गीता विश्वप्रतिष्ठ दर्शन ग्रंथ है। भारतीय दर्शन बुद्धि विलास नहीं है। यह कर्तव्यपालन का दर्शन है। युद्ध भी कर्तव्य है लेकिन विषादग्रस्त अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहता। श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं पण्डितजन जीवित या मृतक के लिए शोक नहीं करते।‘‘ (अध्याय 2.11) पण्डित की परिभाषा ध्यान देने योग्य है – जो शोक नहीं करते वे पण्डित हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘हम तुम और सभी लोग पहले भी थे, भविष्य में भी होंगे। शरीरधारी आत्मा शिशु तरुण और वृद्ध होती है। यह मृत्यु के बाद दूसरा शरीर पाती है। इससे धीर पुरुष मोह में नहीं फंसते।‘‘ पुनर्जन्म हिन्दू मान्यता है। गीता के कई प्रसंगों में पुनर्जन्म का उल्लेख है। सुख दुख आते जाते हैं। दुख व्यथा देता है और सुख प्रसन्नता। श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘सुख दुख क्षणिक हैं। इन्हें सहन करने का प्रयास करना चाहिए। सुख दुख से विचलित न होने वाला ही मुक्ति के योग्य है।‘‘ (वही 14-15) सुख दुख संसार के सत्य हैं। हम सांसारिक प्रपंचों में अनुकूलता चाहते हैं। अनुकूलता सुख है। मनुष्य और प्रकृति के मध्य संगति ही नहीं है। दोनों में अंतर्विरोध भी है। प्रकृति की प्रतिकूलता दुख है। श्रीकृष्ण समझाते हैं, “शरीर क्षणभंगुर है। आत्मा अविनाशी है। उस अव्यय को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता।‘‘ (वही 17)
शरीर नाशवान है। कहते हैं, ‘‘देह नाशवान है लेकिन अविनाशी अप्रमेय सदा रहता है इसलिए हे भारत युद्ध करो – तस्मात् युद्धस्व।‘‘ (वही 18) शरीर के भीतर का मूलतत्व महत्वपूर्ण है। उसे आत्मा प्राण या अविनाशी सहित कोई नाम दें। वह अमर तत्व है लेकिन शरीर भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। युद्ध में आत्मा नहीं मारी जा सकती लेकिन शरीर के अभाव में वह क्या धारण करेगी? श्रीकृष्ण का जोर आत्मा पर है, ‘‘जो उसे मारने वाला या मरा हुआ समझता है, वह अज्ञानी है, यह आत्मा नित्य और शाश्वत है।‘‘ (वही 19-20) आगे चर्चित श्लोक हैं, ‘‘जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों का त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है।‘‘ (2-22) देह और आत्मा के सम्बंध सुस्पष्ट हैं लेकिन युद्ध में स्वस्थ शरीर वाले भी मारे जाते हैं। श्रीकृष्ण आत्मा की अमरता के गुण बताते हैं, ‘‘शस्त्र इसे मार नहीं सकते। अग्नि इसे जला नहीं सकती। जल इसे भिगो नहीं सकता। वायु इसे सुखा नहीं सकती।‘‘ (2.23-24) इसलिए शोक व्यर्थ है। (वही 25) गीता के रचनाकाल में अनेक विचार थे। एक विचार मृत्यु में सब कुछ समाप्त हो जाने का था। आत्मा की अमरता का भी विचार था। श्रीकृष्ण कहते हैं कि, ‘‘अर्जुन सब कुछ समाप्त हो जाने के विचार को मानते हो तो भी युद्ध करो।‘‘ (वही 26)
हिन्दू दर्शन में आत्मा की अमरता है। जीवन और मृत्यु सुनिश्चित है। कहते हैं, ‘‘जन्म लेने वाले की मृत्यु सुनिश्चित है। मृत्यु के बाद पुनर्जन्म भी निश्चित है। इसलिए कर्तव्य पालन में तुम्हे शोक नहीं करना चाहिए।‘‘ (वही 27) सृष्टि में व्यक्त अव्यक्त और व्यक्त की गतिविधि चला करती है। बताते हैं कि पहले सभी जीव अव्यक्त रहते हैं फिर व्यक्त या प्रकट होते हैं। नष्ट होने पर वे फिर से अव्यक्त होते हैं। यह संसार व्यक्त मध्य है। इसलिए शोक व्यर्थ है।‘‘ (वही 28) ऋग्वेद में भी सृष्टि व्यक्त मध्य है। आत्मज्ञान सरल नहीं है। श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘कुछ लोग आत्मा को आश्चर्यवत मानते हैं। कुछ लोग इसे आश्चर्य की तरह बताते हैं। कुछ आश्चर्य की तरह सुनते हैं। कुछ लोग इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते। (वही 29) यही भाव कठोपनिषद (1-2-7) में ज्यों का त्यों है।
आत्मा का अमरत्व गीता दर्शन का केन्द्रीय विचार है। दूसरे अध्याय (श्लोक 18,19,20) में यही बात जोर देकर कही गई है। कहते हैं, ‘‘जो इसे मारने वाला समझता है या इसे मरा हुआ समझता है, दोनों अज्ञानी हैं। इसका न तो कभी जन्म होता है और न कभी मृत्यु। यह अजन्मा नित्य शाश्वत व पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी वह नहीं मारा जाता – न हन्यते हन्यमाने शरीरे। (वही 19,20) यही श्लोक शब्द के परिवर्तन के साथ कठोपनिषद (1-2-18) में भी है। ऋग्वेद उपनिषद और गीता तक दार्शनिक निरंतरता है। यश अपयश सांसारिक हैं। श्रेष्ठ कर्मों से यश मिलता है। निन्दित कर्मों से अपयश मिलता है। प्रशंसा सांसारिक और भौतिक आनंद है। निंदा सांसारिक दुख है और उपहास भी। श्रीकृष्ण कहते हैं कि युद्ध कर्तव्य है। स्वधर्म भी है। अर्जुन युद्ध नहीं लड़ेंगे तो योद्धा के रूप में अपना यश खो देंगे। लोग तुच्छ मानेंगे और उपहास करेंगे। कहते हैं – अर्जुन श्रेष्ठजनों के लिए अपयश मृत्यु से भी बड़ा है।‘‘ (वही 33,36) प्रश्न है कि परमतत्व ही वास्तविक श्रेय है तो युद्ध की विभीषिका और अल्पकालिक खुशी के लिए मरने मारने का अर्थ क्या है? कृष्ण कहते हैं, ‘‘मारे जाओगे तो स्वर्ग प्राप्त करोगे और विजयी हुए तो पृथ्वी का राज्य भोगोगे। इसलिए उठो, युद्ध करो – तस्मात् उतिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चया।‘‘ (वही 37) अर्जुन की समस्या थी कि उसके सामने युद्ध में सगे सम्बंधी ही युद्ध की इच्छा से खड़े हैं। प्रश्न है कि अर्जुन क्या वास्तव में अपने सगे सम्बंधियों को नहीं मारना चाहता था। इसीलिए युद्धविरत हो रहा था।
अर्जुन योद्धा हैं। महाभारत (विराटपर्व) में वह इन्हीं सगे सम्बंधियों से युद्ध कर चुका है। महाभारत के अनुसार दुर्योधन अपने सहयोगियों के साथ विराट की राजधानी पहुंचा था। पांडव विराट के यहाँ अज्ञातवास में थे। दुर्योधन विराट की गायें छीन कर अपने यहाँ ला रहा था। राजा का पुत्र गाय छुड़ाने पहुंचा। कौरव सेना देख कर वह डर गया। अर्जुन नारीवेश में उसके साथ थे। डरे राजकुमार ने कहा, ‘‘कौरव भले ही देश का सारा धन स्त्रियां पुरुष और मेरी गायें ले जाएं लेकिन मैं युद्ध नहीं करूँगा। राजकुमार ने ऐसा कहते हुए धनुष बांण छोड़ दिया। रथ से कूद गया। (महाभारत विराटपर्व 38.26-28)‘‘। जैसे गीता में अर्जुन ने धनुष बांण डाल दिए थे। वैसे ही विराट के राजकुमार ने भी। अर्जुन ने राजकुमार से कहा, ‘‘युद्ध से भागना क्षत्रियधर्म नहीं है। युद्ध में मर जाना अच्छा है।‘‘ (वही 29) विराटनगर के युद्ध में कृष्ण नहीं अर्जुन ही उपदेशक हैं। इस युद्ध में अर्जुन ने भीष्म द्रोणाचार्य सहित सभी परिजनों से युद्ध किया। भीष्म घायल हुए। सारथी उन्हें रथ में बैठाकर भाग निकला। अर्जुन अपने सगे सम्बंधियों से पहले ही युद्ध कर चुका है।
अन्याय के प्रतिकार के लिए युद्ध जरूरी है। गीता के पहले भी यही चिंतन मान्य था और गीता के बाद भी। अर्जुन पहले भी परिजनों से युद्ध कर चुका था। लेकिन कृष्ण के सामने वह उन्हीं परिजनों से युद्ध के लिए तैयार नहीं है। श्रीकृष्ण ने कहा, ‘‘कर्तव्य से विरत होना अनार्य आचरण है। आर्य आचरण नहीं। अर्जुन तुम्हारे मन में यह अनार्य विचार कैसे आया। (गीता 2.2) आर्य और अनार्य शब्द ऋग्वेद में आए हैं। ऋग्वैदिककाल में आर्य आचरण को श्रेष्ठ बताया गया है। गीता में ऋग्वेद वाला आर्य आचरण सुप्रतिष्ठित है। श्रीकृष्ण ने कहा कायर न बनो – कलैव्यं म स्म गमः। (गीता 2.3) आधुनिक समाज की यही आवश्यकता है। यह कथन हम सब पर लागू है।
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