-बलबीर पुंज
बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक दावा किया। उन्होंने 26 जुलाई को दिल्ली स्थित ‘भारत मंडपम’ का उद्घाटन करते हुए कहा, “मैं देश को… विश्वास दिलाता हूं कि हमारे तीसरे कार्यकाल में भारत, शीर्ष तीन अर्थव्यवस्था में पहुंच कर रहेगा और ये मोदी की गारंटी है।” स्वतंत्र भारत के इतिहास में जो आजतक नहीं हुआ, क्या वह अगले कुछ वर्षों में संभव है या फिर यह दावा मात्र चुनावी जुमला है?
मई 2014 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार आई, तब भारत— विश्व की दसवीं बड़ी अर्थव्यवस्था थी। तब देश का आर्थिक आकार अर्थात् सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी)— लगभग दो ट्रिलियन डॉलर था, जो जून 2023 में बढ़कर पौने चार ट्रिलियन डॉलर हो गया। इन नौ वर्षों में भारत, दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया। यह उपलब्धि इसलिए बड़ी और सकारात्मक है, क्योंकि स्वतंत्र भारत को एक ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने में 60 वर्ष (1947-2007) लगे थे, फिर उसमें दूसरा ट्रिलियन अगले सात वर्षों (2007-14) में जुड़ा और तीसरा ट्रिलियन जोड़ने में पांच वर्ष (2014-19) का समय लगा। कोरोनाकाल (2020 से अबतक), फरवरी 2022 से जारी यूक्रेन-रूस युद्ध और यूरोपीय-अमेरिकी बाजारों में आई मंदी से विश्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के बाद भी भारत, दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। शीघ्र ही हम चार ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने के साथ अपनी जीडीपी में प्रत्येक दो-दो वर्षों में एक-एक ट्रिलियन डॉलर जोड़ने के मुहाने पर खड़े है।
प्रधानमंत्री मोदी का दावा वास्तविकता के कितने निकट है, यह प्रमाणिक संगठनों के शोधपत्रों से भी स्पष्ट हो जाता है। अमेरिकी निवेशक बैंक मॉर्गन स्टेनली के अनुसार, 2027 तक जापान और जर्मनी को पीछे छोड़कर भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का अनुमान है कि 2027 तक भारत की जीडीपी 5.4 ट्रिलियन डॉलर हो जाएगी। इससे पहले आईएमएफ ने अपनी एक रिपोर्ट में स्पष्ट किया था कि भारत में अत्याधिक निर्धनता लगभग समाप्त हो गई है। एशियाई विकास बैंक के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था 6.4 प्रतिशत, तो चीन की आर्थिकी 5 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी। इस पृष्ठभूमि में क्या भारत भावी समय में चीन का विकल्प बन सकता है?
वर्तमान समय में चीन की स्थिति क्या है? इस साम्यवादी देश के राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, जून 2023 में चीन की खुदरा बिक्री मई में 12.7 प्रतिशत की वृद्धि से गिरकर 3.1 प्रतिशत हो गई। इसी अवधि में 16-24 के आयुवर्ष वर्ग में बेरोजगारी दर बढ़कर 21.3 प्रतिशत हो गई है, जो मार्च में 19.7 प्रतिशत थी। चीनी इक्विटी बाजार इस वर्ष अन्य वैश्विक बाजारों की तुलना में खराब प्रदर्शन कर रहा है, तो जून में उसका निर्यात, बीते तीन वर्षों में सबसे कम रहा। चीन का क्रय प्रबंधक सूचकांक (पीएमआई)— जुलाई में बढ़कर 49.3 अंक हो गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि चीन की आर्थिक गतिविधियां सिकुड़ रही हैं। गैर-विनिर्माण पीएमआई जुलाई में गिरकर 51.5 रह गई, जो जून में 53.2 थी। यह घटनाक्रम चीन के सेवा-निर्माण क्षेत्र में आ रही गिरावट का प्रतीक है।
चीन की उपरोक्त स्थिति की तुलना में भारतीय अर्थव्यवस्था कोविड-19 के भयावह-काल के बाद तेजी से सुधार कर रही है। आईएमएफ ने अपनी हालिया रिपोर्ट में भारत की आर्थिक वृद्धि दर वर्ष 2023 में 6.1 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया है, जोकि अप्रैल में उनके प्राक्कलन से अधिक है। चूंकि दुनिया का सर्वाधिक आबादी वाला देश होने से भारत— श्रमबल में धनवान है, देश में प्रधानमंत्री गतिशक्ति योजना के अंतर्गत आधुनिक आधारभूत ढांचे का विकास हो रहा है, व्यवसाय करने को आसान बनाया जा रहा है और उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना के अंतर्गत सरकारी निवेश इत्यादि किया जा रहा है— इससे विश्व की कई नामचीन कंपनियां चीन छोड़कर भारत में अपनी ईकाई स्थापित करने हेतु प्रेरित हो रही है।
यह ठीक है कि वर्तमान समय में भारत की स्थिति चीन से बेहतर है। परंतु देश को अपने और चीन के बीच आए अंतर को पाटने के लिए कई मोर्चों पर एक साथ लड़ना है। फोर्ब्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1985 में भारत और चीन का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बराबर 293 डॉलर था, जो कालांतर में क्रमश: 7,130 और 19,160 डॉलर हो गया। ऐसा क्यों हुआ? इसका उत्तर भारत की वह दूषित राजनीति और देशविरोधी एजेंडा है, जिसमें राष्ट्रहित को गौण करके राजनीतिक स्वार्थ को पूरा और विदेशी-वित्तपोषण से भारत के विकास को बाधित करने की मानसिकता है।
इसका एक उदाहरण— चीन स्थित थ्री गॉर्जिज बांध और भारत स्थित सरदार सरोवर बांध है। दुनिया के सबसे बांधों में से एक थ्री गॉर्जिज बांध को पूरा करने में चीन को एक दशक से अधिक का समय लगा, वही इसकी तुलना में छोटे सरदार सरोवर बांध को पूरा करने में भारत को 56 वर्ष (1961-2017) लग गए। इसका एक बड़ा कारण वर्ष 1989-2014 के बीच भारत की वह समझौतावादी खिचड़ी गठबंधन सरकारें थी, जिसमें कुछ अपवादों को छोड़कर राष्ट्रहित गौण रहा और जोड़तोड़ की राजनीति हावी रही। इस स्थिति का लाभ ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ जैसे भारत-विरोधी आंदोलनों ने मानवाधिकार-पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उठाया और भारतीय विकास को अवरुद्ध करने का प्रयास किया। वर्ष 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कुडनकुलम परमाणु संयंत्र (तमिलनाडु) विरोधी आंदोलन पर कहा था, “इस परियोजना का विरोध करने के पीछे विदेशी वित्त सहायता पाने वाले एनजीओ का हाथ है।”
सच तो यह है कि भारत के लोग परिश्रमी है और उद्यमी कौशल के धनी है। पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के बावजूद भारतीय समाज में परिवार नामक संस्था, देश के सामाजिक ढांचे को संभाले हुए है। वास्तव में, एक स्वस्थ और स्थायी परिवार भारत की सामाजिक पूंजी है। परंतु भारत की इस विकास यात्रा में कई अवरोधक खड़े है, जिसमें परिवारवाद और विभाजनकारी राजनीति भी शामिल है। इन्हीं राजनीतिक दांवपेंचों ने दशकों तक भारतीय प्रतिभा और क्षमता को बंदी बनाए रखा। दुर्भाग्य से वही कुनबा अब अपने संकीर्ण स्वार्थ की पूर्ति हेतु देशविरोधी शक्तियों के हाथों की कठपुतलियां बन बैठा है।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।