हर भाषा का अपना एक अलग मिज़ाज होता है,अपनी एक अलग प्रकृति होती है जिसे दूसरी भाषा में ढालना या फिर अनुवादित करना असंभव नहीं तो कठिन ज़रूर होता है।भाषा का यह मिज़ाज इस भाषा के बोलने वालों की सांस्कृतिक परम्पराओं,देशकाल-वातावरण,परिवेश,जीवनशैली,रुचियों,चिन्तन-प्रक्रिया आदि से निर्मित होता है।अंग्रेजी का एक शब्द है ‘स्कूटर’। चूंकि इस दुपहिये वाहन का आविष्कार हमने नहीं किया,अत: इससे जुड़ा हर शब्द जैसे: टायर,पंक्चर,सीट,हैंडल,गियर,ट्यूब आदि को अपने इसी रूप में ग्रहण करना और बोलना हमारी विवशता ही नहीं हमारी समझदारी भी कहलाएगी । इन शब्दों के बदले बुद्धिबल से तैयार किये संस्कृत के तत्सम शब्दों की झड़ी लगाना स्थिति को हास्यास्पद बनाना है।आज हर शिक्षित/अर्धशिक्षित/अशिक्षित की जुबां पर ये शब्द सध-से गये हैं। स्टेशन,सिनेमा,बल्ब,पावर,मीटर,पाइप आदि जाने और कितने सैकड़ों शब्द हैं जो अंग्रेजी भाषा के हैं मगर हम इन्हें अपनी भाषा के शब्द समझकर इस्तेमाल कर रहे हैं। समाज की सांस्कृतिक परम्पराओं का भाषा के निर्माण में महती भूमिका रहती है। हिंदी का एक शब्द लीजिए- खडाऊं।अंग्रेजी में इसे क्या कहेंगे वुडन स्लीपर जलेबी को राउंड-राउंड स्वीट सूतक को अनहोनी टाइम च्यवनप्राश को च्वन्ज़ टॉनिक आदि-आदि।कहने का तात्पर्य यह है कि हर भाषा के शब्दों की चूंकि अपनी निजी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और परम्परा होती है, अत: उन्हें दूसरी भाषा में हू-ब-हू उसी रूप में ढालने में या उसके समतुल्य शब्द तलाश करने में बड़ी दिक्कत रहती है ।अत: ऐसे शब्दों को उनके मूल रूप में स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है। टेक्निकल को तकनीकी बनाकर हमने उसे लोकप्रिय कर दिया। रिपोर्ट को रपट किया । अलेक्जेंडर सिकंदर बना। एरिस्टोटल अरस्तु हो गया और रिक्रूट रंगरूट में बदल गया। कई बार भाषाविदों का काम समाज भी करता चलता है। जैसे मोबाइल को चलित वार्ता और टेलीफोन को दूरभाष भी कहा जाता है। यों,भाषाविद् प्रयास कर रहे होंगे कि इन शब्दों के लिए कोई सटीक शब्द हिंदी में उपलब्ध हो जाए, मगर जब तक इनके लिए कोई सरल शब्द निर्मित नहीं होते हैं तब तक मोबाइल/टेलीफोन को ही गोद लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।हिंदी की तकनीकी,वैज्ञानिक और विधिक शब्दावली को समृद्ध करने के लिए यह अति आवश्यक है कि हम सरल अनुवाद की संस्कृति को प्रोत्साहित कर मूल भाषा के ग्राह्य शब्दों को भी स्वीकार करते चलें। अनुवाद एक पुल है, जो दो दिलों को, दो भाषिक संस्कृतियों को जोड़ देता है।अनुवाद के सहारे ही विदेशी या स्वदेशी भाषाओं के अनेक शब्द हिंदी में आ सकते हैं और नया संस्कार ग्रहण कर सकते हैं। कोई भाषा तभी समृद्ध होती है जब वह अन्य भाषाओं के शब्द भी ग्रहण करती चले। हिंदी भाषा में आकर अंग्रेजी,उर्दू-फारसी अथवा अन्य भाषाओं के कुछ शब्द समरस होते चले तो यह खुशी की बात है और हमें इसे स्वीकार करना चाहिए।बहुत पहले मेरे एक मित्र ने अपने पत्र के अंत में मुझे लिखा था – आशा है आप चंगे होंगे? आप आनंदपूर्वक/सानंद या सकुशल होंगे के बदले पंजाबी शब्द ‘चंगे’ का प्रयोग तब मुझे बहुत अच्छा लगा था।
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा