-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
सोवियत संघ से लेनिन और स्तालिन की बकवास की दयनीय नकल कर स्वयं को बौद्धिक मान बैठे छुटभैये राजनीति को विचारधाराओं की लड़ाई माने रहते हैं। ऐसे बहुत से रोचक जीव हैं जो कम्युनिस्ट या सोशलिस्ट रहने के दौरान अथवा संघ के स्वयंसेवक रहने के दौरान वैचारिक मतवादों की दुनिया मंे जीते रहे हैं। उनके लिये वैचारिक शुद्धता का आग्रह उतना ही महत्वपूर्ण है जितना अध्यात्मिक शुद्धता का आग्रह साधना के मार्ग में महत्वपूर्ण होता है। ऐसे लोग पहले तो भाजपा को हिन्दुत्व की पार्टी मान बैठे, जबकि भाजपा ने कभी भी ऐसी कोई घोषणा नहीं की। परन्तु घोषणा न करने को उसकी बहुत बड़ी रणनीति मानते रहे और अब हिन्दुत्व से विचलित भाजपा शासन को देखकर इतने बौखलाये रहते हैं कि उनके क्षोभ का लाभ कांग्रेस उठा ले तो उठा ले या राष्ट्र की विरोधी शक्तियाँ लाभ उठा लें तो उठा लें। उनकी अपनी एक दुनिया है। परन्तु राजनीति की दुनिया में वे केवल इस या उस पक्ष के इस्तेमाल की चीजें होकर रह जाते हैं। वस्तुतः उनके आधार पर कभी कोई राजनीति नहीं होती। इसमंे सबसे रोचक बात यह है कि जब वे यह कहते हैं कि भाजपा भले ही स्वयं को हिन्दुत्व की पार्टी कभी नहीं कहती परन्तु वह है हिन्दुत्व की पार्टी और न कहना उसकी रणनीति है, तब वे स्पष्ट रूप से सार्वजनिक बयानों को रणनीति बताकर वास्तविक राजनीति बयानों से परे मान रहे होते हैं। अगर यह तर्क मान भी लिया जाये तो इसी में यह निहित है कि भाजपा के नेताओं के सार्वजनिक बयान यदि हिन्दू विरोधियों के प्रति नरम दिखें तो उसे भी रणनीति ही क्यों नहीं माना जाये।
बहरहाल मूल बात यह है कि राजनीति जिन आधारों पर चलती है, वे बहुत स्पष्ट हैं और उनका सीधा संबंध व्यावहारिक जीवन से है। यदि कोई राजनेता व्यवहार के विषय का ही ध्यान नहीं रखेगा तो वह राजनीति में खड़ा ही नहीं रह सकेगा।
सर्वविदित है कि कांग्रेस तथा अन्य पार्टियां भाजपा के विरूद्ध ऊँची-ऊँची बातें करके नीचे से नीचे काम करने की और सनातन धर्म के आधारों को पूरी तरह पाताल में ही गड़ा देने की तैयारी कर रही हैं। शासन में रहने के कारण शिक्षा और संचार माध्यमों के द्वारा कांग्रेस आदि ने सबसे ज्यादा हिन्दुओं को ही वैचारिक रूप से अक्षम, पंगु और विकलांग बनाया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सहित एक भी ऐसा सशक्त संगठन आज हिन्दुओं का नहीं है जो सहज रूप से भारत में सार्वभौम मानवीय मूल्यों को भारतीय नागरिकता का आधार बनाये जाने की मांग करता हो। दूसरी ओर इस्लाम और ईसाइयत के तमाम ऐसे आधारों के पक्ष में सैकड़ों संगठन तरह-तरह के तर्कों के साथ खुलकर सक्रिय हैं, जो आधार हिन्दू धर्म तथा अन्य गैर ईसाई और गैर मुस्लिम जीवनशैली पर मारक प्रहार करने वाले हैं। स्पष्ट रूप से विश्व में सर्वाधिक उदार, प्रशस्त और स्तुत्य वैचारिक तथा आध्यात्मिक आधार रखने वाले सनातन धर्म के पक्ष में पूरे कौशल से खड़ा होने वाला कोई भी राजनैतिक नेतृत्व भारत में उभार पाने में हिन्दू समाज का सबल वर्ग 75 वर्षों में पूरी तरह असफल रहा है। जबकि दूसरी ओर अपने पंथ के सिवाय शेष सबके प्रति दुर्भाव और विद्वेष की भांति-भांति विधियों से अभिव्यक्ति करने वाले नेता और संगठन भारत में दहाड़ते घूमते हैं और हिन्दुओं का समर्थन भी पाते रहते हैं।
इस परिप्रेक्ष्य और परिवेश में भाजपा को काम करना है। तो उसकी क्या भाषा होगी? इस तथ्य को न समझने वाले छुटभैये लोगों की टिप्पणियाँ धरातल की राजनीति के लिये कोई भी अर्थ नहीं रखतीं। दूसरी ओर, भाजपा से ही यह अपेक्षा करना कि वह भारत में सार्वभौम मानवधर्म के पक्ष में परिवेश बनाये और उसकी राजनैतिक अभिव्यक्ति भी करे, वस्तुतः उसे आध्यात्मिक सांस्कृतिक तथा सामाजिक सभी क्षेत्रों में सबकी नियंता पार्टी मान लेना या देखने की चाहत रखना है। जो हिन्दुत्व के मूल के विरूद्ध है। अगर भारत के एक से एक तेजस्वी धर्माचार्य आधुनिक राजनैतिक समूहों की समझ में आने योग्य पदावली में ऐसा कोई बौद्धिक परिवेश नहीं बना पाये कि सार्वभौम मानवधर्म की मांग भारतवर्ष में बढ़े और हिन्दू गर्व के साथ उसे राजनीति में अपनी स्वाभाविक मांग के रूप मे उपस्थित कर सकें और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित अन्य संास्कृतिक संगठन भी ऐसा कर पाने मेें अभी तक सक्षम नहीं सिद्ध हुये हैं तो राजनैतिक क्षेत्र में उसकी अभिव्यक्ति करके कोई पार्टी अपनी पराजय का मार्ग स्वयं नहीं रच सकती और अगर रचे भी तो उसे राजनैतिक रूप से दोष ही माना जायेगा। हिन्दू धर्म के विरूद्ध कांग्रेस तथा उसकी सहायक पार्टियाँ डंके की चोट पर काम कर रही हैं और उनके इस काम का घिनौनापन और अमानवीयता तथा दुष्टता दिखाने वाला कोई भी संगठन धर्मक्षेत्र या संस्कृति के क्षेत्र में प्रभावी रूप में सामने नहीं दिख रहा है। तब जिस पार्टी को सत्ता में बने रहना है (और सत्ता में बने रहना या आना विश्व की हर पार्टी का लक्ष्य होता है), वह पार्टी अभी की भाजपा जैसी ढुलमुल और गोलमोल भाषा बोलने के सिवाय और क्या करेगी? साथ ही वह खुलकर हिन्दुत्व के पक्ष मंे काम भी कैसे करेगी? वह तो हाशिये वाले काम ही करेगी।
-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
टिप्पणी – अब तक अनेक बार मैं स्पष्ट कर चुका हूँ कि मेरी बुद्धि के अनुसार गौरक्षा आन्दोलन या स्वयं रामजन्मभूमि आन्दोलन भी हिन्दुओं की विशाल शक्ति को मामूली कामों में उलझाये रखने की योजना मात्र है। जैसा विश्व के सभी प्रजातान्त्रिक नेशन स्टेट में है, बहुसंख्यकों के धर्म को राज्य का विशेष संरक्षण देना सर्वमान्य राजधर्म है और भारत में इसे अभिव्यक्त होने में कोई बाधा नहीं है। यदि सारी शक्ति उक्त आन्दोलनों के स्थान पर इस मूल बात की ओर लगाई जाती या लगायी जाये तो उक्त लक्ष्य स्वतः सिद्ध हो जाते। परन्तु आश्चर्य की बात है कि भारत के वर्तमान में प्रभावी सभी हिन्दू संगठन अभी भी कुछ ऐसे ही आन्दोलन और काम हाथ में लेते हैं, मानों भारत में विदेशी शासन हो या विधर्मी शासन हो और हाशिये का काम करके किसी तरह अपनी भावना को प्रगट किया जा रहा हो। ध्यान रहे, गौरक्षा आन्दोलन ब्रिटिश भारतीय शासन में ही उभरा था और श्रीरामजन्मभूमि आन्दोलन भी मूलतः उसी अवधि में उभरा और सत्ता हस्तांतरण के तत्काल बाद, जब ब्रिटिश प्रशासन की छाया भारत में मंडरा रही थी, उसी समय रामलला विराजमान प्रकट हुये और आन्दोलन आगे बढ़ा। अर्थात पराधीनता की अनुभूति जैसे परिवेश में। अन्यथा स्वाभाविक था कि रामलला के प्रकट होते ही लाखों हिन्दू मंदिर बनाने के लिये उमड़ पड़ते और विरोधी सभी शक्तियों को नष्ट कर देते और प्रशासन हिन्दुआंे की सेवा में ही लगता।
नमः शिवाय।
-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज