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ग्लोबल वर्मिंग : विकसित देशों का रवैया ठीक नहीं

विश्व के तमाम देश लगातार ग्लोबल वार्मिंग से मानवता पर मंडराते संकट को दूर करने के लिये संयुक्त अरब अमीरात में एकजुट हुए । दुबई में आयोजित संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के 28वें सम्मेलन से फिर पूरी दुनिया की आस जगी है। दुनिया टकटकी लगाए बैठी है कि कॉप-28 सम्मेलन से धरती को बचाने के लिये कुछ ठोस निर्णय लिए जाएंगे। बीत रहे साल में मौसम के चरम के चलते तापमान वृद्धि, अलनीनो प्रभाव से बढ़ता समुद्री तापमान, अंटार्कटिका में तेजी से बर्फ के पिघलने, बाढ़, अतिवृष्टि, अनावृष्टि और चक्रवातों के जो भयावह परिणाम सामने आए, वो बता रहे हैं कि यदि अब निर्णायक फैसले न हुए तो धरती को बचाना मुश्किल हो जाएगा।

अब तक के तमाम पर्यावरण सम्मेलनों में वायदे तो बड़े-बड़े हुए हैं लेकिन ठोस काम इस दिशा में नहीं हो पाया है। खासकर विकसित देशों के अड़ियल रवैये से इस दिशा में आशाजनक प्रगति नहीं हो पायी है। जबकि मौजूदा हालात में विकसित देशों से न केवल कार्बन उत्सर्जन कम करने की उम्मीद है, बल्कि हरित ऊर्जा में निवेश बढ़ाने की भी दरकार है। वह भी ऐसे वक्त में जब ग्लोबल वार्मिंग हर देश के दरवाजे पर दस्तक दे चुकी है। दुर्भाग्य की बात यह कि पेरिस समझौते में औद्योगिक क्रांति से पूर्व स्थिति के अनुरूप जिस तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की बात हुई थी, उस लक्ष्य को अब तक नहीं पाया जा सका है। धरती का ताप अनुकूलक माने जाने वाले अंटार्कटिका की बर्फ तेजी से पिघलना हमारी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। यही वजह है कि बीत रहे साल में मौसम के चरम की तमाम घटनाएं दृष्टिगोचर हो रही हैं। ऐसे में दुनिया के पर्यावरण संरक्षण से जुड़े तमाम संगठन व आम लोग उम्मीद कर रहे हैं कि कॉप-28 में कुछ बदलावकारी फैसले लिये जाएं।

हक़ीक़त में यह वक्त अब तक के तमाम सम्मेलनों में लिये गए फैसलों पर पुनर्विचार का भी है। यह विचार मंथन का अवसर है कि पिछले साल मिस्र में हुए सम्मेलन के निष्कर्ष कहां तक अमल में लाये जा सके हैं। दुखद ही है कि दुनिया के तमाम संपन्न देश संकीर्ण स्वार्थों में उलझे हुए हैं जबकि धरती के अस्तित्व पर गंभीर संकट मंडरा रहा है। यह वक्त नेट जीरो के लक्ष्य हासिल करने के लिये ईमानदार पहल करने का भी है। सवाल यह भी कि धनी देश हरित ऊर्जा में कितना निवेश करते हैं। यह भी कि धनी देश विकासशील देशों द्वारा अपने आर्थिक विकास की कीमत पर नेट जीरो के लक्ष्य हासिल करने में कितनी मदद करते हैं।

उन औद्योगिक इकाइयों का नियमन भी जरूरी है जो भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाते हैं। यदि हमें आने वाली पीढ़ियों का भविष्य संरक्षित करना है तो आर्थिक विकास की गति धीमी करने से भी गुरेज नहीं करना चाहिए। भारत ने हमेशा जलवायु प्रतिबद्धताओं को लागू करने में ईमानदार पहल की है। भारत ने ग्लासगो में हुए कॉप-26 सम्मेलन में वर्ष 2070 तक शू्न्य उत्सर्जन के लक्ष्य पाने की घोषणा की थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तब अपनी पंचामृत रणनीति का खुलासा किया था। जिसमें उन्होंने 2070 तक शून्य उत्सर्जन के अलावा वर्ष 2030 तक ऊर्जा क्षमता में गैर जीवाश्म ईंधन की हिस्सेदारी को पचास फीसदी तक बढ़ाने का वायदा किया है। इसके अलावा वर्ष 2030 तक वार्षिक नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता को 500 गीगावॉट तक बढ़ाना तथा कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन तक कमी लाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। निश्चित रूप से ये लक्ष्य जलवायु संरक्षण को लेकर भारत की प्रतिबद्धता को ही दर्शाते हैं।

ऐसे में धनी देशों को उन देशों की मदद के लिये आगे आना होगा जो वैश्विक पर्यावरण को बचाने के लिये अपने आर्थिक हितों से समझौता कर रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि आज दुनिया में जो पर्यावरणीय संकट मंडरा रहा है उसके मूल में विकसित देशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की निर्मम लूट भी शामिल है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कॉप-28 में धरती को बचाने के लिये ठोस निर्णय लिये जाएंगे।

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