देश के रिज़र्व बैंक अर्थात् भारतीय रिजर्व बैंक ने घरेलू वित्तीय बचत के जो आंकड़े पेश किए हैं, उन्होंने अर्थशास्त्र के विद्वानों को चौंका दिया है और इनका मध्यम अवधि की वृद्धि पर गहरा असर हो सकता है। आंकड़ों से पता चलता है कि विशुद्ध घरेलू वित्तीय बचत 2022-23 में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 5.1 प्रतिशत के बराबर ही रह गई, जो कई दशकों में इसका सबसे कम स्तर है।
पिछले वर्ष यह 7.2 प्रतिशत थी। वित्तीय बचत में ऐसी गिरावट की कई वजह हो सकती हैं। चूंकि बचत में कुल मिलाकर गिरावट हुई है इसलिए संभव है कि महामारी के दौरान जिन परिवारों की आय को झटका लगा था उनकी आय पूरी तरह पटरी पर नहीं लौट पाई हो। इससिए हो सकता है कि अर्थव्यवस्था में सुधार कंपनियों के मुनाफे की वजह से दिखा हो, जिसमें पिछली कई तिमाहियों से अच्छी बढ़त रही है।
एक और कारण यह भी हो सकता है कि निरंतर बढ़ती महंगाई के कारण परिवार बचत नहीं कर पाए हों। खुदरा मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की दर महामारी के बाद से ही ऊंचे स्तर पर रही है। रिजर्व बैंक भी 2022 में तय मुद्रास्फीतिक लक्ष्य हासिल करने में नाकाम रहा है और इस बारे में उसे केंद्र सरकार के सामने सफाई भी देनी पड़ी। मुद्रास्फीति की दर एक बार फिर केंद्रीय बैंक के तय दायरे से ऊपर है। परिवारों की वित्तीय देनदारियां भी 2022-23 में जीडीपी की 5.8 प्रतिशत हो गईं, जो 2021-22 में 3.8 प्रतिशत ही थीं।
अनुमान लगाया जा सकता है कि लोगों ने उपभोग के लिए उधारी ली हो क्योंकि उनकी आय पर्याप्त नहीं थी। यह भी संभव है कि लोगों ने घर आदि अचल संपत्ति खरीदने के लिए भी राशि व्यय की हो और उधार ली हो। ऋण उठान के आंकड़े भी यही संकेत देते हैं कि लोगों की उधार लेने की रफ्तार बढ़ी है। घरेलू कर्ज 2021-22 के 36.9 प्रतिशत से बढ़कर 2022-23 में जीडीपी के 37.6 प्रतिशत के बराबर हो गया। अगर खपत मांग को भी ऋण से सहारा मिल रहा है, जो कुछ हद तक लग भी रहा है तो घरेलू हिसाब-किताब दुरुस्त करने पर भविष्य में मांग कमजोर रहेगी।
इस कमजोर मांग का साफ़ अर्थ होगा निकट अवधि में कमजोर आर्थिक वृद्धि। उम्मीद है कि निजी निवेश में सुधार से वृद्धि को मदद मिलेगी। मगर निजी खपत में सतत वृद्धि के अभाव में कंपनियां भी शायद क्षमता विस्तार की इच्छुक न रहें। चूंकि वैश्विक मांग भी कमजोर रहने का अनुमान है, इसलिए कंपनियां नया बड़ा निवेश भी करना नहीं चाहेंगी। ऐसे में वृहद आर्थिक नजरिये से अगर निजी खपत, निवेश और निर्यात कमजोर रहे तो इसकी भरपाई सरकार को करनी होगी। पिछले कुछ समय से उच्च पूंजीगत व्यय के माध्यम से सरकार यही करती आ रही है। किंतु तमाम राजकोषीय बाधाओं को देखते हुए शायद सरकार ज्यादा लंबे समय तक ऐसा न कर पाए।
घरेलू वित्तीय बचत में कमी ब्याज दरों और निवेश को भी प्रभावित कर सकती है। यह बात ध्यान देने लायक है कि सरकारी उधारी घरेलू क्षेत्र से होने वाली वित्तीय बचत की आपूर्ति की तुलना में अधिक है। अगर कॉरपोरेट क्षेत्र निवेश के लिए अधिक ऋण लेना शुरू कर देता है तो ब्याज दरें बढ़ेंगी। कम घरेलू बचत के साथ निवेश में इजाफे का अर्थ होगा भारत को पूंजी आयात की आवश्यकता।
यदि ऐसा करना पड़ा तो अलग तरह की दिक्कतें आएंगी। ऐसे में यही प्रतीत होता है कि समग्र उत्पादन जहां महामारी के झटके से उबर आया है वहीं सुधार में उतारचढ़ाव रहा है और इसे दोबारा संतुलित करने में समय लगेगा। इसलिए यह नीतिगत चुनौती बनी हुई है कि जिस समय वैश्विक अर्थव्यवस्था में वृद्धि धीमी रहने का अनुमान है और राजकोषीय बाधाओं में बढ़ोतरी हो सकती है, उस समय आर्थिक वृद्धि कैसे हासिल की जाए।