जिन गतिविधियों को आप क्रांति के प्रति अपनी रूमानियत के तहत, आदिवासियों की प्रतिक्रिया समझते हुए माओवादियों के समर्थक बनते हैं वह माओवादियों के लिए विशुद्ध रूप से युद्ध की रणनीति होती है।
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मेरी व आपकी असहमति –
आप मानते हैं कि महिला माओवादियों ने बदले की कार्यवाही के लिए सिपाहियों के गुप्तांग काटे।
मैं कहता हूं कि यह माओवादियों की युद्ध रणनीति है, जनदबाव विकसित करने की। गुप्तांग जानबूझकर काटे गए ताकि आप यह गुणा-गणित लगाते रहें कि यह बदले की कार्यवाही है। आपकी सहानुभूति प्राप्त हो, साथ ही आपके दिलोदिमाग में यह बैठ जाए कि सुरक्षा बल आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार करते हैं।
जिसने कई दशक तक भ्रष्टाचार करते हुए ग्रांट पाते हुए NGO चलाई हो, आदिवासी क्षेत्रों में विकास के नाम पर वर्षों तक करोड़ों रुपए की ग्राँट पाई हो। आप उसे आदिवासी मुद्दों को समझने के लिए अपनी समझ व तथ्यों का स्रोत मानते हैं।
जिसने खुद आदिवासी लड़कियों का यौन शोषण किया हो। आप उसे आदिवासी शोषण व मानवाधिकारों का आदर्श मान लेते हैं।
यही नहीं ऐसे लोग आपके सामने एक से बढ़कर एक फूहड़ व भ्रष्ट लोगों को आदिवासी हीरोज के रूप में प्रायोजित करते हैं और आप उन पर अंधविश्वास करते हैं।
आपके आदर्शों का ढोंग व आपका अंधापन ही है, मेरी व आपकी असहमति का कारण।
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अभी कुछ वर्ष पहले छोटे-छोटे किशोरों ने महज 10-15 साल तक की उम्र के बच्चों ने केंद्रीय सुरक्षा बलों की पूरी कंपनी को घेर कर मार डाला था, जबकि इन किशोरों में से एक की भी जान न गई थी घंटो चले इस पूरे हमले में।
दो-चार दिन पहले सुकमा में माओवादियों ने सुरक्षा बलों की हत्याएं की, हमलावरों में अधिकतर माओवादी महिलाएं थीं।
मतलब आप कहना चाहते हैं कि जो माओवादी महिलाएं केंद्रीय सुरक्षा बलों की कंपनी को घेर कर मार डालती हैं। उन महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा सकता है। माओवाद नियंत्रित किसी गांव में, माओवादी केंद्रों में प्रशिक्षित किशोरों की उपस्थित होने के बावजूद, वह भी माओवादी केंद्रों में कई-कई सालों तक ट्रेनिंग पाई महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा सकता है।
मानवाधिकार वाले दुकानदार व माओवाद समर्थक लोग जिन बलात्कारों को लोगों के माइंडसेट को नियंत्रित करने के लिए, क्रांति की रूमानियत को मैनीपुलेट करके सहानुभूति व समर्थन प्राप्त करने के लिए, प्रायोजित करते हैं।
यदि उन बलात्कारों को सही मान लिया जाए तो इसका मतलब यह हुआ कि –
केवल बलात्कार करने के लिए सुरक्षा बल हजारों की संख्या में बलात्कार करने के एजेंडे के लिए निकलते होगें। जंगलों में कई-कई दिन तक पैदल मार्च करते हुए जान हथेली पर रखकर, पूरी की पूरी पुलिस मशीनरी, संचार तकनीक व हथियारों का प्रयोग केवल कुछ अधेड़ उम्र की आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार करने के लिए करते होगें।
जिन आदिवासी लोगों का विश्वास अर्जित करने के लिए पुलिस के उच्च अधिकारी आदिवासी गांवों में जाकर वहां जमीन पर बैठकर खुद अपने हाथों से आदिवासी लोगों को खाना परोस कर खिलाते हैं। इसको यदि आप ढोंग कहना चाहते हैं तो इस ढोंग का भी रणनीतिक कारण आदिवासी समाज का विश्वास जीतना ही तो है।
विकास के कार्यों, सड़कों व आदिवासी समाज का विश्वास जीतने के लिए इतने प्रयासों को करते रहने वाले सुरक्षा बल बिना यह चिंता किए कि आदिवासी लोगों के विश्वास को अर्जित करने के लिए किए गए प्रयास एक झटके में मटियामेट हो जाएंगे, सैकड़ों हजारों की संख्या में किसी गांव में पहुंच कर कुछ आदिवासी अधेड़ उम्र की महिलाओं के साथ बलात्कार करते हैं।
मानवाधिकार सेलिब्रिटी दुकानदारों ने बस्तर के एक-एक गांव की एक-एक झोपड़ी में CC कैमरे लगा ही रखे हैं सबूत पाने के लिए। इधर बलात्कार हुआ उधर सोशल मीडिया में सबूत तैरना शुरू, रूमानियत वाली पोस्टें आना शुरू। अदालतों में पुलिस के खिलाफ मुकदमें शुरू। मीडियाबाजी शुरू। मानवाधिकार संगठनों के बयान शुरू। सब कुछ क्रमागत रूप से व्यवस्थित।
मतलब यह कि पुलिस अधिकारी बस्तर में आते ही मूर्ख हो जाते हैं, आदिवासी अधेड़ उम्र की महिलाओं को देखते ही अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं, उनसे बलात्कार करने की आकांक्षा अनियंत्रित हो जाती है।
इसलिए ऐसे बलात्कार करने व करवाने लगते हैं जिनका न तो कोई रणनीतिक मूल्य है, न दैहिक सुख, जान का खतरा ऊपर से, बदनामी अलग से।
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इस बेहूदी बकवास को दूर रखिएगा कि आदिवासियों की जमीन को कब्जा कर कारपोरेट को देने की साजिश है। यह आप ही हैं जो बाजारू हैं, यह आप ही हैं जिसके भोगने के लिए सुविधाएं बाजार में बिकती हैं। यह आप ही हैं जो महज रुपयों के लिए कंपनियों में काम करते हैं।
जब तक आप ऐसे रहेंगे तब तक जमीनें कब्जाई जाती रहेंगी। जमीन तो NGO वाले भी कब्जाते हैं। मैगसेसे व नोबेल वालों ने आम गरीब लोगों की जमीनें कब्जाई हैं। इनमें से वे लोग भी हैं जो मानवाधिकार के सेलिब्रिटी हैं।
फिर भी यदि तथ्यों की इतनी ही जानकारी है तो यह जरूर बताइएगा कि बस्तर में माओवादियों के आने के पहले आदिवासियों की कितनी जमीनें किन-किन प्राइवेट कारपोरेशन्स को दी गईं।
जब तक आप दोहरे मानदंडों व जीवन मूल्यों के ढोंगों में जिएंगे तब तक बस्तर जैसे क्षेत्रों को नहीं समझ सकते हैं। वस्तुनिष्ठ संदर्भों को समझे बिना विभिन्न छलों व भ्रमों की प्रतिष्ठापना में जाने-अनजाने सहयोगी बनते रहेंगे।
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पुरानी कही बात को एक बार फिर से दोहराता हूं –
जाने अनजाने में बस्तर के आदिवासियों का जीवन नर्कीय बनाने में सहयोगी न बनिए। पहले गंभीरता के साथ तथ्यों को परखिए। सही गलत का विश्लेषण कीजिए, मानवीय संवेदना को मिश्रित कीजिए, फिर किसी प्रोपागंडा आदि का हिस्सा बनिए।
कुछ बातें बिलकुल गांठ बांध लीजिए। बस्तर का आदिवासी हिंसक नहीं है। बस्तर का आदिवासी माओवाद का ककहरा नहीं जानता। बस्तर में माओवाद पहले आया, पुलिस बाद में आई। बस्तर में आदिवासी परंपराओं, घोटुल, नृत्य, संगीत इत्यादि को विलुप्त करने में माओवादियों का प्रमुख योगदान रहा है। बस्तर माओवादियों के लिए रणनीतिक रूप से सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।
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चलते – चलते :
बस्तर को समझने के लिए क्रांति के साथ खड़े होने या क्रांतिकारी होने की रूमानियत से बाहर निकलना होगा। यह रूमानियत ही वस्तुनिष्ठ हो पाने में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है। यह रूमानियत ही है जो विभिन्न छलों व भ्रमों को स्थापित करने में जाने-अनजाने सहयोगी बना देती है।
कोरी व हवाई रूमानियत/विद्वता/तार्किकता/क्
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सामाजिक यायावर
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