Shadow

भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के बारे में आईएमएफ की चिंता उचित नहीं

भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के बारे में आईएमएफ की चिंता उचित नहीं

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के सम्बंध में चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि भारत का ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात वर्ष 2028 तक यदि 100 प्रतिशत के स्तर को पार कर जाता है तो सम्भव है कि भारत की विकास दर पर इसका विपरीत प्रभाव होने लगे। हालांकि भारत का ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात वर्ष 2020 में 88.53 प्रतिशत तक पहुंच गया था, क्योंकि पूरे विश्व में ही कोरोना महामारी के चलते आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई थी। परंतु, इसके बाद के वर्षों में भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात में लगातार सुधार दृष्टिगोचर है और यह वर्ष 2021 में 83.75 प्रतिशत एवं वर्ष 2022 में 81.02 प्रतिशत के स्तर पर नीचे आ गया है। साथ ही, भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के वर्ष 2028 में 80.5 प्रतिशत के निचले स्तर पर आने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। यदि अन्य देशों के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात की तुलना भारत के ऋण सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के साथ की जाय तो इसमें भारत की स्थिति बहुत सुदृढ़ दिखाई दे रही है। पूरे विश्व में सबसे अधिक ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात जापान में है और यह 255 प्रतिशत के स्तर को पार कर गया है। इसी प्रकार यह अनुपात सिंगापुर में 168 प्रतिशत है, इटली में 144 प्रतिशत, अमेरिका में 123 प्रतिशत, फ्रान्स में 110 प्रतिशत, कनाडा में 106 प्रतिशत, ब्रिटेन में 104 प्रतिशत एवं चीन में भी भारी भरकम 250 प्रतिशत के स्तर के आसपास बताया जा रहा है। अर्थात, विश्व के लगभग समस्त विकसित देशों में ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात 100 प्रतिशत के ऊपर ही है। भारत में इस अनुपात का 81 प्रतिशत के आसपास रहना संतोष का विषय माना जा सकता है।

वैसे, जैसे जैसे किसी भी देश का आर्थिक विकास जब तेज गति से होने लगता है तो उस देश में, उत्पादों का निर्माण बढ़ाने के उद्देश्य से, अधिक पूंजी की आवश्यकता पड़ती है। जब देश में बचत की दर उच्च स्तर पर नहीं हो तो उस देश में ऋण के द्वारा ही पूंजी की आपूर्ति सुनिश्चित की जाती है। इस प्रकार आर्थिक विकास के साथ साथ ऋण: सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात भी बढ़ता चला जाता है। यहां यह बात भी ध्यान रखने लायक है कि यदि ऋण का उपयोग उत्पादक कार्यों के लिए किया जाता है एवं इस ऋण से यदि पर्याप्त मात्रा में आय अर्जित की जा रही है तो ऋण के उच्च स्तर पर होने के बावजूद भी इसे बुरा नहीं माना जा सकता है क्योंकि कोई भी देश यदि ऋण की राशि से ऋण पर अदा किये जाने वाल ब्याज एवं किश्त की राशि से अधिक आय का अर्जन करने में सक्षम है तो ऋण के किसी भी स्तर को बुरा नहीं माना जा सकता है। परंतु, यदि ऋण का उपयोग अनुत्पादक कार्यों जैसे नागरिकों को मुफ्त की सुविधाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से किया जाता है तो निश्चित ही इस प्रकार के ऋण पर आय का अर्जन सम्भव नहीं होगा अतः वह देश ऋण के जाल में फंसता चला जाएगा। भारत में केंद्र सरकार एवं कुछ राज्य सरकारों द्वारा लिए जा रहे ऋण की राशि का उपयोग उत्पादक कार्यों जैसे आधारभूत ढांचा विकसित करने के उद्देश्य से किया जा रहा है, इन गतिविधियों से केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों के लिए आय के नए स्त्रोत विकसित हो रहे हैं। वर्ष 2023-24 के बजट में केंद्र सरकार ने 10 लाख करोड़ रुपए की राशि को पूंजीगत मद पर व्यय करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इसी प्रकार वर्ष 2022-23 में भी 7.50 लाख करोड़ रुपए की राशि इस मद पर व्यय की गई थी।

भारत आज दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है और भारत की अर्थव्यवस्था विश्व में सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बन गई है। वैश्विक स्तर के विभिन्न वित्तीय संस्थानों द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रतिवर्ष 7 प्रतिशत के आसपास विकास करने की भरपूर सम्भावनाएं व्यक्त की जा रही है, यह विकास दर विश्व के सकल घरेलू उत्पाद में होने वाली वृद्धि दर की तुलना में लगभग दुगुनी है। भारत का लगभग आधा कार्यबल कृषि क्षेत्र में कार्यरत है जिसकी औसत आय तुलनात्मक रूप से कम है और इस कार्यबल की आय में वृद्धि किया जाना आज मुख्य लक्ष्य है। परंतु, सेवा क्षेत्र एवं उद्योग क्षेत्र में कार्यरत कार्यबल की आय में तुलनतमक रूप से वृद्धि दर काफी अच्छी है जिसके चलते इस वर्ग की आय कर एवं अन्य करों में भागीदारी लगातार बढ़ रही है जिसके कारण केंद्र सरकार की आय में अतुलनीय वृद्धि हो रही है एवं आज केंद्र सरकार के बजट में वित्तीय संतुलन स्थापित होता दिखाई दे रहा है तथा बजटीय घाटा की राशि में भी लगातार कमी आ रही है। बजटीय घाटा के कमी के चलते केंद्र एवं राज्य सरकारों की ऋण की आवश्यकता भी कम हो रही है।

भारत में हाल ही के वर्षों में वित्तीय क्षेत्र में सुधार कार्यक्रम भी लागू किए गए हैं। वस्तु एवं सेवा कर पद्धति के लागू किए जाने के बाद से तो देश में कर संग्रहण में भारी वृद्धि दर्ज की गई है। आज केंद्र सरकार द्वारा केवल वस्तु एवं सेवा कर के माध्यम से ही प्रति माह औसतन 1.60 लाख करोड़ रुपए की राशि का कर संग्रहण किया जा रहा है, जो पूरे वर्ष में 20 लाख करोड़ रुपए के आंकड़े को छू सकता है। वहीं दूसरी ओर प्रत्यक्ष कर संग्रहण में भी 25 प्रतिशत के आसपास वृद्धि दर अर्जित की जा रही है। कर क्षेत्र में अनुपालन की स्थिति में लगातार हो रहे सुधार के चलते वित्तीय संतुलन में भी सुधार दिखाई देने लगा है। जिसके चलते आगे आने वाले समय में केंद्र सरकार एवं कुछ राज्य सरकारों का बजटीय घाटा और अधिक कम होने लगेगा जिसके कारण इन विभिन्न सरकारों को ऋण लेने की आवश्यकता भी कम होगी।

दूसरे, आगे आने वाले समय में कृषि क्षेत्र पर निर्भर कार्यबल भी सेवा क्षेत्र एवं उद्योग क्षेत्र की ओर आकर्षित होगा एवं इन क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर प्राप्त करेगा इससे उनकी आय में भी भारी वृद्धि होगी एवं यह वर्ग भी देश के कर संग्रहण में अपना योगदान देना प्रारम्भ करेगा। साथ ही, कृषि क्षेत्र में भी लगातार सुधार कार्यक्रम लागू किए जा रहे हैं, इसके चलते कृषि क्षेत्र में कार्यरत नागरिकों की आय में भी वृद्धि हो रही है एवं उनके जीवन स्तर में लगातार सुधार हो रहा है एवं इस वर्ग की आय भी बढ़ेगी। इस प्रकार, कर अनुपालन के साथ केंद्र एवं राज्य सरकारों की आय में और अधिक वृद्धि दृष्टिगोचर होगी, जिससे इनकी ऋण की आवश्यकता भी और अधिक कम होगी। अतः अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की भारत के ऋण: सकल घरेलू उत्पाद अनुपात के सम्बंध में व्यक्त की गई चिंता केवल एक संभावनात्मक पहलू की ओर संकेत है यह चिंता वास्तविक धरातल से कहीं दूर दिखाई देती है।

प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *