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विपक्षी एकता एक स्वप्न

राजनीति के अन्तर्गत लोकतंत्र में दो प्रमुख स्तम्भ पक्ष एवं विपक्ष की भागीदारी होती है, जिसमें दोनों पक्ष ही महत्वपूर्ण होते हैं। यदि सत्तापक्ष के समक्ष सकारात्मक विपक्ष नहीं है तो देश में सत्तापक्ष हिटलर के सदृश तानाशाह हो जाता है और देश के दुर्दिन प्रारम्भ हो जाते हैं।
भारत देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सत्तापक्ष के समक्ष, विपक्ष का उत्पन्न होना, एक अच्छी शुरुआत थी। सर्वप्रथम भाकपा (भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी) विपक्षी और कांग्रेस सत्तासीन थी और भाकपा ने भारत के कुछ प्रदेशों यथा – पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, केरल आदि में अपनी स्थिति सशक्त कर ली थी, परन्तु कुछ समय पश्चात ही उनके मध्य मतभेद प्रारम्भ हो गया और और वे दो भागों में विभाजित हो गए। पुनः कुछ समय पश्चात कांग्रेस पार्टी के सदस्यों में भी मतभेद प्रारम्भ हो गया तत्पश्चात भाजपा और जनता दल का उदय हुआ। दोनो पार्टियो ने अपनी अलग पहचान बनाई, परन्तु उनके मध्य भी मतभेद प्रारम्भ हो गया, परिणामस्वरूप क्रमशः एनडीए और यूपीए गठबंधन अस्तित्व में आया। इसके अतिरिक्त समय-समय पर दो या तीन दल परस्पर मिलकर एकता का प्रदर्शन करते रहे, परन्तु उनके मध्य एकता का जो अस्थायी भाव था, वो अधिक समय तक स्थायित्व नहीं ले पाया। विपक्षी एकता में परस्पर वैमनस्यता का प्रमुख कारण उनकी अति महत्वाकांक्षा को होना था, अन्ततः निजी स्वार्थ की प्रमुखता के कारण पार्टियों की एकता तथा उनकी महत्वाकांक्षा दोनों ही धराशायी होते रहे।
अब वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव ज्यों-ज्यों नजदीक आ रहे हैं त्यों त्यों विपक्षी एकता का शंखनाद पुनः सुनाई पड़ रहा है। परन्तु उस एकता को कभी पश्चिम बंगाल में ममता, तेलंगाना में के0 चन्द्रशेखर, बिहार में नीतीश भारद्वाज, दिल्ली में केजरीवाल और कभी राहुल गांधी आदि निजी स्वार्थ के कारण खंडित कर देते हैं, जिससे विपक्षी दलों में एकजुटता होने से पूर्व ही समाप्त हो जाती है। इस एकता के खंडित होने का मुख्य कारण सभी पार्टी के प्रमुख नेतागणों का स्वयं को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में प्रस्तुत करना है। यद्यपि सभी विपक्षी नेतागण इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि श्री नरेन्द्र मोदी जी के समक्ष इनमें से किसी भी नेता का कोई अस्तित्व नहीं है। यदि हम अतीत पर दृष्टिपात करें तो चन्द्रबाबू नायडू जो कभी राष्ट्रीय जनता दल गठबंधन के संयोजक थे और दक्षिण के शक्तिशाली नेता थे, उन्होंने भाजपा के विरुद्ध सबको साथ लाने का प्रयास किया, परन्तु वे स्वयं ही अस्तित्वहीन होते चले गए। अब नीतीश कुमार जिनकी अपने ही क्षेत्र में अर्थात् बिहार प्रदेश में भी लोकप्रियता घट रही है, वे भी विपक्षी दलों में एकता की बात करते हैं और सम्भवतया अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर भी प्रधानमंत्री बनने का स्पप्न देख रहे हैं। परन्तु वे इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि इस विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस की भूमिका क्या होगी जबकि कांग्रेस स्वयं ही विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है, वो अपनी पार्टी के इतर अन्य पार्टी के उम्मीदवार को प्रधानमंत्री के रूप में क्यों स्वीकार करेगी। वास्तविकता यह है कि जब तक सभी विपक्षी दलों की सकारात्मक मानसिकता एवं अपेक्षाएँ समर्पण की भावना से ओत-प्रोत नहीं होंगी तब तक विपक्षी एकता के सार्थक परिणाम मिलने असम्भव है। भारत की जनता भी इस तथ्य से भली-भांति परिचित है कि विपक्षी एकता का नारा केवल आम जनता को भ्रमित करने का एक माध्यम है। आजादी के 75 वषों के अन्तराल में जब विपक्ष के विभिन्न दलों में कभी भी एकता स्थापित नहीं हो पाई तो अब ऐसा होना कैसे सम्भव हो सकता है और विपक्ष की एकता के अभाव में भाजपा पर विजय प्राप्त करना मात्र एक दुःस्वप्न है।

*योगेश मोहन*

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