शुरू से ही पूरब और पश्चिम में अर्थव्यवस्था को लेकर श्रेष्ठता का और वर्चस्व का संघर्ष रहा है जो आज तक कायम है। जहां भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार प्रकृति आधारित रहा वहीं पश्चिम की अर्थव्यवस्था का आधार मशीनीकृत विकास रहा। प्रकृति का अर्थ था प्रकृति में उपस्थित हर जीव को अर्थव्यवस्था में उपयुक्त स्थान देना, फिर चाहे वह पशु हो या कीट।
भारत में प्राचीन काल से ही कृषि एवं व्यापार दोनों की समान प्रमाण प्राप्त हुए हैं। यदि कहा जाए कि व्यापार ही किसी भी सभ्यता के जीवन का आधार है। व्यापार के लिए एक माध्यम की आवश्यकता होती है, व्यापार के लिए विनिमय की आवश्यकता होती है। प्राचीन समय में यदि हम देखें तो गौ आधारित तमाम तरह के व्यवसाय दिखते हैं और भारत में गाय के माध्यम से एक करुणा और संवेदना का भी विस्तार होता रहा है। जब तक गौ के प्रति समाज सहिष्णु रहा तब तक एक दूसरे के प्रति भी सहिष्णुता रही, धैर्य रहा, प्रेम रहा तथा अर्थव्यवस्था भी उन्नत रही। प्राचीन काल से ही भारतीय अर्थव्यवस्था इतनी उन्नत रही थी कि विदेशों के साथ इसके पारस्परिक व्यापारिक संबंध थे। यदि व्यापार था, तो कोई माध्यम रहा होगा, मुद्रा के अविष्कार से पूर्व जब वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी, तब गौ का विनिमय सबसे महत्वपूर्ण माना जाता था। चूंकि गाय ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो प्रकृति से सबसे कम लेता है और वह हर रूप में उपयोगी है, जैसे गाय से घी, दूध, मक्खन, म_ा, गाय से खेतों के लिए बैल, गाय बैल से खेतों के लिए खाद, परिवहन के लिए बैलगाड़ी, चमड़े के लिए मृत गाय बैल और गाय बैल के लिए प्रकृति से केवल भूसे की आवश्यकता होती है।
वैदिक काल से आगे बढ़ कर यदि विश्व की सर्वाधिक उन्नत शहरी सभ्यताओं में से एक हड़प्पा संस्कृति के विनाश के कारणों पर कुछ विद्वानों का यह भी कहना है कि शायद इतनी उन्नत सभ्यता, अंधाधुंध शहरीकरण का बोझ नहीं उठा सकी होगी। उन्होंने भवन बना लिए, बाँध बना लिए, मगर कहीं न कहीं प्रकृति से खिलवाड़ ही रहा होगा जिसने इतनी उन्नत सभ्यता को विनाश का मुख दिखलाया।
हड़प्पा सभ्यता के विनाश के उपरान्त आने वाली सभी सभ्यताओं ने इस उन्नत सभ्यता के इस महाविनाश से सबक लेते हुए प्रकृति के साथ तालमेल बैठाते हुए अर्थव्यवस्था का विकास किया। और इस अर्थव्यवस्था में गाय का स्थान मुख्य था। उन्होंने वेदों से गाय के संरक्षण और महत्ता को अंगीकार किया और प्रकृति के साथ समागम करते हुए अर्थव्यवस्था का निर्माण किया। मौर्य काल हो, गुप्त काल हो या राजपूताना युग हो, गाय की महत्ता वही रही जो वेदों में थी। और यह मिथ्या दुष्प्रचार कि भारत कृषि प्रधान देश रहा है, वह अंग्रेजों की देन है। अपनी अर्थव्यवस्था को पूरे विश्व में सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए और मशीन आधारित बनाने के लिए इस दुष्प्रचार को स्थापित करना आरम्भ किया कि केवल मशीनीकृत विकास ही वैज्ञानिक विकास है। और भारत के प्रकृति आधारित विज्ञान को वैचारिक स्तर पर झुठलाना आरम्भ किया। भारत यदि भारत केवल कृषि प्रधान देश था तो भारत के मसालों की सुगंध या ढाका के मलमल की कोमलता की प्रशंसा किस प्रकार सात समंदर पार पहुँची। भारत में कृषि व्यवस्था बहुत ही उन्नत थी जिसमें न केवल अपनी आवश्यकता के लिए अन्न उपजाना ध्येय था बल्कि वे कृषि आधारित अर्थव्यवस्था का निर्माण कर चुके थे। जब अंग्रेज व्यापार करने के लिए यहाँ आए, तो पूरे विश्व को अपना उपनिवेश बनाने की चाह लिए अंग्रेज यहाँ कथित काले लोगों की एकता को तोडऩे में नाकाम रहे। अंग्रेजों का शासन भी व्यापार और संस्कृति पर कुछ खास प्रभाव नहीं डाल पाया व व्यापारी अपने क्षेत्रों में अभिनव प्रयोगों से भारतीय व्यापार को आगे बढ़ा रहे थे। विश्व स्तर पर डॉलर अपना खेल नहीं खेल पा रहा था। जबकि व्यापारिक मानसिकता वाले अंग्रेज हर कीमत पर अपना अधिकार चाहते थे। उन्होंने शिक्षा और संस्कृति पर सबसे पहले प्रहार करना आरम्भ किया। उन्हें ऐसे लोगों की आवश्यकता थी, जो शरीर से तो भारतीय हों परन्तु मस्तिष्क से एकदम अंग्रेज। ऐसे में उन्होंने सबसे पहले सोच पर प्रहार करते हुए भारतीयों को उनकी संस्कृति से दूर किया। उन्होंने वेदों को ग्वालों के गीत कहा और जिन वेदों ने गाय के लाभों के आधार पर गोधन बताया था, उस गाय को उन्होंने यह कहकर प्रचारित किया कि चूंकि अतिथियों के आने पर गाय और बैल के मांस को खिलाया जाता था, इसलिए उसे गोधन कहा गया।
जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था हमेशा ही कृषि आधारित व्यवसाय की रही है। जिसने प्रकृति के साथ तालमेल संग अपने क़दमों को बढ़ाया है। भारत जैसे देश में प्रकृति के साथ तालमेल करते हुए व्यापार का आरम्भ हुआ। भारतीय अर्थव्यवस्था के इस मेरुदंड को तोडऩे के लिए जब वैचारिक कदम उठाए गए और गाय को अर्थव्यवस्था का मेरुदंड न मानते हुए मात्र एक पशु की संज्ञा दी गयी वैसे ही भारतीय मेधा विभिन्न क्षेत्रों में पिछड़ती गयी। षड्यंत्रों का एक ऐसा चक्र बुना गया जिससे पूरा भारतीय समाज भ्रमित हो गया और पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव के कारण गाय को माता के स्थान पर पशु मानने का ही चलन बढ़ गया। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आधार होने के कारण गौ वध को क्षमायोग्य नहीं माना गया है और इसके लिए तमाम तरह के दंडों का प्रावधान था। किंतु कालांतर में इसके कर्मकांडों में परिवर्तित हो गया, और जिसके कारण दुष्प्रचार को बल मिलता रहा।
समय के साथ इस आर्थिक कुचक्र को पहचान कर कुछ संगठनों ने कार्य करना आरम्भ किया है और गौ आधारित उत्पादों को बाज़ार का अंग बनाना आरम्भ किया है जिसमें पतंजली एवं श्री श्री रविशंकर के उत्पादों को रखा जा सकता है। जब तक गाय को एक पशु मात्र के रूप में देखा जाता रहेगा प्रश्न रहेंगे परन्तु जब उसे बाज़ार के आधार के रूप में देखा जाएगा तब उसका महत्व समझ में आएगा और भारत के विश्व गुरु बनने के लिए आवश्यक है गौ और ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था का विकास करना। ञ्चयोंकि मशीनों द्वारा संचालित डॉलर की अर्थव्यवस्था रोबोट पर समाप्त होती है तो गौ आधारित सर्वजन कल्याण मंं।
गौवंश राजनीति का अखाड़ा क्यों बना डाला ?
गाय के धार्मिक पक्ष के ऊपर व्यापारिक पक्ष हावी हो रहा है। जहां व्यापार होता है वहाँ गुंडा तत्व का आना लाज़मी होता है। यह गुंडा तत्व किसी भी धर्म से जुड़े हो सकते हैं जिनका काम संरक्षण नहीं व्यापारिक भक्षण ज़्यादा होता है। गाय से संबन्धित विभिन्न पक्षों पर अमित त्यागी ने मुस्लिम जानकार, वैज्ञानिक एवं गौ संरक्षण से जुड़े देश के प्रतिष्ठित लोगों से एक परिचर्चा की जिसमे सबसे महत्वपूर्ण बात यह उभर कर आयी कि अगर हम गौ संवर्धन पर ध्यान दे पाये तो गौसंरक्षण खुद ब खुद हो जायेगा। इस पूरे विषय पर विशेष संवाददाता अमित त्यागी का एक आलेख।
य एक पूजनीय पशु है इसके पीछे सिर्फ धार्मिक आस्था नहीं है। इसके पीछे कई वैज्ञानिक कारण निहित हैं। गाय के गोबर एवं गौमूत्र में असंख्यक जीवाणु होते हैं जो मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। कृषि के संदर्भ में यह जीवाणु खेती को पल्लवित करने वाले कारक हैं। विशेषज्ञों के अनुसार गाय के दूध में उपस्थित तत्व अन्य दूध की अपेक्षा ज़्यादा पौष्टिकता एवं ताजगी प्रदान करते हैं इसलिए गाय को माता का दर्जा दे दिया गया। सिर्फ हिन्दू धर्म में ही गाय पूजनीय हो ऐसा नहीं है, मुस्लिम धर्म के जानकारों के अनुसार हदीस में भी गाय के दूध को शिफा एवं गोश्त को नुकसानदेह बताया गया है। इसका अर्थ साफ है कि गाय को धर्म से जोड़कर इसकी आड़ में कारोबार करने वालों के निहित स्वार्थ गौ संरक्षण को चिढ़ाते रहते हैं। गाय को पूजनीय पशु से राजनैतिक पशु बनाने में जिस जिसने अपनी पशुता का परिचय दिया है उनके चेहरे छुपे रहे हैं। गाय की आड़ लेकर व्यापारिक हित ज़्यादा साधे जाते रहे हैं। कुछ लोगों ने गाय के गोश्त से खुद को मालामाल किया तो कुछ ने गाय के समर्थन में खड़े होकर अपने गैर कानूनी कामों को इसकी आड़ में छुपा लिया। खुद को गौभक्त कहने वाले इन असामाजिक तत्वों के द्वारा वास्तविक गौसेवक बदनाम हुये जो बिना किसी स्वार्थ के दिन रात गौ सेवा में लगे रहे हैं। 6 अगस्त 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि 70-80 प्रतिशत गौरक्षक फर्जी होते हैं। यह एक बड़ा बयान था। कुछ लोगों ने प्रधानमंत्री के इस बयान को हिन्दू विरोधी बयान माना था। कुछ विशेषज्ञों ने इसके द्वारा ऐसा जताने की कोशिश की थी जैसे प्रधानमंत्री हिन्दुओं के खिलाफ हैं। पर प्रधानमंत्री की शायद यही खूबी उनको अन्य से अलग करती है कि उनके बयान न्यायप्रिय होते हैं। सटीक समय पर आते हैं। वह चापलूस वर्ग को खुश करने के लिए जनमानस को नाराज़ नहीं करते हैं।
यदि वर्तमान समय के अनुसार देखें तो गाय को बचाने के लिए उन कथित गौ भक्तों की कतई आवश्यकता नहीं है जो गुंडागर्दी करते हैं। उन दाढ़ी वाले धर्म गुरुओ की भी आवश्यकता नहीं है जो इन गुंडों को गौ भक्त दिखाते हुये अपनी राजनीति चमकाते हैं। गाय पर राजनीति होने के कारण ही प्रधानमंत्री को इतना बड़ा बयान देना पड़ा था। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी गौ हत्या पर राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध लगाए जाने की मांग की है। उनका कहना है कि हम गायों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारी इच्छा है कि संपूर्ण भारतवर्ष में गौवंश की हत्या बंद हो। इस कानून को प्रभावी बनाना सरकार की जिम्मेदारी है। जिन राज्य सरकारों में समर्पित स्वयंसेवक हैं, उन राज्य सरकारों ने इसके लिए कानून बनाए हैं। लेकिन हम चाहते हैं कि यह कानून पूरे देश के लिए बने। गौ हत्या के नाम पर किसी भी प्रकार की हिंसा से इस अभियान पर बुरा असर पड़ता है। लेकिन उन्होंने साथ ही कहा कि गायों की रक्षा का प्रयास करने वालों को अपना प्रयास जारी रखना चाहिये। संघ प्रमुख के केन्द्रीय कानून बनाने की मांग के पीछे की वजह वाजिब है।
अगर आस्था से जुड़ा प्रश्न है तो कुछ राज्यों में छूट क्यों ?
गौ-हत्या पर कोई केंद्रीय क़ानून नहीं है। अलग राज्यों में अलग-अलग स्तर की रोक दशकों से लागू है। भारत के 29 में से 10 राज्य ऐसे हैं जहां गाय, बछड़ा, बैल, सांड और भैंस को काटने और उनका गोश्त खाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। 18 राज्यों में गौ-हत्या पर पूरी या आंशिक रोक है। भारत की 80 प्रतिशत से ज़्यादा आबादी हिंदू है फिर भी ‘बीफ़Ó का सबसे ज़्यादा निर्यात करने वाले देशों में से भारत एक क्यों है ? इसकी बड़ी वजह है कि ‘बीफ़Ó, बकरे, मुर्ग़े और मछली के गोश्त से सस्ता होता है। यह मुस्लिम, ईसाई, दलित और आदिवासी जनजातियों के गऱीब तबक़ों में रोज़ के भोजन का हिस्सा है। भारत के ग्यारह राज्यों कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महराष्ट्र, छत्तीसगढ़, और दो केन्द्शासित राज्यों दिल्ली, चंडीगढ़ में पूर्ण प्रतिबंध है। आठ राज्यों जिनमे बिहार, झारखंड, उड़ीसा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा और चार केंद्र शासित राज्यों – दमन और दीव, दादर और नगर हवेली, पांडिचेरी, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह ऐसे प्रदेश हैं जहां आंशिक प्रतिबंध लागू है। आंशिक प्रतिबंध का अर्थ है कि गाय और बछड़े की हत्या पर तो प्रतिबंध है लेकिन बैल, सांड और भैंस को काटने और खाने की इजाज़त है।
इन सबके बीच में एक प्रश्न और उठता है कि जहां पाबंदी है वहाँ क्यों गौवंश सुरक्षित नहीं है। वास्तव में जहां गौहत्या पर पाबंदी है वहाँ उसका पालन कड़ाई से नहीं होता है। मुनाफे के इस खेल में कानून और उसका पालन करवाने वाले पैसों की चमक की चकाचौंध में खो जाते हैं जिसकी वजह से गौहत्याएँ नहीं रुकती हैं। यदि सज़ा की बात करें तो हरियाणा में एक लाख रुपए का जुर्माना और 10 साल की जेल की सज़ा का प्रावधान है। महाराष्ट्र में गौ-हत्या पर 10,000 रुपए का जुर्माना और पांच साल की जेल की सज़ा है। न तो यह तो सज़ा कम है न ही कानून कमजोर है। कहीं न कहीं मुनाफे के इस खेल में इच्छा शक्ति कमजोर है।
गौवंश का संरक्षण नहीं संवर्धन है समस्या का हल
हम लोग चर्चाओं में गौ संरक्षण की बात करते हैं। गौ संरक्षण तो समस्या का उपचार प्रदान कर रहा है। क्यों न हम ऐसा ढांचा विकसित कर लें जिसमे गाय हमारी जीवन शैली का हिस्सा बन जाये। ठीक वैसे ही जैसे भारत की संस्कृति में आदिकाल से चलता रहा है। गाय की उपयोगिता के आधार पर एक बिजऩस मॉडल बने और लोग खुद ब खुद गौ संरक्षण को मजबूर हो जाये। इसके लिए हमें खेती से गाय को जोडऩा होगा। गौ आधारित ज़ीरो बजट कृषि पर लौटना होगा। पदमश्री सुभाष पालेकर इस पद्वति के द्वारा वृद्ध और कमजोर गायों को भी उपयोगी बना देते हैं। रसायन के इस्तेमाल को बंद करके हमारे स्वास्थ्य को बचा देते हैं। इस कृषि की तरफ बढ्ने से गौ संवर्धन होता है और लोग भैंस की जगह गाय का दूध पीने लगते हैं। वैदिक काल में तो गायों की संख्या व्यक्ति की समृद्धि का मानक हुआ करती थी। बच्चों को विशेष तौर पर गाय का दूध पिलाने की सलाह दी जाती है। भैंस का दूध जहां सुस्ती लाता है, वहीं गाय का दूध बच्चों में चंचलता बनाए रखता है। गाय का बछड़ा अपनी मां का दूध पीने के तुरंत बाद उछल-कूद करता है। एक ओर घी और गोमूत्र के द्वारा आयुर्वेदिक औषधियां बनती है तो गोबर द्वारा फसलों के लिए उत्तम खाद। तो फिर गौ माता का सिर्फ संरक्षण क्यों, संवर्धन क्यों नहीं?
केमिकल और फर्टिलाइजर ने चौपट किया गौवंश
भारत में जब हरित क्रांति की शुरुआत हुयी थी उस समय रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग के द्वारा उत्पादन बढ़ाना समय की मांग थी। भारत में भुखमरी की समस्या को दूर करने में हरित क्रान्ति का योगदान भी रहा। कुछ समय के बाद इस बात का आभास होने लगा कि जिन रसायनों को हम लाभकारी मान रहे हैं वह तो ज़मीन की उर्वरा शक्ति को बांझ बना रहे हैं। इसके बाद कृषि का मशीनीकरण प्रारम्भ हुआ। बैल से खेत जोतने के स्थान पर ट्रैक्टर से खेतों की जुताई प्रारम्भ हो गयी। लोगों ने बैल रखने बंद कर दिये। बैल कम होने का प्रभाव गायों के पालन पर पड़ा। दुग्ध उत्पादन में गाय का स्थान भैंस ने ले लिया।
यदि इतिहास को देखा जाये तो गाय, गंगा और गाँव भारतीय सभ्यता का आधार रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में गौ आधारित पशुपालन का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि एवं पशुपालन पर निर्भर है। किसानों के पास कुल कृषि भूमि की 30 प्रतिशत है। इसमें 70 प्रतिशत कृषक पशुपालन व्यवसाय से जुड़े है जिनके पास कुल पशुधन का 80 प्रतिशत भाग मौजूद है। देश का अधिकांश पशुधन, आर्थिक रूप से निर्बल वर्ग के पास है। भारत में लगभग 22 करोड़ गाय, 10 करोड़ भैंस, 14.55 करोड़ बकरी, 8.2 करोड़ भेड़, 2 करोड़ सूअर तथा 68.96 करोड़ मुर्गी का पालन होता है। भारत 121.8 मिलियन टन दुग्धउत्पादन के साथ विश्व में प्रथम, अण्डा उत्पादन में 53200 करोड़ के साथ विश्व में तृतीय तथा मांस उत्पादन में सातवें स्थान पर है। यही कारण है कि कृषि क्षेत्र में जहाँ हम मात्र 1-2 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त कर रहे हैं वहीं पशुपालन से 4-5 प्रतिशत। इसका अर्थ साफ है कि भारत को कृषि प्रधान देश कह कर संबोधित तो किया गया वास्तव में भारत पशुपालन प्रधान देश रहा है। पशुपालन में गौवंश का बराबर का योगदान रहा। भारत को पशुपालन और कृषि से दूर करके औद्योगीकरण के रास्ते पर लाने की अन्तराष्ट्रीय साजिश ने इसको हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई बना दिया। पहले यह काम अंग्रेजों ने किया, बाद में रासायनिक खाद बेचने वालों ने। इन सबके बीच बीफ का निर्यात करने वालों की चाँदी हो गयी। निर्यातकों ने अपने नाम मुस्लिम नामों पर रखे ताकि हिन्दू समाज दिग्भ्रमित बना रहे। गौवंश का राजनीतिकरण न सिर्फ हिन्दू और मुसलमानों में विवाद पैदा करने की अन्तराष्ट्रिय साजिश है बल्कि भारत की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को चौपट करना भी इसका एक उद्देश्य रहा है।
सरकार की नीतियों की विफलता भी है एक वजह
आज़ादी के सत्तर साल बाद तक भी हमारी सरकारें ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा एवं रोजगार जैसे मूलभूत अधिकारों को अभी तक उपलब्ध नहीं करा पायी हैं। भारत को कृषि प्रधान तो कहा गया किन्तु किसान का हाल बदतर रहा। उसके मूलभूत अधिकारों से दूर रहने के कारण इस वर्ग का ध्यान कृषि क्षेत्र से हटा। किसान आत्महत्याएँ करने लगे। रसायनो ने जल स्तर नीचे कर दिया। औद्योगीकरण ने ग्लोबल वार्मिंग कर दी तो वर्षा चक्र अनियमित हो गया। कुल मिलकर जैसे ही हमने गाय को छोड़ा, प्रकृति ने हमारा साथ छोड़ दिया। गाँव का किसान लाचार हो गया। सरकार ने कृषि को प्रोत्साहन कम मुआवजा ज़्यादा दिया। किसान शहरों की तरफ रोजगार की तलाश में पलायन कर गया। इसके द्वारा धीरे धीरे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों का संतुलन चरमराने लगा। अमेरिका एवं पश्चिम यूरोप के देशों में शहरी जनसंख्या अब गाँव का रुख कर रही है वहीं भारत मे इसका उल्टा हो रहा है। ग्लोबल मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फ़र्म ÓमेकंजीÓ की रिपोर्ट के अनुसार 2015 से 2025 के बीच के दशक में विकसित देशों के 18प्रतिशत बड़े शहरों में आबादी प्रतिवर्ष 0.5 प्रतिशत की दर से कम होने जा रही है। पूरी दुनिया में 8प्रतिशत शहरों में प्रतिवर्ष 1-1.5 प्रतिशत शहरी जनसख्या कम होने का रुझान होना संभावित है। भारत की ज़्यादातर आबादी ग्रामीण क्षेत्र में निवास करती थी किन्तु कृषि व्यवस्था चौपट होने के कारण ग्रामीण जनसंख्या का पलायन शहरों की तरफ हुआ। शहरीकरण में गौवंश पालना कम हो गया। भारत में गाँव से शहर की तरफ पलायन निरंतर बढ़ते क्रम में दिखता है। यदि पिछले 70 सालों की जनसंख्या औसत की तुलना करें तो 1951 में शहरों में रहने वाली जनसंख्या 17.3 प्रतिशत थी। 2011 में यह औसत 31.16 प्रतिशत तक पहुँच गया। यह हमारी नीतियों, उनके अनुपालन में कोताही एवं अधिकारों के जमीनी स्तर पर न पहुचने का दुष्परिणाम है कि पिछले सात दशक में ग्रामीण शहरों की तरफ आकर्षित हुये। ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में पलायन के द्वारा यह औसत अब लगभग दुगना होने की कगार पर है।
कृषक संरक्षण एवं गौवंश संवर्धन से ही होगा समृद्ध राष्ट्र निर्माण।
अब एक बात तो साफ है। समृद्ध देश का निर्माण बिना गौवंश के नहीं हो सकता है। इसके पीछे तर्क भी है। देश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इसके पीछे जो कारण निकल कर आ रहे हैं वह है कि या तो उन्हे अपनी ज़मीन से लागत के बराबर भी मूल्य नहीं मिल रहा है। या पानी की समस्या है और कृषि प्रभावित हो रही है। सरकार ऋण देती है तो वह उसको चुका नहीं पाते हैं। ऋण माफी की स्थिति में ऋण तो माफ हो जाता है किन्तु किसान को कुछ नहीं मिल पाता है। ऋण तो वह पहले ही अपनी बंजर भूमि में लगा चुका होता है। रासायनिक खादों के इस्तेमाल से यदि परिवार का कोई बीमार हो जाता है तो पूरा परिवार सड़क पर आ जाता है। इन सबका एक ही समाधान दिखता है गौपालन। गौपालन को प्राथमिकता में लाकर एवं गौहत्या पर केन्द्रीय कानून बनाकर कृषि, कृषक, गौवंश, भूमि, वर्षा चक्र एवं स्वास्थ्य सबका एक साथ संरक्षण किया जा सकता है। इसलिए गाय हमारी माता है। जब माता संरक्षित होगी तो पुत्र को कुछ नहीं हो सकता है। ठ्ठ
देशी गाय का गोबर एवं गौमूत्र प्राकृतिक जीवों का महासागर है
– सुभाष पालेकर
आज जब देश के जिन राज्यों में गौहत्याओं पर प्रतिबंध है वहाँ इसे सख्ती से लागू किया जा रहा है, तब गायों की बढ़ती संख्या के बीच यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि इन गायों का क्या किया जाये। गौ-संवर्धन एवं गौ-संरक्षण तभी सार्थक हो सकता है जब गाय की उपयोगिता सिर्फ किताबों तक सीमित न होकर ज़मीन पर दिखाई दे। जैसे जैसे लोगों को गाय की उपयोगिता का एहसास होता जायेगा वह प्राथमिकता से गौपालन करेंगे। इस दृष्टिकोण से देखने पर सुभाष पालेकर का काम महत्वपूर्ण हो जाता है। अमरावती, महाराष्ट्र निवासी शोध कृषक सुभाष पालेकर भारत मे शून्य लागत कृषि के जनक हैं। गत वर्ष भारतीय सरकार ने आपको पदमश्री से सम्मानित किया था। आत्महत्या करते किसानो के बीच में किसी किसान को पदमश्री मिलना देश मे कृषि के नये युग का आगाज माना गया था। सहज प्रवृत्ति एवं अत्यंत सरल व्यक्तित्व के धनी पालेकर जी पूरे देश मे घूम घूम कर कार्यशालाएँ आयोजित करते हैं। सीधे किसानो से संवाद करते हैं। कृषि की पूरी प्रक्रिया को समझाते हैं। अमूमन चार से पाँच दिन चलने वाली इन कार्यशालाओं मे उनका उदबोधन जादुई होता है। कुछ समय पूर्व ऐसी ही एक कार्यशाला के दौरान अमित त्यागी की सुभाष पालेकर जी से भेंट हुयी थी। उन्होने कार्यशाला मे भाग लिया एवं बीच बीच में सुभाष पालेकर जी से बातचीत की।
यह शून्य लागत खेती क्या है ?
कृषि मे आजकल सबसे ज़्यादा लागत आती है फर्टिलाइजर एवं कीटनाशकों पर किये जाने वाले खर्चे पर। शून्य लागत कृषि पद्वति मे रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का प्रयोग नहीं होता है इसलिए इस पर खर्च नहीं होता है। पानी की खपत भी कम हो जाती है। प्राकृतिक तरीके से खेती होने के कारण लागत शून्य हो जाती है। देशी गाय का गोबर एवं गौमूत्र इस खेती के लिये प्रमुख आवश्यकताएँ हैं।
शून्य लागत कृषि मे गाय की क्या उपयोगिता है ?
इस कृषि मे गाय की नहीं देशी गाय की उपयोगिता है। देशी गाय के एक ग्राम गोबर मे असंख्य सूक्ष्म जीव होते हैं। ये जीव फसल के लिये आवश्यक 16 तत्वों की पूर्ति करते हैं। इस विधि मे खास बात यह है कि फसलों को बाहर से भोजन देने के स्थान पर भोजन का निर्माण करने वाले सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ा दी जाती है। इस तरह इस प्रक्रिया के द्वारा 90 प्रतिशत पानी एवं खाद की बचत हो जाती है।
आप जैविक एवं रासायनिक खेती के विरोधी हैं ? इसके पीछे क्या वजह है ?
जैविक एवं रासायनिक खेती के द्वारा प्राकृतिक संसाधनो के लिये खतरा है। इनमे लागत भी ज़्यादा आती है और इनके द्वारा जहरीले पदार्थ का रिसाव होता है। यह दो तरह से नुकसान करता है। एक तो यह हमारे शरीर को प्रभावित करता हैं एवं दूसरा, इसके प्रयोग से ज़मीन धीरे धीरे बंजर होती चली जाती है।
शून्य लागत कृषि को जन आंदोलन बनाने का फैसला आपने कैसे किया?
मैंने 1988 से 1995 के समयकाल मे शून्य लागत कृषि पर लगातार प्रयोग किये। इसके परिणाम आश्चर्यजनक एवं विलक्षण आये। इसके बाद अपने अनुभवों को मैंने अन्य प्रान्तों के किसानो के साथ साझा किया। इस तरह मैंने इसे जन आंदोलन बनाने का निर्णय किया।
तो अब तक लगभग कितने किसान इस जन आंदोलन के साथ जुड़ चुके हैं ?
यह आंदोलन सिर्फ भारत मे ही नहीं बल्कि विदेशों तक फैल चुका है। यदि भारत की ही बात करें तो लगभग 40 लाख किसान इस शून्य लागत कृषि पद्वति का प्रयोग कर रहे हैं।
इस आंदोलन मे सरकार से आपको कितना सहयोग मिला है ?
उत्तर: यह सरकारी आंदोलन नहीं है। यह पूर्णत: एक जन आंदोलन है। जनता की भागीदारी है इसमे। जहां तक सरकार की बात है तो पिछले बीस सालों मे सरकार से कोई विशेष सहयोग नहीं मिला है।
प्रश्न : आप इस आंदोलन के लिये क्या प्रयास कर रहे हैं ?
उत्तर: मैं भारत के कोने कोने मे जाता हूँ। लोगों से मिलता हूँ। उनसे बात करता हूँ। कार्यशालाएँ आयोजित करता हूँ। इसके माध्यम से मैं स्थानीय कृषकों को पूरी प्रक्रिया के बारें मे विस्तार से बताता हूँ। अब तक मैंने कितने जिलों एवं राज्यो मे मैंने सम्बोधन किये हैं मुझे याद नहीं है। देश के बाहर भी मैंने अपनी कार्यशालाएँ की हैं।
विदेशों मे कहाँ कहाँ आपका सम्बोधन हुआ है ?
उत्तर : इस तकनीक को अमेरिका, अफ्रीका समेत लगभग आधा दर्जन देशों मे अपनाया जा चुका है। वहाँ के लोग इस तरीके से आने वाले परिणामों से आश्चर्यचकित एवं उत्साहित हैं। विदेश के लोगों ने भी इस तकनीक को हाथों हाथ लिया है और इस तकनीक को अपनी फ़ार्मिंग का हिस्सा बनाया है।
प्रश्न: शून्य लागत कृषि को करने की विधि क्या है?
उत्तर: शून्य लागत कृषि मे विभिन्न चरण हैं। इसमे मुख्यत: बीजामृत एवं जीवामृत का निर्माण किया जाता है। ये देशी गाय के गोबर एवं गौमूत्र से निर्मित प्राकृतिक जीवों का महासागर है। ये सूक्ष्म जीव कच्चे पोषक तत्वों को पकाकर पौधों के लिये भोजन तैयार करते हैं। बीजांमृत एवं जीवामृत को बनाने और प्रयोग करने की प्रक्रिया विस्तृत है। शून्य लागत कृषि मे अपनायी जाने वाली प्रक्रिया को गहनता से समझने के लिये पूरा शिविर सुनना आवश्यक है। पुस्तकों के अध्ययन से भी विधि की जानकारी हो सकती है।
प्रश्न : जो लोग आपके बारें मे जानना चाहते हैं या इस प्रक्रिया से कृषि करना चाहते हैं। वह आपसे कैसे संपर्क कर सकते हैं ?
उत्तर: शून्य लागत कृषि पर मेरी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इन पुस्तकों मे कृषि को करने की पूरी प्रक्रिया सिलसिलेवार लिखी हुयी है। इसके साथ ही 222.श्चड्डद्यद्गद्मड्डह्म्5द्गह्म्शड्ढह्वस्रद्दद्गह्लह्यश्चह्म्द्बह्लह्वड्डद्यद्घड्डह्म्द्वद्बठ्ठद्द.शह्म्द्द पर सभी जानकारी उपलब्ध है।
गायों की हालत देखकर आंखो में आँसू आ जाते हैं – रमेश भैया, विमला बहन
रमेश भैया और उनकी पत्नी विमला बहन गौ-सेवा के लिये विख्यात हैं। आप उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर से 10 किमी दूर बरतारा में विनोबा सेवा आश्रम चलाते हैं। विनोबा जी से प्रेरित होकर आपने अपना सब कुछ त्याग दिया। रमेश भैया विधि स्नातक हैं और विमला बहन परास्नातक। वर्तमान में दोनों गौ सेवा में लगे हुये हैं। गौ तस्करी के लिये ले जायी जा रहीं गायें जो पुलिस द्वारा पकड़ ली जाती हैं, वह आपकी गौशाला को दे दी जाती हैं। आप बिना किसी सरकारी सहयोग के उन गायों को गौशाला में स्थान देते हैं। गौमूत्र एवं गोबर से वर्मी कम्पोस्ट बनाकर लगभग 50 लोगों को इन गायों से रोजगार दिये हुये हैं। आपके इस निस्वार्थ सेवा के लिये आपको यश भारती एवं जमनालाल बज़ाज़ (दंपत्ति को संयुक्त रूप से) जैसे पुरुस्कार प्राप्त हो चुके हैं। गाय पर आपसे बात की अमित त्यागी ने।
आपकी गौशाला में गाय कहाँ से आती हैं ?
पुलिस दे जाती है। जब भी गौ-तस्करों से गाय पकड़ी जाती हैं। ट्रक के ट्रक वह हमें दे जाते हैं। इन गायों की हालत बड़ी दयनीय होती हैं। उनके चारों पैर नारियल की रस्सी से इतनी सख्ती से बंधे होते हैं कि खोलने पर घाव बन जाते हैं। तस्कर इन्हे तीन दिन पहले से प्यासा रखते हैं ताकि गौमूत्र विसर्जन की स्थिति में ट्रक से पानी दिख जाएगा और वह पकड़ में आ जाएंगे। यह गायें लगभग मरणासन्न होती हैं। इनकी हालत देखकर आंखो में आँसू आ जाते हैं।
आप इन गायों का खर्चा कैसे चलाते हैं ?
यह बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है। पुलिस को लगता है कि हमें सरकारी सहायता मिलती है इसलिए हम गौ सेवा कर रहे हैं। और जनता को लगता है कि पुलिस से हमें कुछ फायदा होता होगा इसलिए वह हमें दे जाते हैं। पर हम तो सिर्फ विनोबा जी के निर्देशानुसार गौ सेवा कर रहे हैं। आस पास के गाँव के लोगों के सहयोग से सब हो जाता है। जो लोग हमसे पेंशन या अन्य सरकारी सुविधाओं के लाभ के लिये कहने आते हैं उन्हे हम गौशाला में जोड़कर गाय उनके रोजगार का माध्यम बना देते हैं।
पुलिस द्वारा ज़्यादा गौवंश देने पर आप क्या करते हैं ?
गाय के ट्रक कब पुलिस हमें सौंप जाये। उसमे कितनी गाये हों ? हमें अंदाज़ा नहीं होता है। हम तो अपने पूरे प्रयास से अधिक से अधिक भूसे का स्टाक रखते हैं। कभी कभी कभी तो 3-4 ट्रक गौवंश एक साथ आ जाते हैं। गौसेवक है तो मना कर नहीं सकते हैं। व्यवस्था कर ही लेते हैं। जहां चाह वहाँ राह ।
विमला बहन का क्या योगदान रहता है ?
बहुत महत्वपूर्ण योगदान है आपका। संस्थान का हिसाब और जि़म्मेदारी में आपकी महत्वपूर्ण भूमिका है। आपकी प्रशासनिक क्षमता की वजह से प्रतिकूल परिस्थितियों और सीमित संसाधनो में संस्थान के लोग गौ सेवा कर पा रहे हैं।
गौहत्या : अंग्रेजों के बोये हुये हैं बीज़
आज भारत का दुर्भाग्य है कि विश्व में सबसे बडे मांस निर्यातक देश का दजऱ्ा चाहे-अनचाहे हमारे पास है जो कि सालाना पन्द्रह लाख टन से अधिक है। गौरतलब है कि यूरोप दो हज़ार बरसों से गाय के मांस का प्रमुख उपभोक्ता रहा है। जो पशु कभी मानव के मित्र और सहयोगी हुआ करते थे, उन पशुओं को भी उत्पाद की संज्ञा दी जाने लगी । भारत में अंग्रेजो के बढ़ते वर्चस्व के साथ ही अंग्रेजो के बुरी नजऱ भारतीय गाय पर पड गई । भारत में गौ हत्या को बढ़ावा देने में अंग्रेजों ने अहम भूमिका निभाई।
जब सन् 1700 ई. में अंग्रेज़ भारत में व्यापारी बनकर आए थे, उस वक्त तक यहां गाय और सुअर का वध नहीं किया जाता था। हिन्दू गाय को पूजनीय मानते थे और मुसलमान सुअर का नाम तक लेना पसंद नहीं करते, लेकिन अंग्रेज़ इन दोनों ही पशुओं के मांस का सेवन बड़े चाव से करते हैं। भारत मे पहला कत्लखाना 1707 ईस्वी ने रॉबर्ट क्लाएव ने खोला था। उसमे रोज की 32 से 35 हजार गाय काटी जाती थी। 18वीं सदी के आखिर तक बड़े पैमाने पर गौ हत्या होने लगी। यूरोप की ही तर्ज पर अंग्रेजों की बंगाल, मद्रास और बम्बई प्रेसीडेंसी सेना के रसद विभागों ने देशभर में कसाईखाने बनवाए। जैसे-जैसे भारत में अंग्रेजी सेना और अधिकारियों की तादाद बढऩे लगी वैसे-वैसे ही गौहत्या में भी बढ़ोतरी होती गई। ख़ास बात यह रही कि गौहत्या और सुअर हत्या की वजह से अंग्रेज़ों को हिन्दू और मुसलमानों में फूट डालने का भी मौका मिल गया। अंग्रेजों के शासनकाल में गाय-बैलों का दुर्दांत क़त्ल आरम्भ हुआ और गोवंश का मांस, चमडा, सींग, हड्डियाँ आदि एक बड़े लाभ वाले व्यवसाय बन कर उभरे। ब्रिटिश फ़ौज में गोमांस पूर्ति के के लिए गौमाता को क़त्ल करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिम कसाइयों को इस धंधे में लगाया ताकि हिन्दू-मुसलामानों का आपस में बैर बढे। उनकी फूट डालो शासन करो वाली नीति कामयाब हो । भारतीय गरीब दूध न देने वाली गाय बेचने के लिए विवश था और लोभी इसका लाभ उठाने के लिए तैयार बैठे थे 7 अगर हम इतिहास के कुछ पुराने पन्ने पलटते हैं तो पता चलता है कि भारत में एक लम्बे समय तक शासन करने वाले मुगलों के साम्राज्य में गौहत्या पर पूरी पाबंदी थी। बाबरनामे में दर्ज एक पत्र में बाबर ने अपने बेटे हुमायूं को नसीहत करते हुए कहा था कि तुम्हें गौहत्या से दूर रहना चाहिए। ऐसा करने से तुम हिन्दोस्तान की जनता में प्रिय रहोगे। इस देश के लोग तुम्हारे आभारी रहेंगे और तुम्हारे साथ उनका रिश्ता भी मजबूत हो जाएगा।
आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफऱ ने भी 28 जुलाई 1857 को बकरीद के मौके पर गाय की कुर्बानी न करने का फऱमान जारी किया था। साथ ही यह भी चेतावनी दी थी कि जो भी गौहत्या करने या कराने का दोषी पाया जाएगा उसे मौत की सज़ा दी जाएगी। उस समय के एक उर्दू पत्रकार मोहम्मद बाकर जिनको अंग्रेजों ने बगावती तेवरों के लिए मौत की सजा सुनाई थी, अपने उर्दू अखबार के ज़रिये गौहत्या के खिलाफ अलख जगाने का काम बखूबी करते रहे ।उन्होंने मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच खाई खोदने के लिए गौहत्या को इस्तेमाल करने के अंग्रेजी कारनामो को कई बार उजागर किया । भारत में गौ हत्या को रोकने के नाम पर मुसलमानों को निशाना बनाया जाता रहा है।
यह जगज़ाहिर है कि गौहत्या से सबसे बड़ा फ़ायदा गौ तस्करों और गाय के चमड़े का कारोबार करने वाले बड़े कारोबारियों को ही होता है। इन वर्गों के दबाव के कारण ही सरकार गौहत्या पर पाबंदी लगाने से गुरेज़ करती है। वरना दूसरी क्या वजह हो सकती है कि जिस देश में गाय को माता के रूप में पूजा जाता हो, उस देश की सरकार गौहत्या को रोकने में नाकाम है। कुरान में गौहत्या करना आवश्यक विधि नहीं है7 हजऱत मुहम्मद साहब ने फरमाया है कि अगर किसी मुसलमान ने किसी मज़हब के इन्सान को नाहक तकलीफ पहुंचाई तो मैं उस गैरमुस्लिम की तरफ से कय़ामत के दिन उस खुदा के सामने उस मुसलमान के विरुद्ध खड़ा हूँगा, इंसाफ दिलाऊंगा7 किसी का दिल दुखाना यों भी शरियत में गुनाह है7 मुसलमान वही है जो ज़ालिम का साथ कभी ना दे, और अपने आस पास रहने वाले दुसरे धर्म के लोगों का दिल ना दुखाये। हदीस में भी गाय के दूध को फ़ायदेमंद और गोश्त को नुकसानदेह बताया गया है।
तस्वीर बिलकुल साफ़ है 7 गाय का क़त्ल उसके मांस के निर्यातको के साथ-साथ चमड़े,हड्डी आदि के व्यापारियों की काली करतूत का हिस्सा है 7 एक आम भारतीय मुसलमान गाय के मांस को उसके साथ जुडी श्रद्दा और अपने धर्म में दी गई हिदायतों के मद्देनजऱ इस्तेमाल नहीं करता। कुछ शरारती लोग जुर्म करने से बाज़ नहीं आते, पर उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की हिमायत पूरा मुस्लिम समाज करता है। अब सवाल आता है गाय के चमड़े का कारोबार करने वाले क्या गौ हत्या न कराने का संकल्प लेकर इस पेशे से हो रहे भारी मुनाफ़े को छोडऩे के लिए तैयार हैं ? क्या दूध न देने वाली गायों के लिए हम आर्थिक लाभ के नज़रिए से हटकर गौशालों की व्यवस्था करने को तैयार हैं ? और इन सबसे बड़ा सवाल ……. क्या हमारी सरकार गौरक्षा एवं विकास विषय को अपनी प्राथमिकता सूची में लाकर केन्द्रीय कानून बनाकर गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने को तैयार है ?
-आमिर खुर्शीद मालिक
संपादक(लोकतान्त्रिक मीडिया)
अमेरिकी अनुसंधान कायल हैं दूध की रोगप्रतिरोधक क्षमता के
भारतीय गाय का दूध विदेशी गायों की तुलना मे बहुत उपयोगी है । भारतीय गाय के दूध में क्कह्म्शद्यद्बठ्ठद्ग अपने स्थान 67 पर अपने निकट स्थान 66 पर स्थित ्रद्वद्बठ्ठश ्रष्द्बस्र ढ्ढह्यशद्यद्गह्वष्द्बठ्ठद्ग से क्कद्गश्चह्लद्बस्रद्ग बँध (क्चशठ्ठस्र) बनाकर रहता है । उत्परिवर्तन (रूह्वह्लड्डह्लद्बशठ्ठ) के कारण जब क्कह्म्शद्यद्बठ्ठद्ग के स्थान पर ॥द्बह्यह्लद्बस्रद्बठ्ठद्ग आ जाता है तब इस ॥द्बह्यह्लद्बस्रद्बठ्ठद्ग में अपने निकट स्थान 66 पर स्थित ढ्ढह्यशद्यद्गह्वष्द्बठ्ठद्ग से मजबूती से नही जुड़ा रह पाता तथा मानव शरीर में आसानी से टूट जाता है। इस प्रक्रिया से एक 7 ्रद्वद्बठ्ठश्रष्द्बस्र का छोटा प्रोटीन मानव शरीर में क्चष्टरू 7 (क्चद्गह्लड्ड ष्टड्डह्यश रूशह्म्श्चद्धद्बठ्ठद्ग7) बना लेता है। क्चष्टरू 7 एक ह्रश्चद्बशद्बस्र (ठ्ठड्डह्म्ष्शह्लद्बष्) अफीम परिवार का तत्व है। जो बहुत शक्तिशाली ह्र&द्बस्रड्डठ्ठह्ल एजेंट के रूप में दूरगामी दुष्प्रभाव छोडता है। यह दूध उन विदेशी गौओं में पाया गया है जिन के डीएन मे 67 स्थान पर क्कह्म्शद्यद्बठ्ठद्ग न हो कर ॥द्बह्यह्लद्बस्रद्बठ्ठद्ग होता है। इसे ए1 प्रकार का दूध कहा गया जबकि ए2 दूध मे क्चष्टरू7 नही पाया जाता है। अनुसंधान अभियान में जो क्चष्टरू रहित दूध पाया गया उसे ए2 नाम दिया गया। सुखद बात यह है कि विश्व की मूल गाय की प्रजाति के दूध मे, यह विष तत्व क्चष्टरू7 नहीं मिला, इसी लिए देसी गाय का दूध ए2 प्रकार का दूध पाया जाता है।
देसी गाय के दूध मे यह स्वास्थ्य नाशक मादक विष तत्व बीसीएम7 नही होता। आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान से अमेरिका में यह भी पाया गया कि ठीक से पोषित देसी गाय के दूध और दूध के बने पदार्थ मानव शरीर में कोई भी रोग उत्पन्न नहीं होने देते । भारतीय परम्परा में इसी लिए देसी गाय के दूध को अमृत कहा जाता है।
बाल्य काल के रोग
आजकल भारत वर्ष ही में नही सारे विश्व मे जन्मोपरान्त बच्चों में जो ड्डह्वह्लद्बह्यद्व बोध अक्षमता और ष्ठद्बड्डड्ढद्गह्लद्गह्य ह्ल4श्चद्ग1 जैसे रोग बढ रहे हैं उन का स्पष्ट कारण ए1 दूध का क्चष्टरू 7 पाया गया है। मानव शरीर के सभी द्वद्गह्लड्डड्ढशद्यद्बष् स्रद्गद्दद्गठ्ठद्गह्म्ड्डह्लद्ब1द्ग स्रद्बह्यद्गड्डह्यद्ग शरीर के स्वजन्य रोग जैसे उच्च रक्त चाप द्धद्बद्दद्ध ड्ढद्यशशस्र श्चह्म्द्गह्यह्यह्वह्म्द्ग हृदय रोग ढ्ढह्यष्द्धद्गद्वद्बष् ॥द्गड्डह्म्ह्ल ष्ठद्बह्यद्गड्डह्यद्ग तथा मधुमेह ष्ठद्बड्डड्ढद्गह्लद्गह्य का प्रत्यक्ष सम्बंध क्चष्टरू7 वाले ए1 दूध से स्थापित हो चुका है। यही नही बुढापे के मांसिक रोग भी बचपन में ए1 दूध का प्रभाव के रूप मे भी देखे जा रहे हैं। आज यदि भारतवर्ष का डेरी उद्योग हमारी देसी गाय के ए2 दूध की उत्पादकता का महत्व समझ लें तो भारत सारे विश्व डेरी दूध व्यापार में सब से बडा दूध निर्यातक देश बन सकता है। आज सम्पूर्ण विश्व में यह चेतना आ गई है कि बाल्यावस्था मे बच्चों को केवल ए2 दूध ही देना चाहिये। ए2 दूध देने वाली गाय विश्व में सब से अधिक भारतवर्ष में पाई जाती हैं ।
इसलिए ये ज़रूरी है कि विकास की अंधकार भारी ज़िंदगी मे कही हम अपनी बहुमुल्य गौ संपदा को खो ना दे।और ज़हर पीना शुरू कर दें। अपने बच्चों को हम देशी गाय का ही दूध पिलाए ना की हाइब्रिड या पैकेट दूध। भैंस का दूध भी उतना उपयोगी नही जितना कि गाय का।इसलिए ये ज़रूरी है कि हम गाय को बचकर भारतीय सभ्यता के उत्थान मे अपना योगदान दे तथा अपने जीवन को स्वस्थ और निरोगी बनाएँ।
-डॉ स्वप्निल यादव
जैव प्रोद्योगिकी विभागाध्यक्ष