कभी मध्यप्रदेश का हिस्सा रहे छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में पिछले दिनो एक बार फिर हुए नक्सली हमले के निष्कर्ष साफ हैं कि सरकारों के दावों के बावजूद नक्सलियों की ताकत पूरी तरह कम नहीं हुई है, इस लिहाज़ से मध्यप्रदेश में मुस्तैदी की ज़रूरत है । बार-बार बड़ी संख्या में जवानों को खोने के बावजूद अतीत की घटनाओं से कोई सबक नहीं सीखे गए हैं।
दुर्भगाय, संचार क्रांति के दौर में मुकाबले के लिये उपलब्ध संसाधनों व हथियारों के बावजूद सरकार यदि उनके हमलों का आकलन नहीं कर पा रही हैं तो यह राज्यों के खुफिया तंत्र की विफलता का ही परिचायक है। सफल ऑपरेशन करके लौट रहे रिजर्व बल के जवानों का बारूदी सुरंग की चपेट में आना बताता है कि यह नक्सलियों की हताशा से उपजा हमला तो था ही, आगे की चुनौती और बड़ी है ।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि हाल के दिनों में देश के कई इलाकों में सुरक्षाबलों के साझे अभियानों में नक्सलियों को बड़ी क्षति हुई है। कई बड़े नक्सली नेताओं के खात्मे और गिरफ्तारी के बाद उनकी गतिविधियों का इलाका सिमटा जरूर है, लेकिन खत्म नहीं हो पाया है। यह बात स्वीकार कर लेना चाहिए कि पुलिस प्रशासन के सामने यह एक बड़ी चुनौती है, जिसका मुकाबला करने के लिये बहुआयामी रणनीति बनाने की जरूरत है। पुलिस व कानून अपना काम करेंगे, लेकिन कोशिश हो कि नक्सलियों का जनाधार कम किया जाये।
विचार का विषय है कि विकास के मॉडल की जिन विसंगतियों के चलते जिन इलाकों में विकास की रोशनी नहीं पहुंच पायी है, वहां सामाजिक न्याय के अनुकूल वातावरण कैसे बने? लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने के लिये अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत है। जिससे स्थानीय लोग नक्सलियों के प्रवाह व दबाव से मुक्त हो सकें। लोगों को समझाना होगा कि लोकतंत्र में गनतंत्र की कोई जगह नहीं है। ऐसा माहौल बनाया जाये कि हमारे समाज के भटके लोगों से संवाद की कोशिश को तार्किकता दी जा सके। अन्यथा यह हिंसा व प्रतिहिंसा का सिलसिला अनवरत जारी रहेगा।
जाहिर है समस्या के समाधान के लिये राजनेताओं में भी दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है, तभी दशकों पुराने इस नासूर का रिसना बंद हो सकेगा।
दंतेवाड़ा में हुए इस हालिया हमले से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर मंथन किये जाने की जरूरत है। यह भी कि नक्सल प्रभावित इलाकों में किसी ऑपरेशन को चलाये जाने से पहले अभियान के तमाम सुरक्षा मानकों का पूरी तरह से पालन किया जाये। जिससे अपने जवानों की क्षति को रोका जा सके। साथ ही खुफिया तंत्र को मुस्तैद बनाने और स्थानीय पुलिस बल के साथ बेहतर तालमेल करने की भी जरूरत है। तभी जवान ऐसे अभियानों में ऊंचे मनोबल के साथ लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे, और यह सब केंद्र व राज्य सरकारों के साथ बेहतर तालमेल से ही संभव होगा। यदि राजनीतिक कारणों से राज्यों की सरकारें अपेक्षित सहयोग नहीं करती हैं तो उनके लिये भी कानून-व्यवस्था का संकट देर-सवेर पैदा होगा, यह पत्थर पा लिखी इबारत है । निस्संदेह, ये नक्सली न केवल राज्यों की कानून-व्यवस्था को ताक पर रख रहे हैं बल्कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये भी खतरा बन रहे हैं। रिजर्व फोर्स के दस जवानों की मौत इस बात की जरूरत भी बताती है कि उन्हें केंद्रीय सुरक्षा बलों की रणनीति व आधुनिक हथियार तथा उपकरणों के जरिये सुरक्षा कवच प्रदान किया जाना चाहिए। यह जरूरत तब अपरिहार्य हो जाती है जब नक्सली आधुनिक हथियारों व तकनीक का इस्तेमाल कर सुरक्षा बलों के जीवन पर भारी पड़ रहे हैं। इसके साथ ही स्थानीय लोगों को विश्वास में लेकर नक्सलियों की निगरानी की भी कोशिश होनी चाहिए।
निस्संदेह, भौगोलिक रूप से जटिल इलाके नक्सलियों की गतिविधियों के लिये स्वर्ग बने हुए हैं,इसके मुक़ाबले ड्रोन व अत्याधुनिक सूचना तंत्र के जरिये सटीक निगरानी के लिये तंत्र बनाये जाने की भी सख्त जरूरत है। यूं तो हर हादसा कुछ जख्म देने के साथ कुछ सबक भी दे जाता है। ऐसे में सुरक्षा व निगरानी में हुई चूक की जवाबदेही भी तय की जानी चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं को टाला जा सके।