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#विजयमनोहरतिवारी
यह भारत के दुर्भाग्य की कथाएँ हैं। अंतहीन दुर्भाग्य की रुला देने वाली आपबीतियाँ। यह किसी मिशनरी या मजहब की बात ही नहीं है। यह भारत को तिल-तिलकर नष्ट करने के प्रयासों की एक सामान्य सी झलक है, जो केरल की पृष्ठभूमि से सिनेमा के परदे पर प्रस्तुत हुई है। मैं “द केरल स्टोरी’ की बात कर रहा हूँ। एक फिल्म, जो इन दिनों सर्वाधिक चर्चा में हर कहीं हाऊस फुल है। होनी भी चाहिए।
मैंने इसे रिलीज होने के बाद चौथे दिन देखा। यह किसी कोण से किसी भी धर्म विशेष को अपमानित नहीं करती। धर्मांतरण भारत के लिए नया विषय नहीं है। छल और बल से यह होता ही रहा है। अखंड भारत के तीन टुकड़ों में जनसांख्यिकी का विस्तार सदियों के उसी फैलाव का फल है। यह फिल्म केरल में जारी धर्मांतरण के सर्वाधिक भयावह पक्ष को संसार के सामने लाती है।
किसी पारसी, सिख, ईसाई या हिंदू कन्या से किसी मुस्लिम का प्रेम या विवाह कोई नया विषय नहीं है। हर शहर में बीते तीस वर्षों की घटनाएं और उनके पात्रों का स्मरण कीजिए। उनकी कहानियों के अपडेट लेना समाज के लिए जरूरी है कि वे किस हाल में कहाँ कैसा जीवन जी रही हैं? संभव है कि वे बहुत सुखी परिवारों में अपने बड़े होते बच्चों के साथ हमारे बीच आएँ, जहाँ धर्म कोई बाधा नहीं है।
हो सकता है कि नमाज के साथ पर्यूषण, अग्निपूजा, शबद गायन और रुद्राभिषेक उन परिवारों में सब मिलकर कर रहे हों। तिलक भी लगा हो, टोपी भी सजी हो। हो सकता है वह प्रेम दो धर्मों को एक धारा में लेकर अब तक चल रहा हो। किंतु इसका बहुत उल्टा भी संभव है। कि भावुक कन्या के सिर से प्रेम का भूत साल भर में उतर गया हो। उन्हें अपना धर्म और अपना अतीत छोड़ना पड़ा हो, वे दूसरी या तीसरी बीवी बनी हों। उन्हें इसी जीवन में दोजख के विराट दर्शन हो गए हों। कुछ भी हो सकता है। मगर यह गहरे सामाजिक शोध का विषय है, जिस पर विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों को परिश्रमपूर्वक बहुत गहरे काम की आवश्यकता है।
कोई गैर मुस्लिम कन्या किसी मुस्लिम युवक के साथ विवाह संबंधों में चली गई, उसने इस्लाम कुबूल भी कर लिया लेकिन जीवन चल रहा है, बच्चे बड़े हो रहे हैं, वे हमारे ही समाज में अब स्वीकार्य युगल हैं, बात इतनी सरल भी हो तो कोई बात नहीं। द केरल स्टोरी सर्वाधिक भयावह पक्ष इसलिए है कि वहाँ प्रेम एक जाल है, जिसमें फँसाने की सुनियोजित चालें हैं और उनके पीछे कुछ चेहरे हैं, उनके स्पष्ट उद्देश्य हैं।
यह 2014 में सीरिया में इस्लामिक स्टेट के उभार के समय हुई सत्य घटनाओं की कथा है, शालिनी उन्नीकृष्णन इसकी केंद्रीय पात्र है। शालिनी की तीन और सहेलियाँ हैं, जो केरल के कासरगोड जिले के एक नर्सिंग कॉलेज में डिग्री लेने पहुंचती हैं। केरल के एक सिरे पर है तिरुवनंतपुरम और दूसरे सिरे पर है कासरगोड, जो कर्नाटक के मेंगलोर से सटा लगभग शत-प्रतिशत मुस्लिम इलाका है।
आसिफा नाम की एक स्थानीय सहपाठी उन्हें होस्टल में मिलती है। आसिफा उस गिरोह की एक निचली कड़ी है, जिसे गैर मुस्लिम खूबसूरत लड़कियों को गिरोह के दूसरे सहभागी मुस्लिम लड़कों के नजदीक लाना है। उनके मस्तिष्क में अपने मूल धर्म के विरुद्ध बीज बोने हैं और इस्लाम की काल्पनिक महिमा प्रस्तुत करनी है। वह अपने मिशन पर बाहिजाब है। तीनों गैर मुस्लिम लड़कियाँ केवल उसका अगला शिकार हैं, अंतिम नहीं।
इन लड़कियों को प्रेमजाल में फँसाकर ड्रग की लत लगाना अगला चरण है, जिसमें अब आसिफा के कुछ मुस्लिम युवा मित्र अौर परिजन भी जुड़ गए हैं। ड्रग की चपेट में लाने के बाद आकर्षक गंगा-जमनी माहौल में उनके साथ शारीरिक संबंध बनाना और गर्भवती करना उनके लिए सरल है। ऐसा ही होता है। शालिनी और उसकी एक और सहेली इस दलदल में उतर जाती हैं। तीसरी नेमाह थोड़ा बचकर चलती है। वह ईसाई है।
गर्भवती शालिनी को एक दिन बताया जाता है कि उसका पार्टनर तो विदेश चला गया है। होने वाले बच्चे की खातिर उससे निकाह के लिए अब दूसरा पात्र सामने लाया जाता है। शालिनी की सहेली निकाह के लिए तैयार नहीं होती तो उसके अश्लील वीडियो पहले ही बनाकर रखे गए होते हैं, जो एक दिन इंटरनेट पर डाल दिए जाते हैं। वह आत्महत्या करती है। शालिनी कोलंबो से अफगानिस्तान होकर सीरिया में इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों में जुड़ने जा रहे अपने नए शौहर के साथ रास्ते में एक संतान को जन्म देती है। अभी उसे और धोखे और अपमान से गुजरना शेष है।
हर दृश्य प्रभावी ढँग से अगले दृश्य तक कहानी को लेकर जाता है। आप गहरे सन्नाटे से घिरे एक ऐसी कथा को परदे पर देखते हैं, जो हजारों लड़कियों ने अपने जीवन में भोगी और यह सदियों पहले गुलामों के बाजार में बेची गई लड़कियों की बहुत दूर की कहानियाँ नहीं हैं। यह अजमेर की उन बदकिस्मत स्कूली बच्चियों की दारुण कथा भी नहीं है, जिन्हें चालीस साल पहले संगठित गिरोह ने ऐसे ही जालों में फँसाकर जाने कब तक ब्लैकमेल किया था! गूगल और यूट्यूब पर उनकी सत्य कथाएँ देखिए कि वे कौन लोग थे?
अजमेर हो या केरल, वे लड़कियाँ आज भी कहीं न कहीं हैं। यह वर्तमान है और यह उनका भोगा हुआ सच है। वह सब आज भी बंद नहीं हुआ है। शालिनी का जीवन नष्ट करने वाला कथित मुस्लिम प्रेमी केरल में पिज्जा की दुकान चला रहा है। शालिनी उसका अंतिम शिकार नहीं ही होगी। वह आज भी शिकार पर हो सकता है! आसिफा अकेली नहीं होगी। हर शहर में सैकड़ों आसिफाएँ अपने काम पर लगी होंगी। एक ऐसे काम पर, जो अल्लाह ने ही उन्हें दिया है। एक ऐसा अल्लाह, जो उनके अनुसार सर्वश्रेष्ठ है, जिससे किसी भगवान की तुलना करना भी पाप है!
जब दूसरे मुस्लिम युवक के साथ गर्भवती शालिनी का निकाह हो रहा होता है तो उसकी बेबस माँ रोती-पड़ती वहाँ तक आती है। आसिफा उसे ढाँढस बँधाती है। कहती है-“अब वह शालिनी नहीं है। वह फातिमा है। आप लौट जाइए। अल्लाह सब ठीक करेगा!’
यह सही है कि अल्लाह सब ठीक करेगा मगर इस्लाम के महान दर्शन में अल्लाह किसका ठीक करेगा, क्या वाकई? बार-बार यह बात दोहराई गई है कि काफिरों को दोजख की आग में वह जलाने वाला है और वह आग सामान्य आग से 70 गुना ज्यादा तेज होगी। इसलिए इस्लाम कुबूल करो!
यह फिल्म हर उस परिवार को देखनी चाहिए, जिसके यहाँ बेटी है, जिसके संबंधियों में किसी के यहाँ भी एक बेटी है और जिसके पड़ोस में किसी भी घर में एक बेटी है। यह सबको मिलकर देखना चाहिए। सब बेटियों को भी, जो पढ़ने के लिए स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी तक जाती हैं। अपने गाँव-घर से दूर होस्टल और किराए के कमरों में रहती हैं।
यह तय मानिए कि कोई न कोई उनके शिकार पर किसी नुक्कड़ पर बाइक लिए खड़ा है। वह क्लासरूम में भी हाे सकता है। पड़ोस के फ्लैट में भी। जरूरी नहीं कि वह सीरिया या अफगानिस्तान में आतंकी बनने के लिए ही ले जाने के लिए खड़ा हो। किंतु यह अटल सत्य है कि वह अापसे आपका धर्म, आपका परिवार, आपकी परंपराएँ, आपका अतीत सदा के लिए छीनने के लिए ही घात लगाए है। एक बार आगे बढ़ने के बाद आपसे आपका नाम और आपकी पहचान सब कुछ छिन जाने वाला है।
यह क्यों होगा, यह समझने के लिए इस्लाम का डिजाइन हर गैर मुस्लिम को ठीक से पता होना चाहिए। कोई स्कूल-कॉलेज में यह नहीं पढ़ाएगा लेकिन धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पर समाज में चर्चाएं होना जरूरी हैं। घरों में अपने धर्म की सर्वश्रेष्ठ सीखें बच्चों को बताएँ। सामाजिक संगठन और स्टडी सर्कल नियमित रूप से तुलनात्मक अध्ययन की कक्षाएं शुरू करें। एक युवा मुस्लिम भी प्रेम की ओर पहला कदम बढ़ाते हुए शायद नहीं समझता होगा कि वह जाने-अनजाने उस गैर मुस्लिम लड़की से क्या कुछ छीन लेने वाला है। वह इस्लाम के डिजाइन में एक मामूली टूल है और संगठित सियासी या आतंकी गिरोह हर प्रकार के नटबोल्ट, पाने, पेंचकस से भरीपूरी एक टूलकिट!
और फिल्म को लेकर इसी बिंदु पर आग लगी हुई है। दाढ़ियाँ और टोपियाँ सुलगी हुई हैं। क्योंकि काफिर और मोमिन का दर्शन एक ऐसे विचार से उपजा है, जिसे वे इस्लाम कहते हैं। उसमें एक ऐसे अल्लाह का आविष्कार है, जो काफिरों और बुतखानों को नष्ट करने पर ही अड़ा हुआ बैठा है। सदियों से इस हम्माली में सबको लगाया हुआ है। हर मोमिन का यह प्राथमिक कर्त्तव्य है कि वह इस्लाम को फैलाए। अल्लाह के निकट सबको घसीटकर लाए। छल से बल से, जैसे भी। लड़कियाँ सबसे सरल शिकार हैं। उन्हें प्रेमपूर्वक लाया जाए!
तो फिल्म में कुछ मौलवी हैं, आलिम हैं, मस्जिद है, अजानें हैं, नमाजें हैं, शरिया कानून के रक्तरंजित क्रियान्वयन हैं, अल्लाहो-अकबर का सदाबहार शोर है, जोशीले लड़ाकों के गोली-बम के धूम-धमाके हैं। तारेक फतह जीवन भर कहते रहे कि अल्ला का इस्लाम अलग है, मुल्ला का इस्लाम अलग। मुल्ला का इस्लाम राजनीतिक इस्लाम है, अल्ला ने तो आध्यात्मिक टाइप का कोई इस्लाम दिया था।
तारेक फतह की कसौटी पर यह फिल्म मुल्ला के इस्लाम की कहानी है, जो पूरी दुनिया को इस्लामी परचम के नीचे लाने में दिन-रात लगे हैं। चूंकि यह सब चल इस्लाम के नाम पर रहा है इसलिए इस्लाम की बंद दिमाग जमातों के पेट में मरोड़ें स्वाभाविक हैं। एक सत्य इतनी प्रखरता के साथ परदे पर आ गया है कि दाढ़ी में तिनका ही दिखाई नहीं दिया है। तिनकों की ही दाढ़ियाँ बेहिजाब हो गई हैं!
मैं मानता हूँ कि ज्यादातर मुस्लिम ऐसे नहीं होते। वहाँ भी दया और प्रेम, सहिष्णुता और करुणा रखने वाले आम लोग हैं। अगर ऐसे हैं तो सिनेमा में आधी सीटें इनसे भी भरनी चाहिए। वे भी देखें कि आध्यात्मिक इस्लाम जैसा कुछ अस्तित्व में है तो वह कहाँ है? अगर सिनेमा में आधा सच है तो पूरा सच क्या है, यह निर्दोष संसार के संज्ञान में भी लाया जाए।
मैंने इसे भारत के अंतहीन दुर्भाग्य की कथा कहा। मजहब के नाम पर हुए बटवारे के बाद पाकिस्तान में गैर मुस्लिम बेटियों की दुर्दशा किससे छिपी है, बांग्लादेश में आए दिन मंदिरों और हिंदू घरों पर हमलों के बारे में किसे नहीं पता और इन दो टुकड़ों के बाद बचे हुए भारत में काश्मीर से बंगाल होकर केरल तक हतभाग्य हिंदुओं के हिस्से में क्या आया है? वे भारत के दुर्भाग्य को अकेले ढोने के लिए जाने कब से अभिशप्त हैं!
शालिनी की निमाह नाम की ईसाई सहेली धोखे से ड्रग की चपेट में लाकर रेप की शिकार बनाई जाती है, वह जैसे-तैसे पुलिस स्टेशन में इस संगठित नेटवर्क की शिकायत रो-रोकर जब कर रही होती है तो उसके पीछे दीवार पर लगी एक तस्वीर पर ध्यान टिकता है। सेक्युलर भारत के आबादी में आधे मुस्लिम-ईसाई हो चुके वामपंथी शासकों वाले केरल नामक राज्य के उस पुलिस अफसर के कार्यालय में लगी उस तस्वीर में महात्मा गाँधी मुस्कुरा रहे हैं!
यह समीक्षा नहीं, एक सकारात्मक टिप्पणी है। मैं फिल्म देखकर किसी प्रकार की राय बनाने के बिल्कुल पक्ष में नहीं हूँ। वैसे भी यह फिल्म इस्लाम की कोई नकारात्मक छवि नहीं दर्शाती। यह केरल की बेटियों का जीवन और भविष्य बरबाद करने में लगे उन संगठित गिराेहों की सत्य कथा काे प्रकट करती है, जो इस्लाम के वेश में सक्रिय हैं। इस्लाम उनके कारण बदनाम हो रहा होगा, सिनेमा में इतनी शक्ति नहीं कि वह सर्वशक्तिमान अल्लाह के सर्वश्रेष्ठ इस्लाम पर एक कण बराबर भी दाग लगा सके! यह असंभव है। भला षड़यंत्र, छल-कपट और आतंक का भी कोई धर्म होता है! कदापि नहीं…
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