Shadow

वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था

विभिन्न कालखंडों में समाज की समस्याएं भी भिन्न भिन्न रहीं हैं किन्तु कुछ समस्याएं समय बदलने पर भी नहीं बदलीं अपितु और विकृत हो गईं हैं । जाति व्यवस्था के प्रति समाज की मानसिकता और पहचान की राजनीति ने इस समस्या को और विकराल बना दिया है । स्थिति यह है कि संसाधनों की प्राप्ति की होड़ में कोई भी वर्ग अपनी जाति को छोड़ना भी नहीं चाहता । जाति क्या है और यह वर्ण व्यवस्था से कैसे भिन्न है इसे समझना अत्यंत आवश्यक है । भारत के ऋषि मुनियों ने जहां व्यक्ति के लिए धर्म परायण होने की व्यवस्था की वहीं समाज में उसका स्थान निश्चित कर सामाजिक व्यवस्था के स्वरूप को भी निर्धारित किया । जिस प्रकार उन मनीषियों ने जीवन को चार सोपानों में बांटा है उसी प्रकार समाज में भी चार वर्ग किये, जिन्हें हम “वर्ण” की संज्ञा देते हैं । ये चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं । इस वर्ण व्यवस्था का आधार “गुण और कर्म” हैं, इसलिए जब कोई व्यक्ति अपने कर्म से पतित हो जाता है तो वह निश्चित रूप से अपने वर्ण से निकल कर अन्य वर्ण में चला जाता है ।

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते |
वेद–पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानाती ब्राह्मणः |

मनुस्मृति के अनुसार, जन्म से हर व्यक्ति शुद्र है किंतु जब उसे संस्कार प्राप्त होते हैं तब वह द्विज कहलाता है, फिर जब वह वेद पढ़ता है अर्थात शिक्षित दीक्षित होता है तब उसे विप्र कहा जाना है और जब उसे ब्रह्म का ज्ञान होता है तब वह ब्राह्मण कहलाता है । अब यह हमारे ऊपर है कि जीवन भर शुद्र ही बने रहना है या स्वयं की आध्यात्मिक उन्नति करके मुक्ति के लिए प्रयास करना है । यह बिल्कुल व्यक्तिगत चीज है, आपकी आध्यात्मिक गतिशीलता से आपके पुत्र के आध्यात्मिक होने की कोई गारन्टी नहीं है । इस प्रकार कोई भी व्यक्ति अच्छे कर्मों से उच्च वर्ण का हो सकता है । विश्वामित्र, वेद व्यास, महर्षि बाल्मीकि अपने तपोबल व गुण कर्म से ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए जबकि पुलत्स्य ऋषि का नाती दशानन रावण राक्षस कहलाया । वैसे सनातन धर्म में पुनर्जन्म की अवधारणा के कारण ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति को अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के आधार पर विभिन्न वर्णों के घरों में जन्म मिलता है ।
इस वर्ण व्यवस्था का आधार जन्म भी था । प्रायः जो जिस वर्ण के परिवार में जन्म लेता था, उसी के गुण कर्म उसको प्राप्त होते थे । पुराने समय में विश्विद्यालयों में स्किल डेवलपमेंट नहीं सिखाया जाता था, बल्कि घर पर रहकर जन्म से ही घर की कोई खास रोजगार परक स्किल सीखी जाती थी । जैसे लुहार के घर बच्चा शुरुआत से ही लोहे और उसके प्रयोग की जानकारी रखता था इसी प्रकार एक सुनार के घर बच्चा शुरुआत से ही सोने, चांदी आदि आभूषणों को बनाने की विधि, प्रयोग आदि सीख लेता था । इस व्यवसायिक ज्ञान के लिये उसे आज की तरह किसी विश्विद्यालय में फीस भी नहीं देनी होती थी । किंतु कालांतर में सुनार खुद को लुहार से ऊंचा समझने लगे और लुहार खुद को किसी और से ऊंचा ।

वर्ण व्यवस्था जो कर्म और गुण पर आधारित थी वह विकृत होकर जाति व्यवस्था के रूप में विकसित हो गयी । जैसे जैसे समाज परिवर्तित होता गया, अन्य संस्कृतियों के लोग सम्पर्क में आते गए वैसे वैसे जाति व्यवस्था के रूप में एक नई व्यवस्था हमारे सामने आई । आज देश के हिन्दू समाज में वर्ण व्यवस्था का आदर्श रूप नहीं बल्कि जाति व्यवस्था का अपभ्रंश रूप मिलता है ।

वर्ण परिवर्तन के कुछ उदाहरण –

1. सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मण त्व को प्राप्त हुए।
2. राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया(विष्णु पुराण 4।1।14)।
3. मातंग चांडाल पुत्र से ब्राह्मण बने।
4. ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना।
5. त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे।
6. विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया। विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद में उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।
7. विदुर दासी पुत्र थे तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया।
8. वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण 2।19)।

धन्यवाद 🙏
डॉ शशांक शर्मा

ReplyForward

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *