भारत के शिक्षा संस्थानों में भारतीय परंपरागत ज्ञान व विद्या को नहीं पढ़ाया व सिखाया जाता वरन् हमारा शिक्षा तंत्र , पश्चिमी शिक्षा तंत्र की कॉपी मात्र है।चूँकि भारत का शासन तंत्र भी पश्चिम की कॉपी है तो शिक्षा तंत्र भी वैसा ही होना स्वाभाविक है। मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति में भारत के शिक्षा तंत्र व शासन व्यवस्था का भारतीयकरण करने का उद्देश समाहित है किंतु क्या ऐसा हो पाना संभव है? वैसे भी लागू होने की प्रक्रिया में ही इस नीति में इतने अधिक संशोधन हो चुके हैं व कई प्रस्तावों को लागू करने में टालमटोल हो रही है कि मूल उद्देश्यों को पाना असंभव सा हो गया है।
देश का वर्तमान शिक्षा तंत्र कितना प्रभावी अथवा खोखला है इसका गहन विश्लेषण आवश्यक है ताकि सच से सामना हो सके।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक समिति का गठन किया है जो देश के प्रत्येक वकील की डिग्री की वैधता की जाँच करेगा। देश में ला कॉलेज़ो की बाढ़ के बीच सन् 2015 में ही यह तथ्य सामने आया था कि देश में एक तिहाई वकीलों की डिग्री फर्जी है अर्थात् बिना कॉलेज गए संस्थान को पैसे देकर ख़रीदी गई है व इन वकीलों का अदालती ज्ञान शून्य है। आठ साल की देरी के बाद अब सुप्रीम कोर्ट इसकी जाँच करा रहा है , यह जाँच कब पूरी होगी, होगी या नहीं होगी भगवान ही जानता है।
आप अंदाज़ा लगा सकते हाई कि अगर विधि के क्षेत्र में ही एक तिहाई फर्जी डिग्री धारक हाई तो अन्य विधाओं में भी इतने या इससे कहीं अधिक डिग्री धारक पैसे देकर डिग्री लिए हुए होंगे। हम कह सकते हैं कि औसतन भारत में हर दो में से एक डिग्री धारी के पास जो डिग्री है वो फर्जी है, बिना पढ़े व पैसे देकर ली गई है व देश के अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थान चाहे सरकारी हों या निजी डिग्री बेचने के खेल में शामिल हैं। अगर बात करे उनकी जिनकी डिग्री असली है तो उनमें से 80 से 90% औसत या उससे कम अंक लेकर पास हुए हैं क्योंकि संस्थान के पास न तो अच्छे अध्यापक थे और न ही इंफ्रास्ट्रक्चर था या यह सब होने के बाद भी न अध्यापक पढ़ाने को इच्छुक और न ही विद्यार्थी पढ़ने को ।
भारत में केंद्रीय व विश्वविद्यालयों, डीम्ड विश्वविद्यालयों, आईआईटी – एनआईटी, आईआईएम व कुछ अन्य प्रतिष्ठित शोध संस्थानों में कुछ लाख विद्यार्थी ही पढ़ते हैं। देश में राज्य सरकारें भी अनेक विश्व विद्यालय व उच्च शिक्षा संस्थान चला रही हैं किंतु इनमें मात्र 10-15% ही केंद्रीय संस्थानों के स्तर के होंगे, शेष शिक्षा के नाम पर बस डिग्री ही बाँटेते हैं। यह हालात निजी विश्वविद्यालयो व उच्च शिक्षा संस्थानों के हैं। बीए, बीएससी, बीकॉम,फ़ार्मा, होटल मैनेजमेंट, विधि, बीएड, कृषि, इंजीनियरिंग,प्रबंध, खेल, पत्रकारिता, चिकित्सा, नर्सिंग, पेरामेडिकल, खेल, डिज़ाइन, फ़ैशन या किसी भी अन्य प्रकार के उच्च शिक्षा संस्थान हों सब गुणवत्ता की कमी से जूझ रहे हैं। इस समय भारत में उच्च शिक्षा के 1113 विश्वविद्यालयों से संबद्ध पैंतालीस हज़ार से अधिक संस्थानो में विभिन्न पाठ्यक्रमों में लगभग 4.4 करोड़ विद्यार्थी पढ़ रहे हैं और हम आसानी से कह सकते हैं कि इनमें से 90% से भी अधिक को शिक्षा के नाम पर धोखा दिया जा रहा है या वे स्वयं डिग्री ख़रीदने के लिए संस्थान में भर्ती लिए हुए हैं। इनमें रोज़गार प्रदान करने की दर औसतन दस प्रतिशत भी नहीं है। अधिकांश विद्यार्थीयो के लिए डिग्री लेना व रोज़गार प्राप्त करना दो अलग अलग टास्क हैं। हम आसानी से कह सकते हैं कि भारत में भले ही उच्च शिक्षा का टर्नओवर 20 से 30लाख करोड़ रुपयों का हो किंतु उसका देश को 10-20% से ज़्यादा लाभ नहीं हो पा रहा और बड़ी मात्रा में सरकार और जनता के धन , संसाधनों व ऊर्जा की बर्बादी हो रही है। मैं पिछले 12-13 वर्षों से शिक्षा संस्थानों की रैंकिंग से जुड़ा हूँ और अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि भारत में शिक्षा तंत्र एक बहुत बड़ा धोखा है और नई शिक्षा नीति को लागू करने में देरी के कारण देश का शिक्षा तंत्र ढहने के कगार पर है। हाँ देश व राज्यो के शिक्षा मंत्री कुछ गिने चुने अच्छे संस्थानों का नाम लेकर अपनी पीठ अवश्य थपथपाते रहते हैं। मगर कुछ सच्चाई जान लें तो अच्छा है –
1) कहने को देश में हर साल एक लाख डॉक्टरेट की डिग्री दी जाती होंगी मगर गुणवत्ता और शोध के नाम पर सब शून्य।देश का दुनिया के कुल पेटेंट रजिस्ट्रेशन में हिस्सा .1-.2% से अधिक नहीं है व हमारे देश की कमाई का बड़ा हिस्सा रॉयल्टी व कई गुना ऊँचे दाम वाली आयातित वस्तुओं के आयात में खर्च हो जाता है। हम डालर में अंतरराष्ट्रीय भुगतान करने के कारण भी बड़े घाटे में हैं और भारत से लंबे समय से प्रतिदिन बड़ी मात्रा में धन व संपदा की निकासी हो रही है।
2) WHO की एक रिपोर्ट में भारत के 57% डॉक्टर को अक्षम बताया गया था।
3) निजी डिग्री कॉलेज प्रवेश से लेकर डिग्री मिलने तक का ठेका लेते हैं। विद्यार्थी को कॉलेज आने की आवश्यकता नहीं।जितना अधिक पैसा उतने अधिक नंबर के साथ डिग्री।
4) देश में ऐसे सैकड़ो संस्थान पकड़े गए हैं जिन्होंने हज़ारो- लाखों डिग्री पैसे लेकर बेच दी मगर इस खेल को रोकने के लिए कोई प्रभावी प्रक्रिया नहीं बनायी जा सकी।
5) सरकार की शिक्षा संस्थानो की गुणवत्ता के लिए की जाने वाली रैंकिंग/ रेटिंग प्रणाली NAAC और NIRF में भी व्यापक गड़बड़ी और पक्षपात चलता है व इनकी विश्वसनियता संदिग्ध है। इससे भी अधिक संदिग्ध शिक्षा संस्थानो को मान्यता देने की प्रणाली है। इस प्रक्रिया में हर स्तर पर व्यापक भ्रष्टाचार है। अधिकारी व संस्थान हर नियम व क़ायदे क़ानून को तोड़ने पर आमादा हैं। इसी कारण देश के इंज़ीनियरिंग व प्रबंध संस्थानों की गुणवत्ता बहुत ख़राब है और एक तिहाई विद्यार्थी भी रोज़गार नहीं प्राप्त कर पाते।
देश में उच्च शिक्षा से चार गुने विद्यार्थी माध्यमिक शिक्षा , पोलीटेक्निक, आइटीआई, स्किल डेवलपमेंट के कोर्सेस में नामांकित हैं यानि 16- 17 करोड़। इससे दुगने यानि 30-35 करोड़ प्राथमिक शिक्षा लेते हैं।सरकारी प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों की हालत किसी से छिपी नहीं और देश के तीन चौथाई बच्चे इनमें ही शिक्षा लेते हैं। देश के उद्योग, वाणिज्य, सेवा व कृषि क्षेत्र में लगने वाले 90% मानव संसाधनों की पूर्ति इसी माध्यमिक शिक्षा , पोलीटेक्निक, आइटीआई, स्किल डेवलपमेंट के कोर्सेस में नामांकित विद्यार्थियों से ही होती है। विभिन्न सरकारी रिपोर्ट बता रही हैं कि –
1) हालत यह है कि तीसरी से पांचवीं के विद्यार्थियों को अक्षर व अंक ज्ञान तक नहीं है। ऐसे बच्चे कैसे पास होते हैं व कैसे अगली कक्षा में पहुँचते हैं, समझा जा सकता है।
2) सरकारी रिपोर्ट कह रही हैं कि देश में आईटीआई की उत्पादकता मात्र 1% है। यानि इनको चलाये रखने का कोई औचित्य नहीं। पॉलीटेक्निक की उत्पादकता 5-10% ही है।
3) सरकार के स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रम एक कलंक गाथा अधिक हैं। स्वयं विभाग की रिपोर्ट कह रही है कि तमाम कोशिशों के बाद भी 10-25% ही नामांकित विद्यार्थी रोज़गार पा पाते हैं। उनमे से भी बहुत सारो के नियुक्ति पत्र फर्जी होते हैं।
4) देश में हज़ारो ग़ैर मान्यता प्राप्त , स्कूल, मदरसे, तकनीकी , स्किल, माध्यमिक , उच्च शिक्षा संस्थान , देसी – विदेशी विश्वविद्यालय हैं। ये सब फर्जी व जुगाड़ू डिग्री बाँटते हैं।
5) सरकारी आँकड़ो के अनुसार हर वर्ष देश में ठगी लूट व निराशा का शिकार होकर 15-20 हज़ार विद्यार्थी आत्महत्या करता है । वास्तविक संख्या कई गुना ज़्यादा हो सकती है।
6) देश में अधिकांश भर्तियो में व्यापक गड़बड़ी होना आम बात है ऐसे में सरकारी हो या निजी सभी क्षेत्रों में सिफ़ारिश प्राप्त अयोग्य लोगों की भरमार है और अयोग्य लोग हाशिए पर हैं।
कड़वा सत्य यह है कि भारत आज भी बड़ी मात्रा में शोध, टेक्नोलॉजी, उत्पाद आदि आयात करता है और इसकी भारी क़ीमत अदा करता है। हम “कॉपीकेटिंग” सभ्यता हैं। हमारे देश में सब व्यवहार व जुगाड़ से ही चलता है। आयातित ज्ञान , आयातित समान, आयातित भाषा व आयातित संस्कृति को गर्व से अपनाने वाली वाली सभ्यता जो “विश्व गुरु “ बनने के झूठे स्वप्न में जी रही है। अपने स्वर्णिम अतीत , सनातन संस्कृति और ज्ञान की बहुत बात करती है किंतु उसका “आर्थिक , व्यापारिक व व्यावहारिक मॉडल” उनके पास नहीं है। भारत प्रवासी भारतीयो व उनसे आने वाली विदेशी मुद्रा पर अधिक भरोसा करती है। किंतु उससे कई गुना अधिक बाहर जा रहा है , इसकी परवाह नहीं। निर्यात के मुक़ाबले आयात बिल बढ़ता ही जा रहा है। शोध के लिए बजट बहुत कम है। देश में सट्टा, क्रिप्टो, जुए, ऑनलाइन लॉटरी, शेयर आदि का बढ़ता चलन बता रहा है कि नई पीढ़ी में बिना मेहनत किए भाग्य भरोसे पैसा कमाने की मानसिकता घर कर गई है।
भारत के कुल वर्क फ़ोर्स का 93% कॉंट्रैक्ट बेसिस पर है व उनमे से 90% का वेतन 5 से 30 हज़ार रुपयों के बीच है। ख़राब शिक्षा व चयन में अनियमितता के कारण यहाँ कोई भी काम निर्धारित समय से होना मुश्किल होता है।इस कारण हर प्रोजेक्ट का समय व लागत बढ़ जाती है। अनेक कॉरपोरेट समूह पूर्व सैन्य अधिकारियों को प्रशासनिक पदो पर रखते हैं ताकि कंपनी व समूह में अनुशासन बनाया जा सके। आउटसोर्सिंग भारत में एक बीमारी बन चुकी है। एक कॉंट्रेक्ट अधिकांशतः तीन चार या पाँच बार आउटसोर्स हो जाता है व हर वेंडर अपना अपना कट लेता जाता है। इस कारण कार्य निष्पादन करने वाले वेंडर से जुड़े कर्मचारियों के वेतन व भत्ते बहुत कम हो जाते हैं जिस का असर कार्य , सेवा व उत्पाद की गुणवत्ता पर पड़ता है।
हमारे देश में चार प्रकार के लोग हैं –
1) वो “इंडिया वाले” जिनको पश्चिमी संस्कृति व ज्ञान पर भरोसा है व आर्थिक व बौद्धिक रूप से सक्षम व समृद्ध हैं। ये लोग व इनके बच्चो का देश के अच्छे संस्थानो व नोकरियों में वर्चस्व है। जिनकी देश में दाल नहीं गलती वे या तो विदेश भाग जाते हैं या अपने बच्चो को पढ़ने व नौकरी करने भेज देते है।देश की प्रतिभा, पैसा, संसाधन व ज्ञान सब कुछ विदेश ले जाते हैं।
2) वो “भारत वाले” जिनके पास सीमित संसाधन हैं व जिनको भारत की सभ्यता और संस्कृति व प्राचीन ज्ञान व उपलब्धियों पर भरोसा है। ऐसे लोग कुछ साल टक्कर मारते हैं, जूझते हैं और अंत में निराशा के भवर में फँस हाशिये पर आ जाते हैं या फिर समय के साथ मिश्रित मानसिकता अपना लेते हैं और आदर्शों से किनारा कर लेते हैं।
3) वो “प्रैक्टिकल, हिन्दलिश, मीडियोकर” जो हर चीज जुगाड़ व पैसों से हासिल करना जानते हैं। डिग्री से लेकर नौकरी तक ख़रीदना इनको आता है। किसी भी प्रकार के वैध अवैध व्यापार से इनको कोई परेशानी नहीं। उद्योग धंधे से ये लोग दूर ही रहते हैं। हाँ असेम्बलिंग का काम कर सकते हैं। ये व्यावहारिक ज्ञान पर भरोसा रखते हैं । दलाली व टोपी पहनाने की कला के माहिर होते हैं।मिलावटी, नक़ली , घटिया सामान से लेकर , नक़ली करेंसी, ड्रग्स, पोर्न , अवैध हथियार आदि तक के व्यापार कर सकते हैं। कर चोरी व अराजक आचरण व जीवन शैली इनकी आदतों में शामिल है। भारत में आम ज़िंदगी में इन्ही लोगों का बोलबाला है।
4) वो जो भारत का निम्न व निम्न मध्यम वर्ग है । यह मज़दूरी, सरकारी योजनाओं और धार्मिक सामाजिक संस्थाओं व भाग्य के भरोसे अपनी ज़िंदगी गुज़ार देता है व राजनीतिक दलों के वोट बैंक के रूप में जाना जाता है।
यही है बिना “भारत तत्व वाला भारत” , तथाकथित आत्मनिर्भर वाला भारत, मेक इन इंडिया वाला भारत,स्वदेशी वाला भारत, विश्व गुरु भारत। सच मगर कड़वा “भ्रमित भारत”।
यक्ष प्रश्न , क्या नई शिक्षा नीति के माध्यम से इसमें आमूलचूल परिवर्तन लाए जा सकते हैं?
– अनुज अग्रवाल, संपादक, डायलॉग इंडिया