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लुप्त हो रहीं हैं भारतीय भाषाएँ


-विनीत नारायण
हम लोग जो ख़ुद को पढ़ा-लिखा समझते हैं कितने ही मामलों में हम कितने अनपढ़ हैं इसका एहसास तब
होता है जब हम किसी विद्वान को सुनते हैं। ऐसा ही अनुभव पिछले हफ़्ते हुआ जब बड़ौदा से आए प्रोफेसर
गणेश एन देवी का व्याख्यान सुना। प्रो देवी के व्याख्यान आजकल दुनिया के हर देश में बड़े चाव से सुने जा
रहे हैं। उनका विषय है भाषाओं की विविधता और उस पर मंडराता संकट। इस विषय पर उन्होंने दशकों
शोध किया है। भाषा, संस्कृति और जनजातीय जीवन पर वे 90 से ज़्यादा पुस्तकें लिख चुके हैं। भाषाओं पर
उनके गहरे शोध का निचोड़ यह है कि भारत सहित दुनिया भर में क्षेत्रीय भाषाएँ बहुत तेज़ी से लुप्त होती
जा रही हैं। इससे लोकतंत्र पर ख़तरा मंडरा रहा है। कारण भाषाओं की विविधता और उससे जुड़े समाज
और पर्यावरण की विविधता से लोग सशक्त होते हैं। पर जब उनकी भाषा ही छिन जाती है तो उनके
संसाधन, उनकी पहचान और उनकी लोकतांत्रिक ताक़त भी छिन जाती है। यह एक गंभीर विषय है जिसे
पाठक ध्यान देकर पढ़ें तो उन्हें हैरानी होगी।
प्रो देवी ने बताया कि भारत के पिछले सत्तर हज़ार वर्ष के इतिहास में जब-जब हमारी भाषा बदली तब-
तब भारत का नवनिर्माण हुआ। नई संस्कृति, नया धर्म, नये रीति रिवाज और नया राजनैतिक ढाँचा बनता
रहा और कुछ सदियों के बाद बिगड़ता रहा है। पुरानी कहावत है कि ‘कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस
पर वाणी’ इस कहावत का अर्थ है कि लगभग हर डेढ़ किलोमीटर पर पानी के स्वाद में बदलाव आ जाता है
और लगभग साढ़े छह किलोमीटर पर भाषा बदल जाती है। भारत का कुल क्षेत्रफल बत्तीस लाख सत्तासी
हज़ार दो सौ तिरसठ वर्ग कि. मी. है। इस हिसाब से भारत में लगभग पाँच लाख प्रकार की बोलियाँ बोली
जातीं थीं। जो 2011 के भाषाई सर्वेक्षण में घट कर लगभग 1369 ही रह गई हैं। यही हाल रहा तो हमारी
भाषाएँ घट कर 2031 तक 500, 2041 तक 200 और 2051 तक केवल 100 रह जाएँगी। इससे हमारे
जीवन पर क्या संकट आने वाला है ये आप आगे पढ़ने पर जान जाएँगे।
इन आँकड़ों से भाषाई विविधता का पता चलता है। आप अपने इर्द-गिर्द ही अगर देखें तो आप पायेंगे कि
आपके रिश्तेदार जो भिन्न-भिन्न शहरों, क़स्बों या गाँवों से आते हैं उनकी भाषा में ही समानता नहीं होती।
उदाहरण के तौर पर उत्तर भारत का लोकप्रिय व्यंजन पराँठा कितने नामों से जाना जाता है? कोई इसे
‘परौठा’ कहता है, कोई ‘परामटा’, कोई ‘परौंठी’, कोई ‘परोटा’ आदि। आप कह सकते हैं कि क्या फ़र्क़ पड़ता
है, कुछ भी कह लो। जी नहीं, प्रो देवी बताते हैं कि हर शब्द जिसका स्थानीय लोग प्रयोग करते हैं, उसका
एक सांस्कृतिक संदर्भ होता है। उसकी उत्पत्ति कैसे हुई और उसको किस संदर्भ में प्रयोग में लाया जा सकता
है। हर स्थानीय भाषा अपने परिवेश से जुड़ी होती है। मसलन उस इलाक़े के पेड़-पौधों, फूल-पत्तियों, फल-
सब्ज़ियों, नदी, नालों और पोखरों, पशु-पक्षियों, त्योहारों-पर्वों, आभूषणों, परिधानों, ऋतुओं, फसलों, देवी-
देवताओं, लोक कथाओं के समावेश से उस इलाक़े की भाषा पनपती है। जिसे केवल उस सांस्कृतिक परिवेश
में ही समझा जा सकता है। हमारे ब्रज में एक शब्द आम प्रचलन में है, ‘अर्राना’। आप इसका क्या अर्थ
समझे? इसका प्रयोग उस परिस्थिति के लिए होता हैं जब कोई व्यक्ति या तो जबरन आपके घर में प्रवेश
करे या पारस्परिक वार्ता में आप पर हावी होने की कोशिश करे।
इन स्थानीय भाषाओं के कारण उस क्षेत्र के रहने वालों की एक पहचान बनती है। जिसका उन्हें गर्व होता
है। एक सी भाषा बोलने वालों के बीच स्वाभाविक रूप से एक अघोषित संगठन होता है। जो उन्हें
राजनैतिक शक्ति प्रदान करता है। अनेक समूहों की इस भावना और इस शक्ति के कारण ही लोकतंत्र मज़बूत

होता है। कहा जाता रहा है कि भारत सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधताओं का देश है। इसलिए एक देश,
एक भाषा, एक सरकार और एक मुद्रा जैसे वैश्विक नारे जो आजकल पश्चिमी देशों के नेताओं द्वारा प्रचारित
किए जा रहे हैं, लोकतंत्र के लिए बहुत ख़तरनाक हैं। ये प्रवृत्ति भारत जैसे देशों की विविधताओं को नष्ट
करने वाली है। इस प्रवृत्ति की परिणीति तानाशाही में होती है। जब हर नागरिक अपने मूलभूत अधिकारों
को गँवा बैठता है और मानसिक ग़ुलामी का जीवन जीने को मजबूर होता है।
प्रो देवी ने बताया कि भारत के समुद्रतटीय क्षेत्रों को आजतक सभी सरकारों ने विवेकहीनता का परिचय
देते हुए व्यावसायिक उपयोग के लिए खोल दिया। नतीजा यह हुआ कि वहाँ सदियों से रहने वाले मछुआरों
की बस्तियाँ उजड़ गईं। उनकी जगह होटलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने ले ली। इस तरह इन मछुआरों
द्वारा बोली जाने वाली 200 भाषाएँ हमेशा के लिए लुप्त हो गईं। इनके साथ ही इन भाषाओं के लोक गीत
और मुहावरे भी ग़ायब हो गये। जिनमें सदियों से संचित अनुभवों का व्यावहारिक ज्ञान छिपा था। अपनी
जड़ों से उजड़ कर काम की तलाश में ये मछुआरे देश के विभिन्न अंचलों में फैल गए और अब मज़दूरी करके
पेट पाल रहे हैं।
जब उनका समुदाय ही बिखर गया तो वे अपनी भाषा में किससे बात करेंगे? अगर समुद्र तट पर रहते,
जहां का मौसम और पर्यावरण उनके जीवन का अभिन्न अंग था तो वे संगठित भी रहते। संगठित रहते तो
अपने हक़ के लिए लड़ते भी और राजनैतिक प्रक्रिया में उनकी भूमिका भी होती। पर आज वे असंगठित हो
कर न सिर्फ़ अपने जीविका के आधार को खो बैठे, बल्कि अपनी संस्कृति, अपनी पहचान, अपनी दिनचर्या,
अपना मनोरंजन और अपना राजनैतिक अधिकार भी खो बैठे। आज ये उन मछुआरों के साथ हुआ, यही
आज देश के वनवासियों के साथ भी हो रहा है और कल ये हम शहरी लोगों के साथ भी होने जा रहा है।
क्योंकि डिजिटल मीडिया की भाषा पूरी दुनिया में एक हो गई है। हमारी भी भाषा इस बाढ़ में डूब रही है।
आज भाषा गई, कल हमारी पहचान भी चली जाएगी। क्योंकि हमें विश्व नागरिक बनने का सपना दिखाया
जा रहा है। जिसके बाद हमारे लोकतांत्रिक अधिकार भी छिन जाएँगे और हम उन मछुआरों की तरह बेघर
और बेदर होकर एक रोबोट की तरह ज़िंदगी जीने को मजबूर होंगे। क्या हमें ऐसी ग़ुलामी की ज़िन्दगी
स्वीकार्य है? अगर नहीं तो हमें अपनी-अपनी भाषाओं को बचाने के लिए जागरूक होना होगा।

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