जिन कुत्सित और घृणित इतिहासकारों द्वारा यह लिखा जाता है कि मराठों का दृष्टिकोण बहुत संकुचित था, उनमें अखिल भारतीय नेतृत्व और साम्राज्य निर्माण की क्षमता नहीं थी, साथ ही वे लुटेरे, डाकू तथा विश्वासघाती थे !
उनकी राजनयिक क्षमता, राजनीतिक कौशल तथा दूरदर्शिता मध्यम स्तर से भी कम थी…..आदि, आदि !
अब इन दो टकिया इतिहासकारों से प्रश्न पूछा जाए कि अगर मराठों का उदय नहीं हुआ होता और भारतवर्ष सीधे मुसलमानों की ओर से अंग्रेजों को हस्तान्तरित किया जाता तो काशी, नासिक, प्रयाग, गढ़मुक्तेश्वर, ऋषिकेश, अयोध्या, मथुरा, उज्जैन…इन सबकी महिमा और ऐश्वर्य बचा रहता क्या ?
इसका उत्तर तो राजमाता अहिल्याबाई के जीवन दृष्टान्त को सम्मुख रखकर कोई पा सकता है और इन कुत्सित, विकृतचित्त इतिहासकारों के दुरंगेपन को तुरत फुरत समझ सकता है !
हिन्दू पद पादशाही के आगमन के साथ सिर्फ मुगल साम्राज्यवाद के ही पर नहीं कतरे गए थे, बल्कि जल्लादी भाव से बेतहाशा प्रसार रत इस्लामीकरण के अजेय अभियान को भी अवरुद्ध कर दिया गया था !
इतना ही नहीं राजनीतिक रंगमंच पर मोहम्मद बिन कासिम, गजनवी, गोरी, खिलजी के दौर से जारी बर्बरता की आंधी को भी निर्मूल कर दिया गया था….
ढंग से देखा जाए तो यह मराठों का ही अपरिमित संकल्प, राजनीतिक पुरुषार्थ तथा दुर्जेय साहसिकता थी जिसने मध्यकालीन भारतीय इतिहास की कालधारा को एकदम नूतन स्वरूप प्रदान कर डाला….
इतना ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक जीवनधारा की मीमांसा, मूल्यांकन और दृष्टिकोण को भी परिवर्तित कर डाला…
रिचर्ड टेम्पल मराठों के इस अभूतपूर्व ऐतिहासिक अवदान का मूल्यांकन करते हुए सटीक लिखता है कि : शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी पेशवाओं की राजनीतिक उपलब्धियां इतनी भव्य व प्रशस्त हैं कि इसने बरबस इतिहासकारों को यह निष्कर्ष मानने को बाध्य कर दिया है कि ब्रिटिशर्स ने भारतवर्ष को मुस्लिमों से नहीं, बल्कि हिन्दुओं से और उसमें भी खासकर मराठा जैसे स्वाभिमानी हिन्दू योद्धाओं को जीतकर हासिल किया..
इतिहास में नैरेटिव्स खेल ही बहुत कुछ निर्धारित करता है कि आपकी पीढ़ी कैसा इतिहास पढ़ेगी गुनेगी और उसकी ऐतिहासिक चेतना तथा ऐतिहासिक बोध कैसा होगा ?
इसे बड़े अच्छे से समझ लीजिए —-
Professor सैय्यद नुरुल हसन और अलीगढ़ इतिहास मंडल तथा JNU बौद्धिक केन्द्र इसी बात को साधता रहा है आज तक !
लेनिन, स्टालिन और माओ के पैशाचिक लीला विस्तार और लक्ष्य सम्पादन में इसी नैरेटिव्स आइडियोलाजी ने प्रधान भूमिका निभाई थी।
यह इतिहास की मांस मज्जा का रक्त प्रवाह है एक तरह से…
इसे समझिए भाइयों —–
ऐसे में नव राष्ट्रवादी इतिहास लेखन के नैरेटिव्स की अनर्गल आलोचना के बजाए उसके व्यापक उद्देश्य को प्रोत्साहित व रचनात्मक आघूर्ण देने की जरूरत है….
{••• वैसे अगर कुत्सित लिबरल और कम्युनिस्ट इतिहासकारों को स्वामी विद्यारण्य का सनातन पुरुषार्थ, राणा संग्रामसिंह का शौर्य, राणा हम्मीर देव की वीरता और महाराणा राजसिंह द्वारा सात से आठ बार औरंगज़ेब को रगड़ा जाना धूर्ततावश नहीं दिखता !
और तो और शातिर तरीके से इसे उपेक्षित करते हुए अपने जेहादी लेखन को आगे बढ़ाते रहना भर ही दिखता हो…
बाजीराव बल्लाल, रघुनाथ राव, रघुजी भोंसले, मल्हार राव होल्कर और महादजी सिंधिया के असाधारण कारनामे नहीं दिखते…
शंभाजी का अतुलनीय बलिदान, मामा हंबीर राव मोहिते और समर्थ गुरु रामदास का उद्घोष मूल्यवान नहीं लगता…
दिवेर का युद्ध, नागदा का युद्ध, मिहिरभोज, नागभट्ट और पुलकेशिन अवनिजनाश्रय का धर्मयुद्ध महत्वहीन लगता है तो इस बर्बर लुटेरे और दुराचारी गजनवी का विध्वंस क्यों कोई राष्ट्रवादी इतिहासकार महत्वपूर्ण माने…??
इतिहास में वामपंथी और राजनीतिज्ञों ने नैरेटिव्स गेम ही खेला है आज तक…
ऐसे में इतिहास के पुनर्लेखन में बलात्कारी, लुटेरों और डकैतों, नरपिशाचों चाहे वह मुहम्मद बिन कासिम हो, महमूद गजनवी हो, मुहम्मद गोरी, ऐबक, इल्तुतमिश, अलाउद्दीन खिलजी, फिरोज तुगलक, सिकंदर लोदी, औरगंजेब, नजीबुद्दौला अब्दाली कोई भी हो —– उसे उतनी ही जगह देने की जरूरत है जितने लायक उसका काम है !
न जरूरत लगे तो न भी दी जाए…।
वैसे भी 1000 वर्षों के मध्यकालीन भारत के इतिहास के भीतर आज तक पूरे कालखंड को मात्र सल्तनत काल और मुगलकाल, उत्तर मुगल काल पढ़ पढ़कर हिन्दू युवक मूढ़ और चेतनाशून्य हो ही चुके हैं…
ऐसे में इन आततातियों और विधवंसक लुटेरों को फर्जी का इतिहास निर्माता और संस्कृति अग्रदूत दर्शाने का शौक जिन्हे चर्राया था, उनका दौर जा चुका !
वे सब मृत होकर कब्रिस्तान में जाने की तैयारी में हैं !
आप विवेकवान बनिए !
पहले की मानसिक दासता और विचारशून्य आचरण छोड़िए…}
-कुमार शिव