कर्नाटक भाजपा के 5 साल के शासनकाल में चार चार मुख्य मंत्रियों ने शपथ ली। लेकिन जब चुनावी लड़ाई की बात आई तो पूरी की पूरी जिम्मेवारी नरेंद्र मोदी ने अपने माथे उठा ली। कर्नाटक भाजपा की चुनावी लड़ाई में नरेंद्र मोदी भाजपा परिवार के एक ऐसे अभिभावक की भूमिका में आते हैं, जो हारी हुई लड़ाई को न केवल अपनी पूरी हिस्सेदारी से लड़ता है, बल्कि अपने सभी आश्रितों के हिस्से से भी अंतिम सांस तक लड़ता है, ठीक भीष्म पितामह की तरह। नरेंद्र मोदी वाली भाजपा कभी भी उस तरह की सरकार चलाने में विश्वास नहीं रखती, जैसा कि कर्नाटक में पिछले 5 बरस हुआ। ’14 के बाद वाली भाजपा स्थाई, स्थिर और मजबूत सरकार के लिए जानी जाती है। 2018 के असेंबली चुनाव में केवल बहुमत से 9 सीट कम होने व क्षत्रिय फैक्टर आदि के कारण, कर्नाटक भाजपा ने सीएम के चार-चार दावेदारों को ढोया।
2023 की चुनावी तैयारी भाजपा ने उस हिसाब से की थी, जिसके लिए वह जानी जाती है। क्योंकि भाजपा अपनी चुनावी तैयारी केवल चुनाव जीतने के लिए नहीं, बल्कि चुनाव बाद स्थाई सरकार चलाने के हिसाब से करती है। हाँ इस प्रकार की तैयारी बहुत बड़ा चुनावी दांव होता है, जिसकी कीमत चुनाव हार कर भी चुकानी पड़ती है। डेयर पॉलिटिक्स करने वाली भाजपा ने पुराने चेहरों को हटाकर तमाम नए चेहरों को इस चुनाव स्थान दिया था, ताकि क्षेत्रीय मुद्दों के आधार पर गुटबंदी की संभावना को पाटकर दल और सरकार में सॉलिडेरिटी कायम की जा सके। और चुनावी जीत का दांव संभालने के लिए देश के सबसे लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी अपने हाथ पतवार संभाल लिये।
हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता का एक सबसे बड़ा मिथक भाजपा से जोड़कर यह देखा जाता है कि ऐसी सांप्रदायिकता की वजह से भाजपा को जीत मिलती है। सच्चाई यह है कि सांप्रदायिकता के एजेंडे पर आश्रित होकर भाजपा कोई भी चुनाव नहीं जीतती। बल्कि भाजपा की जीत तमाम मुद्दों के कारण होती है और पूरे शासनकाल के दरमियान भाजपा शासन पर हिंदुत्व के एजेंडे का लेप चढ़ाया जाता है। इसका पहला लाभ यह है कि भाजपा के विरोधी दल जहां भी भाजपा से चुनाव हारते हैं, उन्हें लगता है कारण हिंदुत्व है। दूसरा लाभ यह है कि राज्यस्तरीय अथवा राष्ट्रीय राजनीति में इससे हिंदुत्व के एजेंडे को राजनीतिक वैधता प्राप्त होती है। इससे भाजपा को कोई फायदा तो नहीं होता, लेकिन देश के हिंदू समाज का जन जागरण और कल्याण अवश्य होता है। जबकि भाजपा का शासन-दोहराव केवल और केवल कामकाज के प्रदर्शन के आधार पर होता है। चाहे यूपी निकाय चुनाव में भाजपा के पक्ष में परिणाम की बात हो अथवा योगी मोदी के शासन दोहराव की। यहां तक कि पहली बार भी ’14 में मोदी जी विकास के मुद्दे को लेकर राष्ट्रीय चुनावी लड़ाई में उतरे थे। कर्नाटक भाजपा में हिजाब बनाम केसरिया साफा तो हो गया था, लेकिन बोम्मई और येदुरप्पा ने किस प्रकार शासन चलाया कि भाजपा का वोट शेयर पिछले 5 वर्षों में यथावत बना रहा, 36 का 36 परसेंट।
भाजपा जातिवाद, भाषावाद और क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर विकास और राष्ट्रवाद की राजनीति करती है। यह बहुत महंगी राजनीति है। भाषावाद, क्षेत्रवाद और जातिवाद की राजनीति आसानी से वोट बैंक का जुगाड़ करने वाले एजेंडे है, जोकि 30-35% अथवा इससे तनिक अधिक में सरकार गठन का फॉर्मूला रखते हैं। लेकिन विकास और हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति के लिए कम से कम 50% वोट शेयर हासिल करने वाली रणनीति होनी चाहिए। योगी जी ने उत्तर प्रदेश में ऐसी ही रणनीति पर काम करके दिखाया है। तब ही राष्ट्रीय भाजपा के उत्तरप्रदेश से तमाम मनोरथ समय-समय पर पूरे होते रहते हैं।
दक्षिण की तरफ जैसे जैसे भाजपा की राजनीति बढ़ती है, एक और महत्वपूर्ण विषय पर भाजपा को इसके लिए काम करने की आवश्यकता है। क्योंकि भाजपा विकास के साथ राष्ट्रवाद का विषय लेकर चलती है, इसलिए जरूरी हो जाता है कि दक्षिण के राज्यों में भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं का संवाद उतना ही बाधामुक्त हो, जितना कि उत्तर भारत में होता है। भाजपा की मोदी पॉलिटिक्स आई कांटेक्ट की पॉलिटिक्स है। सड़कों पर मोदी जी की लंबी लंबी यात्राएं हों तथा पदयात्रा, भाजपा ने जनसंपर्क के नियमों का बड़ी कठोरता से पालन किया है। लेकिन जब बात चुनावी मंच पर भाषण की आती है, बीच में एक ट्रांसलेटर आ जाता है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को यदि सीधे दक्षिण भारत से जुड़ना है, तो मोदी-शाह और नाडा जैसे बड़े राजनीतिक कार्यकर्ताओं को दक्षिण की भाषा में संवाद स्थापित करना होगा। भाजपा की अगले जनरेशन ही सही, इस मसले पर काम कर ले तो दक्षिण भाजपा से आशातीत सफलता मिल सकती है। तमिलनाडु के अन्नामलाई निश्चित तौर पर आने वाले समय में दक्षिण के योगी साबित होंगे। फिर भी भाजपा के पास कर्नाटक हार के तमाम ज्योतिषीय गणनाएँ होने के बावजूद, लोकतंत्र की जिस लड़ाई को पूरी श्रद्धा से भाजपा ने लड़ा है, काबिले तारीफ है।
विशाल झा