देश का राजनीतिक माहौल भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट होने की दिशा में यात्रा कर रहा है।राहुल प्रकरण ने विपक्षी दलों को असुरक्षाबोध से भर दिया और यह निष्कर्ष समझ में आने लगा कि यदि एकजुट न हुए तो तंत्र के निरंकुश व्यवहार का शिकार होना पड़ सकता है। जिसके चलते कई राजनीतिक दल, जो पहले विपक्षी एकता में कांग्रेस की भूमिका के प्रति किंतु-परंतु करते थे, वे भी अब एकता के प्रयासों को नई उम्मीद से देख रहे हैं।यह तो पहले से ही तय था कि आगामी वर्ष आम चुनाव से पहले भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकजुटता की कोशिशें तेज होंगी। लेकिन कर्नाटक चुनाव से पहले ही एकजुटता की कवायद शुरू हो जाएगी, ऐसी उम्मीद कम ही थी।
मानहानि मामले में राहुल गांधी की सांसद के रूप में सदस्यता समाप्त किये जाने और फिर उनसे सरकारी आवास खाली कराये जाने के घटनाक्रम ने विपक्षी दलों को एकजुट होने के लिये भी प्रेरित किया है । बीते बुधवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, राजद नेता व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के घर पर राहुल गांधी से हुई मुलाकात को विपक्षी एकता की दिशा में बड़ी पहल कहा जा रहा है। हालांकि, इन एकता के प्रयासों में कोई नई बात नहीं है क्योंकि बिहार सरकार में पहले ही तीनों दल शामिल हैं। इससे पूर्व फरवरी में भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पूर्णिया रैली में कांग्रेस से मोदी सरकार के खिलाफ तुरंत एकजुट होने की बात कह चुके थे। लेकिन राहुल प्रकरण ने विपक्षी दलों को असुरक्षाबोध से भर दिया।
प्रेक्षक अब एकता के प्रयासों को नई उम्मीद से देख रहे हैं। यहां तक कि कांग्रेस की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी भी समान विचार वाले दलों के साथ समन्वय की बात करने लगी हैं। कुछ लोगों का मानना है कि कर्नाटक चुनाव से पहले एकजुटता के जरिये विपक्ष महासमर की मॉक ड्रिल करने के मूड में है। वैसे उसके बाद साल के अंत तक महत्वपूर्ण राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में भी चुनाव होने हैं। कांग्रेस के लिये बेहतर प्रदर्शन की चुनौती यह भी होगी कि इनमे से 2 राज्यों में उसकी ही सरकारें हैं। ऐसे में सवाल उठेगा कि क्या कांग्रेस विपक्षी एकता के फार्मूले का प्रयोग कहाँ शुरू करेगी?
वैसे तो विपक्षी एकता की कवायद गाहे-बगाहे होती रही हैं, लेकिन इनमें तेजी बड़े चुनाव से पहले ही आती है। फिर कई राज्यों की सत्ता में काबिज विपक्षी दलों के क्षत्रप कांग्रेस को लेकर परहेज करते रहे हैं। इनमें वे दल भी शामिल हैं जिनका जन्म ही कांग्रेस विरोध और इस पार्टी से टूटकर हुआ है। मसलन उत्तर प्रदेश में सपा सुप्रीमो अखिलेश,बी.आर.एस़ सुप्रीमो चंद्रशेखर राव तथा तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी एकता के प्रयासों में कांग्रेस की बड़ी भूमिका से परहेज करती हैं। अब भी अहम सवाल यही है कि प्रधानमंत्री का चेहरा कौन बनेगा? लेकिन नीतीश कुमार अब विपक्षी एकता में कांग्रेस की बड़ी भूमिका के लिये मुहिम चला रहे हैं। हालांकि, अब तक अडाणी प्रकरण में जेपीसी जांच के मुद्दे पर अलग राय रखने वाले एनसीपी प्रमुख शरद पवार को विपक्षी एकता के प्रयासों में बाधक बताया जा रहा था, लेकिन अब पवार ने भी कह दिया है कि जेपीसी मुद्दे पर अलग राय होने के बावजूद वे विपक्षी एकता के पक्षधर हैं। वैसे भी पवार की पार्टी महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चला चुकी है। कहीं न कहीं एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता खत्म होने ने भी विपक्षी एकजुटता की कवायद को बल दिया है। जिसके चलते परदे के आगे-पीछे एकता के प्रयासों को सिरे चढ़ाने की कवायद तेज हुई है।
वैसे नीतीश अरसे बाद बिहार से निकलकर दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में सक्रिय हुए हैं और लालू यादव, मल्लिकार्जुन खड़गे आदि से मिले हैं। जिसका निष्कर्ष यह पढ़ा जा सकता है कि विपक्षी एकता की योजना सिरे नजर आ रही है।