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नवाज शरीफ की वापसी का मतलब


‘अच्छा होता हालात 2017 से अच्छे होते लेकिन पाक पीछे चलता गया है. नौबत यहां तक क्यों आयी ? हम इस काबिल हैं और बेहतर कर सकते हैं.’ दुबई एयरपोर्ट से 4 साल बाद पाकिस्तान के लिए रवाना होने से पहले नवाज शरीफ ने संवाददाताओं से यह उम्मीद भरी बात कही. वे पाकिस्तान की जेल में भ्रष्टाचार व आय से अधिक सम्पत्ति के मामलों में जो एवेन्फील्ड, अल अजीजिया जैसे निवेशों से सम्बंधित हैं, लम्बी सजा काट रहे थे. वे तीसरी बार प्रधानमंत्री बने लेकिन पनामा पेपरलीक्स मामले में 2017 में प्रधानमंत्री पद से हटाये गये. 10 साल तक कोई पब्लिक आफिस भी होल्ड करने पर प्रतिबंध था. बीमारी के इलाज के बहाने से लंदन गये फिर वहीं रह गये थे. अब वापस आ रहे हैं. सवाल है कि उन सजाओं का क्या हुआ ? तो अल अजीजिया व एवेंफील्ड मामलों में उन्हें प्रोटेक्टिव जमानत मिल गयी है. चलती हुई सजा में जिसमें अपीलों की हर गुंजाइश खारिज हो चुकी हो, अचानक सभी मामलों में जमानत मिल जाना किसी चमत्कार से कम नहीं है. ये चमत्कार पाकिस्तान में अक्सर होते हैं. इमरान की तरह तोशाखाना के दुरपयोग से सम्बंधित मामला भी नवाज शरीफ के ऊपर है. इसमें जारी गिरफ्तारी वारंट था भी स्थगित हो गया है.

उनके पाकिस्तान वापस आने की राह हमवार कर सकने की हैसियत सिवा पाकिस्तान आर्मी चीफ आसिफ मुनीर के अलावा किसी और की है ही नहीं. पाकिस्तान की न्यायपालिका के मुख्य न्यायाधीश जब तक उमर अदा बंदियाल थे, इमरान खान को वक्त पर जमानतें मिलती रही. अब जब बंदियाल के रिटायर हो जाने के बाद काजी फैज इशा मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर विराजमान हैं तो मिंया नवाज को इन गंभीर मामलों में राहतें मिल रही हैं. साफ जाहिर है कि न्याय पालिका व डीप स्टेट अर्थात् पाक आर्मी चीफ ने हाथ मिला लिया है.

पाकिस्तान की सेना के लिए वहां चुनावों को अनंतकाल तक रोक पाना संभव नहीं है. पिछला चुनाव जिस की बदौलत इमरान खान सत्ता में आए थे, उसमें पाक डीप स्टेट की बड़ी भूमिका थी. तो सेना अपने पक्षधरों के लिए यही कारगुजारी अगले चुनावों में भी कर सकती है. चुनावों के ‘प्रबंधन’ में सेना की निर्णायक भूमिका के कारण पाकिस्तान में लोकतंत्र मात्र एक औपचारिकता भर रह जाता है. वैसे भी कट्टरता की दिशा में बढ़ते जा रहे एक इस्लामिक देश होने के कारण लोकतंत्र को मजहबी अपेक्षाओं के विरुद्ध तो जाना संभव ही नहीं है. कानून के शासन का हस्र वहां ईशनिंदा कानून व हिंदू लड़कियों के नियमित अपहरण के रूप में दुनिया रोज देखती है. पाकिस्तानी सेना का दायित्व जियाउलहक के शासनकाल से ही देश की रक्षा के साथ मजहब की रक्षा करना भी हो चुका है. वे धर्मयोद्धा अर्थात् जेहादी भी हैं और उन्हें उनके स्टाफ कालेज के प्रशिक्षण में इस्लामी युद्धों के तौरतरीके बताए जाते हैं. पाकिस्तान सेना बड़े पैमाने पर धर्मयुद्ध के लिए भी प्रशिक्षित हो रही है.
सेना के साथ इमरान खान का हनीमून लम्बा नहीं चला. वे सेनाओं के सहयोग से विजयी होने के बाद अपनी असल हैसियत भूलने लगे थे. सेना से मोर्चा लेने के बाद उनकी लोकप्रियता में बढ़ोत्तरी अवश्य होती गयी है. जनलोकप्रियता का पाकिस्तानी परिदृश्य में कोई खास महत्व नहीं रहा है बल्कि यह नेता का अहंकार जरूर बढ़ा देती है जो अक्सर उनके अंत का कारण बनता है. बहरहाल, जनरल बाजवा इमरान की सरकार के साथ सम्बंधों का यह स्तर तो बनाए रखे कि उनके तीन वर्ष के सेवा विस्तार मिला. हो सकता है कि जिस तरह से न्यायिक विधि-व्यवस्थाओं को बुलडोज करते हुए नवाज शरीफ लाये जा रहे हैं उससे यह तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि आसिफ मुनीर की भी उनसे अपनी अपेक्षाएं होंगी. नवाज शरीफ सत्ता में आये तो यह उनकी चौथी इनिंग होगी.

इन नये गेमप्लान में सेना नहीं चाहती कि कोई दल, चुनावों को स्वीप कर सकने की स्थितियों में आए. इसलिए इमरान खान की लोकप्रियता को चुनौती मिलना आवश्यक है. डीप स्टेट ने आकलन किया होगा कि इमरान खान को नवाज शरीफ बराबर की टक्कर देंगे. तो इस तरह सेना नवाज शरीफ की ओर पलड़ा झुकाने में कामयाब हो सकती है. उन्हें यह एहसास भी हो जाएगा कि आप सेना की बदौलत सत्ता में आए हैं. समस्त मामले मुकदमे सजाएं तक स्थगित कर नवाज मियां को लाया जाना अकारण नहीं है. इस तरह सेना हमेशा की तरह किंगमेकर और फिर किंग के कंट्रोलर की भूमिका भी निभाती रहेगी. नवाज शरीफ मूलतः व्यवसायी चरित्र के नेता हैं. आर्थिक स्थितियों की उनकी समझ इमरान खान से कहीं बेहतर है. इमरान तो अपना अंडों और मुर्गियों का अर्थशास्त्र पाकिस्तानियों को समझाकर मजाक का पात्र बन गये थे. अब पाकिस्तान को समझ में आ रहा है कि एक बेहतर अर्थव्यवस्था के बगैर काम आगे चलना नहीं है. नवाज के मुस्लिम देशों में अच्छे सम्बंधों हैं. उनकी स्टील फैक्टरी सउदी अरब में है. डीप स्टेट को उम्मीद है कि नवाज शरीफ जब एक बार फिर सत्ता में पहुंचा दिये जाएंगे तो वे फौजी अपेक्षाओं से कदम मिला कर चलेंगे. लेकिन सब कुछ इतना आसान हो यह जरूर भी नहीं है. तहरीके तालिबान पाकिस्तान, बलोचिस्तान के लड़ाके और पाकिस्तान से दरबदर हो रही 17 लाख की पख्तून आबादी तलवार की धार पर चल रहे पाकिस्तान को धराशायी करने को पर्याप्त है.

कैप्टेन आर. विक्रम सिंह
पूर्व आईएएस

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