उमेश चतुर्वेदी
टीवी चैनलों के दौर इस में बौद्धिकों की नजर में हर विधानसभा चुनाव सेमीफाइनल बन गया है। विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित होते ही विशेषकर राजधानी केंद्रित बौद्धिक घोषित करने लगते हैं कि आने वाले चुनावों पर इस चुनाव विशेष के नतीजों का बड़ा असर होगा। कर्नाटक विधानसभा चुनाव को लेकर भी ऐसी ही स्थापित धारणाएं लगातार प्रसारित हो रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी के उभार के बाद ऐसी धारणाएं कई बार ध्वस्त हुई हैं। फिर भी इन्हीं धारणाओं के इर्द-गिर्द कर्नाटक के संभावित नतीजों का आकलन किया जा रहा है।
अतीत के अनुभव
कर्नाटक के अतीत के अनुभव भी इन स्थापित धारणाओं को खारिज करते रहे हैं।
याद कीजिए 1999 के विधानसभा चुनाव को। तब जनता दल के जेएच पटेल मुख्यमंत्री थे। आम धारणा थी कि येदियुरप्पा की अगुआई में दक्षिण के इस राज्य में अपने दम पर कमल खिल जाएगा। लेकिन कमल खिलने के पहले ही मुरझा गया। वजह बनी बीजेपी की अगुआई वाली केंद्र सरकार की सेहत। तब 24 दलों के गठबंधन की सरकार चला रही बीजेपी के लिए जेएच पटेल मजबूरी बन गए। केंद्र में जॉर्ज फर्नांडिस की अगुआई वाले जनता दल के धड़ों का एकीकरण हुआ। जॉर्ज एनडीए के संयोजक थे, लिहाजा उनकी बात काटना बीजेपी के लिए संभव नहीं रहा। उसे जेएच पटेल के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ना पड़ा और कांग्रेस के भाग्य से छींका टूट गया।
2018 के चुनावों में भी कुछ ऐसा ही हुआ। उत्साही टीवी चैनलों और चुनावी भविष्यवक्ताओं ने येदियुरप्पा की ताजपोशी करा दी। लेकिन 15 मई 2018 को घोषित नतीजों में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। बीजेपी ने सरकार तो बनाई, लेकिन येदियुरप्पा को बहुमत साबित किए बिना ही हटना पड़ा। यह बात और है कि बाद में कांग्रेस और जेडीएस में सेंध के जरिए वह सत्ता की सीढ़ी चढ़ गए।
पिछले विधानसभा चुनाव परिणामों में ही इस बार का भी नतीजा छुपा है। पिछली बार कांग्रेस को बीजेपी से छह लाख 38 हजार 621 वोट ज्यादा मिले थे। फिर भी उसकी सीटें घट गईं। कारण रहा कर्नाटक केंद्रित पार्टी जनता दल-एस का प्रदर्शन। वह कई सीटों पर त्रिकोणात्मक संघर्ष बनाने में सफल रही। वैसे तो कर्नाटक तक ही जनता दल सेक्युलर का वजूद सिमटा है। विशेषकर वोक्कालिगा समुदाय में इस पार्टी का असर है, जो मुख्यत: मैसूर और दक्षिणी कर्नाटक में है। फिर भी वह चाहेगी कि किसी भी दल को बहुमत ना हासिल हो ताकि वह मोलभाव की स्थिति में रहे।
मुस्लिम फैक्टर
- कर्नाटक में यूं तो मुस्लिम जनसंख्या दस फीसदी से कुछ ही ज्यादा है। लेकिन हाल के दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बने मुस्लिम नैरेटिव में कर्नाटक की भूमिका अहम रही।
- सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित हिजाब प्रकरण कर्नाटक की ही जमीन पर उभरा। हैरत की बात है कि जो राज्य कंप्यूटर क्रांति की जमीन बन चुका है, वहां हिजाब को लेकर बवाल हुआ।
- चुनाव से ठीक पहले बीजेपी सरकार ने मुसलमानों को विशेष श्रेणी के तहत मिलने वाले 4 फीसदी का आरक्षण खत्म कर उसे वोक्कालिगा और लिंगायत समुदायों में बांटने की घोषणा कर दी।
- इन दोनों मसलों पर मुस्लिम समुदाय का संगठित होना स्वाभाविक है। ऐसे में कांग्रेस और जेडीएस का मुस्लिमों को लुभाना भी सहज है। दोनों चाहेंगे कि मुस्लिम समुदाय का एकमुश्त वोट उन्हें ही मिले।
इसी बिंदु से बीजेपी की उम्मीद भी जुड़ी है। हाल के दिनों में देखा गया है कि अगर मुस्लिम संगठित होता है तो उसके बरक्स हिंदू समुदाय भी अपनी पारंपरिक बिखराववादी सोच को दरकिनार करने की कोशिश करता है। बीजेपी अपनी अंदरूनी नीति के चलते सत्ता से अलग किए जा चुके येदियुरप्पा की लिंगायत समुदाय में पकड़ को भुनाने में जुट गई है। वह मोदी की लोकप्रियता, संगठित मुस्लिम के बरक्स हिंदू समाज की गोलबंदी और येदियुरप्पा के निजी असर के सहारे मैदान मारने की तैयारी में है। यह भी सच है कि सत्ता का अंदरूनी संघर्ष उसे झेलना पड़ रहा है। कांग्रेस और जनता दल-एस से पाला बदलकर आए लोगों और पारंपरिक नेताओं की अंदरूनी खींचतान से वह जूझ रही है। हालांकि मोदी के नाम पर वह एकता और आगे बढ़ने का संदेश दे रही है।
कांग्रेस का सूरत-ए-हाल : वहीं चुनाव पूर्व की तैयारियों में कांग्रेस आगे नजर आ रही है।
- वैसे गुटबाजी कांग्रेस में भी कम नहीं है। डीके शिवकुमार और पूर्व में देवेगौड़ा के सहयोगी रहे सिद्धारमैया के गुटों के अलावा पी परमेश्वर का भी गुट है। लेकिन पार्टी इन सभी गुटों को समायोजित करते हुए इनके नेताओं की उम्मीदवारी पहले ही घोषित कर चुकी है।
- कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे कर्नाटक के ही हैं। उसे इन चुनावों में स बात का भी फायदा मिलने की उम्मीद है।
- दिलचस्प है कि इस बार कांग्रेस के रणनीतिकारों में दो ऐसे हैं, जो जनता दल के दिनों में पार्टी के युवा नेता के तौर पर प्रभावी रहे।
- कांग्रेस ने उम्मीदवारों की स्क्रीनिंग के लिए जो कमिटी बनाई, उसके प्रमुख मोहन प्रकाश कांग्रेस में आने से पहले जनता दल में थे। जब वह युवा जनता दल के अध्यक्ष थे, तब सिद्धारमैया भी जनता दल का दक्षिण में युवा चेहरा थे। जाहिर है, इस बार दो पूर्व जनता दलियों पर कांग्रेस की नाव पार लगाने का दारोमदार है।
खरगे की चुनौती
अखिल भारतीय पार्टी बनने और दक्षिण के राज्यों में अपनी ताकत जमाने के लिए बीजेपी को कर्नाटक पर कब्जा बनाए रखना होगा। इसलिए वह अपने सारे घोड़े खोल देगी। दूसरी ओर, खरगे को कांग्रेस पर भी अपना असर दिखाना है और गैरकांग्रेसी लोगों के बीच खुद को स्थापित करना है। इसलिए उनके सामने भी कर्नाटक पर कब्जा करने की चुनौती है। वैसे तो हर चुनाव आने वाले चुनावों पर असर डालते ही हैं। लेकिन यह भी सच है कि पिछली बार कर्नाटक में साफ बहुमत ना मिलने के बावजूद अगले साल हुए लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने क्लीन स्वीप किया था।