बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि अपना काम करके जा चुकी है और किसान व फल- सब्ज़ी उत्पादक बस चुपचाप बर्बादी की दास्ताँ देख रहा है। हर तीन महीने में बदलने वाले मौसम ने पिछले तीन वर्षों में इतनी करवटे ली हैं जिसका कोई पैटर्न ही नहीं नज़र आ रहा। मौसम के बदलाव अब हर सप्ताह हो जाते हैं। लोग जाड़ा, गर्मी और बरसात सब एक साथ झेल रहे हैं। जीवाश्म ईंधनों के बढ़ते अतिशय प्रयोग व पेट्रोलियम व रासायनिक पदार्थों से बने उत्पाद (प्लास्टिक, कपड़े, रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि) से निकली मीथेन व कार्बन डाईऑक्साइड आदि गैसों ने धरती के हजारो साल से बने बनाए संतुलन को बिगड़ दिया है और पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री बढ़ने के क़रीब है। तीस हज़ार बर्षों से मानव एक स्थिर वायुमंडल में जी रहा था जिसको पिछले तीन दशकों के विकास ने पूरी तरह बिखेर दिया है। शायद यह आख़िरी दशक हो जिसको हम जैसे तैसे ठीक से जी भी पाएँ। हालाँकि इसकी शुरुआत दो सदी पहले ही प्रारंभ हो गई थी। सरकारे और नीतिकार जो बाज़ार और जीडीपी को ही हर समस्या का समाधान मान बैठे है , वे भी इस “ न्यू नार्मल “ स्थितियों का सही आँकलन नहीं कर पा रहे। हाँ यथाशीघ्र नीतियों,योजनाओं व जीवन शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन होने चाहिए इस पर सब सहमत हैं किंतु एक दूसरे पर दोषारोपणकर उसी पुराने ढर्रे पर चल निकलते हैं क्योकि जिन बड़े बदलावों को करना होगा उसके लिए जनमानस को तैयार करने व नया तंत्र बनाने की इच्छाशक्ति किसी के भी पास नहीं।
चुनौती, कार्य योजना व वास्तविक क्रियान्वयन –
1) यूएन (यूनाइटेड नेशन) व वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम का लक्ष्य जीवाश्म ईंधनों (पेट्रोल, डीज़ल, गैस, कोयला) व मांसाहार का प्रयोग पूर्णता समाप्त करना। सभी देशों का संकल्प सन् 2070 तक जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य। व्यवहार में दुनिया में जीवाश्म ईंधनों व इनसे बने पदार्थों का उपयोग हर वर्ष 5-10% तक बढ़ रहा है।
2) यूएन का लक्ष्य ग्रीन एनर्जी व इलेक्ट्रिक व्हीकल को बढ़ावा। दुनिया में अभी 10% ही ग्रीन एनर्जी का प्रयोग। जितनी मात्रा में ग्रीन एनर्जी व इलेक्ट्रिक व्हीकल का प्रयोग बढ़ रहा है उसी अनुपात में पेट्रोलियम पदार्थों व उन पर आधारित वाहनो की बिक्री भी बढ़ रही है।
3)यूएन (यूनाइटेड नेशन)का लक्ष्य पूरी दुनिया में खेती को कारपोरेट सेक्टर के हवाले करना क्योंकि छोटे किसान ग़लत तरीक़े से खेती करते हैं जो
ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाता है। जहां जहां कृषि सुधार लागू किए गए वहाँ वहाँ व्यापक विरोध। वास्तविक धरातल पर यह बढ़ा चुनावी मुद्दा व खेती से हटे लोगों को वैकल्पिक रोजगार देने में मुश्किलें।
4) यूएन का लक्ष्य मांसाहार व दुग्ध पदार्थों पर नियंत्रण व सन् 2030 तक इसमें 30% तक कमी लाना।मांसाहार ,दूध व उनसे बने उत्पादों के दुष्प्रभाव के विरुद्ध जनअभियान चलाना व लोगों को वीजन बनाना। लगातार बदलते मौसम के कारण अनाज उत्पादन में कमी होती जा रही है।विपरीत परिस्थितियों में भी अधिक उत्पादन के लिए जो नए बीज बनाए जा रहे हैं वे अपेक्षा के अनुरूप सफल नहीं हो रहे हैं। संकर फ़सलों से उत्पाद की गुणवत्ता भी गिरती जा रही है।
5) यूएन का लक्ष्य ऐसी तकनीक, जीवन शैली व उपायो को अपनाना जिनसे कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण हो सके। वर्ड इकोनॉमिक फ़ोरम द्वारा प्रेरित वर्क फ्रॉम होम, एआई व डिज़ीटलीकरण पर आधारित चौथी औद्योगिक क्रांति को बढ़ाना। नई तकनीक के महँगा होने, कुशल विशेषज्ञों की कमी व विस्तार से रोज़गार पर संकट की समस्या।
जीवाश्म ईंधनों के प्रयोग से हो रही ग्लोबल वार्मिंग के कारण जिन जलवायु परिवर्तनों का हम सामना कर रहे हैं उन्होंने मानव जीवन को बिखेरना शुरू कर दिया है –
1) अतिवृष्टि व अनावृष्टि अब आम बात है। हम निरंतर तूफ़ान, बाढ़, सूखे, चक्रवात व भूकंप आदि का सामना कर रहे हैं व इन सभी चुनौतियों की निरंतरता बढ़ रही है। इस कारण व्यापक जन धन, संसाधन व कृषि उपज के नष्ट हो जाने से करोड़ों लोगों के जीवन यापन व विस्थापन का संकट आ खड़ा हुआ है। हर रोज़ यह चुनौती बढ़ती ही जानी है।जैविक कृषि से खाद व कीटनाशक कंपनियाँ बर्बाद हो जायेंगी।
2)बढ़ता तापमान व नई जीवन शैली विविध बीमारियों, मानसिक रोगों व महामारियों की वजह बनता जा रहा है। जिससे निकट भविष्य में करोड़ों लोगों को व्यापक परेशानी, आर्थिक तंगी से लेकर जान से हाथ धो बैठने तक की नौबत आ सकती है। कोई भी देश व सरकार आवश्यकता के अनुरूप स्वास्थ्य ढाँचा नहीं खड़ा कर पाएगा।गर्म देशों में बढ़ती लू व गर्मी के बीच हर घर में एसी लगाना व उसके अनुरूप बिजली उत्पादन बड़ी चुनौती होगी।
3) पिघलते ग्लेशियरो से समुद्र व नादियो का बढ़ता जलस्तर व बाढ़, सूखा, चक्रवात आदि बड़ी संख्या में लोगों के रोज़गार व ज़मीन छिनने का कारण बनते जा रहे हैं। निकट भविष्य में इसमें और तीव्रता आएगी। कैसे सरकारे इन करोड़ों लोगों को नए स्थानों पर बसा पाएँगी व किस प्रकार इनकी गुजर बसर हो पाएगी यह यक्ष प्रश्न है क्योंकि अगले एक दशक में इन लोगों की संख्या सौ करोड़ तक हो सकती है।
4) अगले एक दशक में हमारी जीवन शैली में व्यापक बदलाव होने जा रहे हैं। तेल व गैस उत्पादक देशों की बर्बादी तय है। एआई, डिज़ाटिलीकरण, ग्रीन एनर्जी, इलेक्ट्रिक व्हीकल, कारपोरेट खेती, वर्क फ्रॉम होम, ऑनलाइन शिक्षा आदि जीवन की वास्तविकता व अनिवार्यता बन जाएँगे। ऐसे में करोड़ों लोगों की नौकरी व व्यापार आदि छिन जाएँगे या उनको नए के अनुरूप ढलना होगा। ये बदलाव व्यापक राजनीतिक,आर्थिक व सामाजिक बदलावों वाले होंगे। अनेक देशों व बहुराष्ट्रीय कंपनियों व बैंकों तक की अर्थव्यवस्था छिन्न भिन्न हो जाएगी तो छोटे मोटे उद्योगपति,व्यापारी, किसान व नौकरीपेशा की तो बिसात ही क्या।
5) पुरानी शिक्षा प्रणाली अप्रासंगिक होती जा रही है व नई के प्रति जिस गति से काम होना चाहिए वो हो नहीं रहा। नये पाठयक्रम, नई लैब, अपग्रेडेड अध्यापक व ढाँचा खड़ा करना बड़ी चुनौती है। स्किलिंग, रिस्किलिंग व अपस्किलिंग बड़ी चुनौती होने जा रही है। कुशल कामगारों के अभाव में औद्योगिक उत्पादन पर असर पड़ना तय है।
6) बदलाव व बिखराव से हमारी सप्लाई चैन पर लगातार असर पड़ रहा है। जिसके कारण वस्तुओं के दाम बढ़ते जा रहे हैं। होने वाले बदलाव इसको बढ़ा सकते हैं।
7) बढ़ती बेरोज़गारी व महंगाई दुनिया व देशों में व्यापक अराजकता व गृहयुद्ध को जन्म देगी जिसको पार पाना बढ़ी चुनौती होगी।
गिरता कृषि उत्पादन खाद्य संकट को बढ़ावा दे रहा है जो आगे विकराल रूप लेने वाला है। जल संकट भी एक बड़ी चुनौती बन ही चुका है।
9) पर्यावरण असंतुलन से कृषकों के साथ ही उद्योग व्यापार व बैंक आदि से जुड़े लोग भी उतने ही परेशान हैं। देश व दुनिया का व्यापार ऊर्जा, खनिज, वाहन, इंफ़्रा, निर्माण और कृषि क्षेत्रों पर प्रमुखता से टिका है और यही क्षेत्र व्यापक बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं। बैंकिंग सेक्टर इन्ही क्षेत्रों पर टिका है , अगर इन क्षेत्रों में ऐसे ही उतार चढ़ाव बने रहे तो वो बुरी तरह डूब सकता है।इन कारणों से ग्राहकों के व्यवहार व मिज़ाज में अप्रत्याशित बदलाव आ रहें हैं और हर एक असुरक्षा के दौर से गुजर रहा है।
10) दुनिया के बड़े देश आपसी टकराव के दौर में हैं। शक्ति संतुलन बदल और बिगड़ रहे हैं। रुस – यूक्रेन युद्ध के बीच मध्य पूर्व एशिया व दक्षिण चीन सागर युद्ध के नए मैदान बन चुके हैं, जो तीसरे विश्वयुद्ध का संकेत दे रहे हैं।धार्मिक विवादों के साथ ही यूरोप व अमेरिका भीषण महंगाई,मंदी व बेरोज़गारी से दो चार हैं। सौ से अधिक देशों की अर्थव्यवस्था डूबने के कगार पर है। यह सभी घटनाक्रम भीषण चुनौतियों की आहट दे रहे हैं।
हम सभी इन चुनौतियों को समझ भी रहे हैं व इनसे जूझ भी रहे हैं और मौन रहकर पुरानी सोच व जीवन शैली के अनुरूप जी भी रहे हैं। अधिकांश माँ चुके हैं कि इस समस्या का कोई समाधान नहीं या फिर प्रकृति अपने आप निकाल ही लेगी या फिर जो होगा वो सबके साथ होगा तो हम ही क्यों चिंता करे।
अनुज अग्रवाल
संपादक, डायलॉग इंडिया