आर.के. सिन्हा
जब भी किसी भी नदी की धारा सूख जाती है, तो लोग उसमें अपना घर बना लेते हैं या तरह-तरह के अतिक्रमण कर लेते हैं और जब बारिश के दिनों में नदी अपने वास्तविक स्वरूप में लौटती है तो कहा जाने लगता है कि देखो, बाढ़ आ गई। आज जब यमुना अपनी अस्तित्व तो बचाने के लिए अपने पूरे सामर्थ्य के साथ दिल्ली के लोगों और दिल्ली की गंदगी दोनों से एक साथ लड़ रही है तो दिल्ली भर में हाहाकार मचा हुआ है। सच में, दिल्ली के द्वारा दिए गए कष्ट से ही तड़प उठी है यमुना। दिल्ली को अपनी यमुना को तो हर सूरत में बचाना ही होगा। हालत तो यह बन गई है कि जो यमुना दिल्ली की जीवन रेखा मानी जाती थी, अब उसमें तमाम शहर की गंदगी, गंदे कपड़े, कबाड़,पॉलिथीन मरे हुए जानवरों फैक्ट्रियों कारखानों से निकलने वाले जहरीले रासायनिक तत्व मिलाए जा रहे हैं। जो यमुना नदी दिल्ली की जीवन रेखा थी आज वह खुद ही अपने जीवन की भीख मांग रही है।
इसबार तो दिल्ली सरकार के केंद्र, दिल्ली सचिवालय से लेकर राजघाट,शांतिवन, शक्ति स्थल, सुप्रीम कोर्ट और निगम बोध घाट तक में चला गया यमुना में आई बाढ़ का पानी। बाढ़ ने इन सबके दरवाजे बंद करवा दिए। दिल्ली के पुराने मोहल्ले, कटरों, कूचों, गलियों, बाडो के बाशिंदे इसे कभी ‘यमुना नदी” कहकर नहीं पुकारते, आज भी उनकी जुबान पर ‘जमुना जी‘ चढ़ा है। यमुना कभी भी इनके लिए एक नदी नहीं रही। वे जमुना जी में स्नान करके खुद को धन्य, मोक्ष की प्राप्ति समझते थे। जब दिल्ली, कश्मीरी गेट, लाहौरी गेट अजमेरी गेट, दिल्ली गेट तक ही सीमित थी, तो यहां के रहने वालों के लिए रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने का जरिया भी थी जमुनाजी। पीने का पानी, किनारे पर पैदा होने वाली साग सब्जी, गाय भैंस को पानी पिलाने, नहलाने, तैराकी के मेले, मरघट वाले हनुमान बाबा का मंदिर। दिल्ली की बुजुर्ग महिलाओं का भोर में ही जमुनाजी जाकर स्नान ध्यान करना एक आम बात थी।
यमुना में आई बाढ़ से सिर्फ गरीब- असहाय ही कष्ट में नहीं है। इसने धनी और असरदार लोगों को भी जमुना जी ने उनकी सही ताकत का अहसास करा दिया। यमुना के करीब सिविल लाइंस में बनी विशाल कोठियां भी पानी-पानी हो गईं। साधना टीवी के सीईओ और प्रधान संपादक राकेश गुप्ता के सिविल लाइंस वाले घर की बेसमेंट और पहली मंजिल में बाढ़ का पानी चला गया। उन्हें और उनके परिवार को नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स (एनडीआरएफ) के जवान नावों में सुरक्षित स्थानों पर लेकर गए। राकेश गुप्ता कह रहे थे कि वे जब नाव पर बैठे थे तो वे यह सोच रहे थे कि इंसान को हमेशा बुरे वक्त को याद रखना चाहिए। बुरा वक्त बहुत कुछ सिखा जाता है। बहरहाल, इसी सिविल लाइंस के एक घर में बाबा साहेब अंबेडकर ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष गुजारे। इसी सिविल लाइंस मेट्रो स्टेशन के करीब 1925 में बने दिल्ली ब्रदरहुड हाउस में बाढ़ का पानी नहीं घुस पाया। पर पानी गुरु जम्भेश्वर धर्मशाला तक पहुंच गया था। यानी दिल्ली ब्रदरहुड हाउस को लगभग स्पर्श कर गया। यहां से ही फिलहाल दिल्ली डाइआसिसन बोर्ड के समाज सेवा से जुड़े काम होते हैं। इनके कार्यकर्ता आजकल राजधानी के बाढ़ से प्रभावित इलाकों में भोजन, फल और दवाइयां बांट रहे हैं। इनका अधिकतर काम यमुना पुश्ते पर चल रहा है। बाढ़ ने पुश्ते के आसपास रहने वाले लाखों लोगों को अपनी चपेट में लिया। दिल्ली डाइआसिसन बोर्ड राजधानी के गिरिजाघरों, ईसाई समाज की तरफ से संचालित स्कूलों, ओल्ड एज होम वगैरह का प्रबंधन करता है। इस बाढ़ ने दिल्ली के मनावीय पक्ष को उभारा। दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी समेत बहुत से समाजसेवी संगठन बाढ़ प्रभावित लोगों को पहुंचाने लगे।
इस बीच,अगर इतिहास के पन्नों को खंगालें तो हम देखते हैं कि 1857 के गदर में, मेरठ के विद्रोहियों ने कश्मीरी गेट से दाखिल न लेकर दिल्ली गेट से इसलिए दाखिला लिया , क्योंकि बचाव के लिए सामने यमुना नदी थी। बहादुर शाह जफर को भी यमुना नदी ने हीं बचाया था जब गोरी हुकूमत की फौज ने दिल्ली की घेराबंदी कर ली। तो बादशाह जफर नदी के रास्ते एक नाव पर सफर करके सुरक्षित हुमायूं के मकबरे में पहुंच गए। यमुना जी बादशाहों से लेकर गुरबत में रहने वाले सबके लिए एक वक्त मनोरंजन का साधन थी। इतिहाल के पन्नो को खंगालेंगे तो पता चलेगा कि शाहजहां जमुना में नाव चला कर लुफ्त उठाता था। वही दिल्ली का गरीब आवाम जमुना जी के घाटों की बुलंदियों से छलांग लगाकर छपाक से पानी में कूदकर अपने जोहर तैर कर आगे निकलने की ताकत का इजहार करते थे। नावो मैं बैठकर नौजवानों की टोली दूसरी नाव मैं सवार टोली से टक्कर लेने के लिए जोर-जोर से चप्पू तथा लंबे बांस के सहारे आगे निकालने का जी तोड़ प्रयास करते थे।
राजधानी होने का कारण बढ़ती हुई आबादी तो इसका मुख्य जिम्मेदार है ही। दिल्ली के यमुना किनारे खादर में लगभग 36 नई सौ कालोनियां बसा दी गईं। यमुना के अधिकार क्षेत्र वाली जमीन पर स्वामीनारायण मंदिर, कॉमनवेल्थ अपार्टमेंट, दिल्ली सरकार का नया सचिवालय, इंद्रप्रस्थ इंदौर स्टेडियम इंटरस्टेट बस अड्डा का नया डिपो , बिजली घर जैसी इमारतें बना दी गई। अनुमान है कि यमुना तकरीबन डेढ मील पूरब की तरफ सरक गई। यमुना की बदहाली को लेकर 1978 से 1983 तक दिल्ली विकास प्राधिकरण,बाढ सिंचाई विभाग, दिल्ली जल बोर्ड ने यमुना से प्रदूषण खत्म करने के लिए बड़ी-बड़ी स्कीमें बनाई, सर्वे किये, रिपोर्ट बनाई परंतु वह कागजी कार्रवाई तक ही मौजूद रही। वाटर टैक्सी चलाने का प्लान भी तैयार हुआ। दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने अब तक करीब दो दर्जन मास्टर प्लान बना चुका है। हर प्लान में यमुना को लेकर कई प्रावधान किए गए, परंतु हुआ वही, “ढाक के तीन पात।”
यमुना नदी में फिर आई बाढ़ से हुई तबाही से लेखिका और अनुवादक जिलियन राइट उदास हैं। वो दिल्ली की प्राण और आत्मा यमुना नदी को 1970 के दशक के आरंभ से देख रही हैं। उस समय यमुना साफ-सुथरी थी। पर इसमें दिल्ली वालों ने कूड़ा-कचरा फेंककर बर्बाद कर दिया। उनका दिन खराब हो जाता है जब वो देखती हैं कि लोग यमुना नदी में अपनी कारें रोक-रोककर लोग पूजा सामग्री के अवशेष आदि डाल रहे होते हैं। उन्हें रोकने वाला कोई भी हीं होता। वो मानती हैं कि यमुना को प्रदूषित करने का ही नतीजा है कि अब इसके आसपास विचरण करने वाली सफेद बिल्लियां भी देखने में नहीं आती। सत्तर के दशक तक तो हालात ठीक थे। उसके बाद स्थिति हाथ से निकल गईं। बता दें कि जिलियन राइट ने राही मासूम रजा और श्रीलाल शुक्ला के उपन्यासों क्रमश: ‘आधा गांव’ और ‘राग दरबारी’का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। वो ‘आधा गांव’ के माहौल और भाषा को ज्यादा करीब से समझने के लिए राही मासूम रज़ा साहब के परिवार के सदस्यों से मिलीं भीं। कई इमामबाड़ों में भी गईं और मर्सिया होते देखा। उन्हें ये सब करने से ‘आधा गांव’का अनुवाद करने में मदद मिली। उनके पसंदीदा उपन्यासों में ‘राग दरबारी’ भी है।
आपने रिंग रोड में आश्रम से आते-जाते वक्त राजधानी का तारीखी गांव किलोकरी अवश्य बाहर से देखा होगा। यहां पर खेती बंद हुए तो एक जमाना बीत गया है। कहते हैं हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया किलोकरी में रहते हुए इसके आगे से गुजरने वाली यमुना नदी को निहारते थे। वे वजू भी यमुना के जल से ही करते थे। किलोकरी के आगे से ही यमुना बहती थी। इस बीच, कहते हैं कि हज़रत क़ुतुबुद्दीन बाख्तियार काकी जब भारत आये तो महरौली से पहले वे किलोकरी में ही रुके थे। शायद इसी कारण बाद के बहुत से सूफी संत भी यहाँ आते रहे और रुके, जिनमें प्रमुख हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, शेख़ रुकनुददीन फिरदौसी और ख़्वाजा महमूद बहार प्रमुख हैं।
बहरहाल, याद रख लिया जाए कि यमुना नदी या जमुना जी के बगैर दिल्ली को कोई मतलब नहीं है। इसे पहले की तरह स्वच्छ और निर्मल तो बनाना ही होगा, वरना इसमें भी इतनी शक्ति है कि वह गंदगी फैलाने वालों को गंदगी में गोता लगाने पर मजबूर कर दे।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)