कारणों पर आत्मचिंतन करेंगे कि कैसे 100 वर्ष से कम समय में सनातन संस्कृति विश्व के उस भूभाग से लुप्त हो गई, जहां हजारों वर्ष पहले उसकी ऋचाओं का सृजन हुआ था?

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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