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अंतिम सत्य है मृत्यु , जीवन में कर्म प्रधान है !

अभी दो दिन पहले ही फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ने को मिली। पोस्ट लता मंगेश्कर जी, भारत की स्वर कोकिला के बारे में थी। पोस्ट पढ़कर दिल भर आया। पास बैठी मां को पोस्ट पढ़कर सुनाने लगा तो यकायक गला रूंध आया। नहीं जानता पोस्ट में लिखे शब्द स्वयं लता मंगेशकर जी के हैं भी या नहीं, लेकिन फेसबुक पर यह पोस्ट देखकर ऐसा महसूस हुआ कि शायद ये लता मंगेशकर जी के शब्द रहे हों,जब वह बीमार थीं और अस्पताल में थी। पोस्ट हमें गंभीर चिंतन कराती है। आप भी इसे एकबार जरूर पढ़िए, पोस्ट कुछ इस प्रकार से थी- ‘इस दुनिया में मौत से बढ़कर कुछ भी सच नहीं है। दुनिया की सबसे महंगी ब्रांडेड कार मेरे गैराज में खड़ी है। लेकिन मुझे व्हील चेयर पर बिठा दिया गया। मेरे पास इस दुनिया में हर तरह के डिजाइन और रंग हैं, महंगे कपड़े, महंगे जूते, महंगे सामान। लेकिन मैं उस छोटे गाउन में हूं जो अस्पताल ने मुझे दिया था ! मेरे बँक खाते में बहुत पैसा है लेकिन यह मेरे लिए किसी काम का नहीं है। मेरा घर मेरे लिए महल जैसा है लेकिन मैं अस्पताल में एक छोटे से बिस्तर पर लेटी हूं। मैं दुनिया के पांच सितारा होटलों में घूमती रही। लेकिन अब मुझे अस्पताल में एक प्रयोगशाला से दूसरी प्रयोगशाला में भेजा जा रहा है! एक समय था, जब हर दिन 7 हेयर स्टाइलिस्ट मेरे बालों की सफाई करते थे। लेकिन आज मेरे सिर पर बाल नहीं हैं। मैं दुनिया भर के विभिन्न फाइव स्टार होटलों में खाना खाती थी। पर आज तो दिन में दो गोली और रात को एक बूंद नमक ही मेरा आहार है।मैं विभिन्न विमानों पर दुनिया भर में यात्रा कर रही थी। लेकिन आज दो लोग अस्पताल के बरामदे में जाने में मेरी मदद कर रहे हैं। किसी भी सुविधा ने मेरी मदद नहीं की। किसी तरह आराम नहीं। लेकिन कुछ अपनों के चेहरे, उनकी दुआएं, दुआएं मुझे जिंदा रखती हैं। यह जीवन है। आपके पास कितनी भी दौलत क्यों न हो, आप खाली हाथ ही निकलेंगे। दयालु बनो, उनकी मदद करो जो कर सकते हो। पैसे और पावर वाले लोगों को अहमियत देने से बचें।अपने लोगों से प्यार करो, भले वो आपके लिए भला बुरा कहते/ करते हों। पर आप उनकी सराहना करो कि वे आपके लिए क्या हैं, किसी को दुख मत दो, अच्छे बनो, अच्छा करो क्योंकि वही आपके साथ जाएगा।’ वास्तव में, इस पोस्ट में लिखे शब्द स्वयं लता जी के हों या किसी भी शख्सियत के हों, इस पोस्ट ने मुझे दिल के अंतरिम कोनों तक झकझोर कर रख दिया। आज आदमी पैसे के जीवनभर भागदौड़ करता है। ये तेरा है, ये मेरा है, करता है। अपने अहम् में, अपनी मैं में जीता है, अपने स्वार्थ, अपने लालच के लिए जीता है, अपनी सुख-सुविधाओं के लिए जीता है। दूसरों की बिल्कुल भी परवाह नहीं करता। परोपकार की,दया की, करूणा की,त्याग की या यूं कहें कि मानवता की उसमें कोई भावना नहीं होती। पशु-प्रवृत्ति में आज आदमी लीन है जो आप ही आप चरता है, जहां मानवता को कोई स्थान नहीं है, ऐसे जीवन का कोई फायदा नहीं है। आज भौतिकता का जीवन आदमी जी रहा है, आदमी सिर्फ़ और सिर्फ़ पदार्थ के चक्कर में फंसा हुआ है। आदमी को रुपयों-पैसों, धन-दौलत से मतलब है, रिश्ते-नातों को, भावनाओं को आज की जिंदगी में कोई स्थान नहीं है। आदमी का ध्यान सिर्फ़ और सिर्फ़ सुविधाओं पर है, विलासितापूर्ण जीवन पर है, धन-दौलत या पदार्थ के संचय पर है। यहाँ भाव नहीं हैं, दुआएं नहीं हैं। मन में ईर्ष्या है, जलन है, द्वेष है, क्रोध है, गुस्सा है। संयम का अभाव है। यहाँ मदद के भाव नहीं है, एक दूसरे की टांग खींचने के भाव है, यहाँ फरेब है, नफरत है। प्यार नहीं है, अपनत्व की भावना नहीं है। अपनों से दूरी की भावनाएं हैं। अपनों से लगाव, मोह की भावनाएं पदार्थ के मोह के कारण नदारद है। आदमी सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी ही धुन में लीन है। आदमी को आज ‘मैं’, ‘अहम्’ भी भावना लगातार खाए जा रही है। आदमी निरा स्वार्थी, मतलबी है। क्या जीवन यही है ? नहीं ये कभी जीवन नहीं हो सकता है। कदापि नहीं। बरसों पहले कबीर दास जी ने कहा था- ‘वृक्ष कबहुँ न फल भखै, नदी न संचय नीर।परमार्थ के कारने साधुन धरा शरीर।।’ इन पंक्तियों का अर्थ यह है कि वृक्ष कभी अपने फल-फूल इत्यादि स्वयं नहीं खाते।नदियाँ कभी अपनी बहती धारा का जल अपने लिए बचा कर नहीं रखतीं – अपना जल स्वयं नहीं पीतीं। यानी कि ये (वृक्ष और नदियाँ) परमार्थ के लिए जीते हैं। वास्तव में, त्याग ही असली जीवन है। और साधू यानी कि एक सज्जन पुरूष वही है जो इन गुणों से परिभूषित हो। वास्तव में, मानव का जीवन ‘कर्म योनि’ है, भोग योनि नहीं। लेकिन आज हम सभी ‘भोगवादी’ हो गए हैं। हम सिर्फ़ और सिर्फ़ भोगना चाहते हैं, परमार्थ की भावना से शायद हमें कोई सरोकार या लेना देना नहीं है। पशु पक्षी या यूं कहें कि मानव के अतिरिक्त सभी जीव-जंतु इत्यादि भोग योनि कहलाते हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी,क्यों कि जीव-जंतु न तो अपना उद्धार अथवा उत्थान कर सकते हैं और न ही दूसरों का। मानव इस धरती का सबसे बुद्धिमान प्राणी है और मानव ही परमार्थ करके इस जीवन में पुण्य कमा सकता है, अपने जीवन को सफल बना सकता है। आज आदमी दौलत के लिए लड़ता-झगड़ता है लेकिन आदमी को क्या यह बात मालूम नहीं है कि ‘खाली हाथ आए हैं और खाली हाथ ही जायेंगे।’ गीता में आदमी को सद्कर्म करने की शिक्षा दी गई है, क्यों कि वास्तव में आदमी के सद्कर्म भी आदमी के साथ जाते हैं और कुछ भी नहीं।गीता में शरीर को रथ की उपमा देते हुए कहा गया है कि इन्द्रियां इसके घोड़े हैं, मन सारथी और आत्मा स्वामी है। हम अपने शरीर की सुख-सुविधाओं में आज रमे बसे हैं, पदार्थ के अधीन हो गए हैं। हमें वास्तव में स्वयं के बारे में यह आत्ममंथन करना चाहिए कि हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य क्या है ? क्या धन ग्रहण करना ही हमारे जीवन का उद्देश्य है ? सच तो यह है कि मनुष्य को उसके कर्मों के अनुरूप ही फल मिलता है। इसलिए परिणाम के बारे में सोचे बिना व्यक्ति को सिर्फ अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। हमें जीवन में दयालु बनना चाहिए, मददगार बनना चाहिए, मानवता की सेवा के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। किसी की भी आत्मा को कभी भी नहीं दुखाना चाहिए, क्यों कि किसी को दुख देकर, किसी को पीड़ा या कष्ट पहुंचाकर हम कभी भी सुखी व संपन्न नहीं रह सकते हैं। हमें जीवन में हमेशा अच्छा बनना चाहिए, क्यों कि अच्छाई ही आदमी के हमेशा साथ चलती है। हमें मानव जीवन पाकर अधिक से अधिक परमार्थ के कार्य, दीन दुखियों की सहायता और सेवा करनी चाहिए। रहीम जी कहते हैं -‘ज्यों जल बाढ़े नाव में – घर में बाढ़े दाम।दोनों हाथ उलीचिए यही सज्जन कौ काम।।’ आज मनुष्य की मानसिकता निजस्वार्थ(अपने स्वार्थ) और भौतिक धनभोग एवं इन्द्रिय-सुख तक ही सीमित हो चुकी है। दूसरों को दुखी, अप्रसन्न, दुविधा में देखकर खुशी मिलती है। आज के इस इंसान को आखिर ये क्या हो गया है कि वह मानवता को भूल गया है। जीवन भर हम अपने पराये की पहचान करने में ही निकाल देते हैं और हमें ये समझ में नहीं आता है कि अपना कौन है और कौन पराया है। हम अपनी अकड़,अहंकार, अहम् भावनाओं में सदैव जीते हैं और दूसरों को कभी भी कुछ भी नहीं समझते हैं। हमें यह कभी भान ही नहीं होता है कि हम आखिर कौन है और इस धरती पर हमारा उद्देश्य क्या है ? हम जीवन में अपने दोषों को दूसरों के सिर पर मंढ़ते हैं। धन,अर्थ हमें क्षणिक प्रसन्नता देता है, बावजूद इसके हम उसी में दिन-रात उलझे रहते हैं। आज आदमी लोभ,धन में फंसा हुआ है और इससे बाहर नहीं निकल पा रहा है। हम सत्य में नहीं जीते। हमारी चर्या धन से ही शुरू होती है और धन पर ही खत्म होती है। मनुष्य को छोड़कर शेष चौरासी लाख योनियों का कार्य बिना धन के चल रहा है । हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि अंतिम सत्य मृत्यु ही है। इसलिए धन का नहीं जीवन में मानवता का, सहृदयता का,सत्य का स्थान होना चाहिए। मानव जीवन केवल अपने और अपने घर-परिवार के पालन पोषण तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। यह जीना भी कोई जीना है भला। अपनी क्षमता व सामर्थ्य के अनुसार ज़रुरतमंदों की मदद करना – समाजिक व नैतिक कार्यों में योगदान देना ही मानवता कहलाता है और मानव को मानवता के लिए कटिबद्ध व कृतसंकल्पित होना चाहिए। अंत में यही कहूंगा कि-‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥’ यानी कि बिना फल की इच्छा के ही कर्म की प्रधानता सबसे बलशाली मानी गई है। इसलिए जीवन में हमेशा कर्म करें, मानवता के लिए काम करें, जीवन तभी सफल है।

(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करना अथवा ठेस पहुंचाना नहीं है।)

सुनील कुमार महला,

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