निर्भया के बलात्कार और हत्या करनेवाले चार अपराधियों को आज सर्वोच्च न्यायालय मृत्यु-दंड नहीं देता तो भारत में न्याय की मृत्यु हो जाती। निर्भया कांड ने दिसंबर 2012 में देश का दिल जैसे दहलाया था, उसे देखते हुए ही 2013 में मृत्युदंड का कानून (धारा 376ए) पास हुआ था। छह अपराधियों में से एक ने जेल में आत्महत्या कर ली थी और एक अवयस्क होने के कारण बच निकला लेकिन जो चार लटकाए जानेवाले हैं, उन्होंने अपने बचाव में क्या-क्या तर्क नहीं दिए हैं। उनके वकीलों ने अपनी सारी प्रतिभा लगा दी। मैं कई बार सोचता हूं कि इन वकीलों को क्या बिल्कुल भी शर्म नहीं आती? सिर्फ पैसों के लिए वे इन पापियों पर पर्दा डालने की कोशिश करते रहे। अदालतें यदि इन वकीलों को कोई भी सजा नहीं दे सकती तो कम से कम इनकी भर्त्सना तो करे। मृत्युदंड देनेवाले और उसे पक्का करनेवाले सभी जजों को मैं बधाई देता हूं लेकिन मुझे एक शिकायत है। वह यह कि निर्भया मामले का फैसला आने में साढ़े चार साल क्यों लग गए? यह दो-चार माह में ही क्यों नहीं आ गया? लोहा गर्म हो तभी चोट मारी जानी चाहिए। मुकमदे जितने लंबे खिंचते हैं, उनके अच्छे से अच्छे फैसलों का असर कम होता चला जाता है। यह फैसला तत्काल आता तो देश के भावी बलात्कारियों पर इसका असर ज्यादा होता।
गुजरात की महिला बिल्किस बानो के मुकदमे का फैसला तो 15 साल बाद आया है। 2002 में रनधिकापुर गांव में बिल्किस के मकान पर एक भीड़ ने हमला किया। सात लोगों की हत्या कर दी और गर्भवती बिल्किस के साथ बलात्कार किया। उसकी नन्ही सी बच्ची को पटक पटक कर मार दिया गया। गुजरात की पुलिस और डाॅक्टरों ने हत्यारों और बलात्कारियों को बचाने की पूरी कोशिश की। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को मुंबई उच्च न्यायालय को भेज दिया। उसने अपने एतिहासिक फैसले में 11 अपराधियों को आजन्म कारावास की सजा तो दी ही, पांच पुलिसवालों और दो डाॅक्टरों को भी दंडित किया, जिन्होंने सबूतों को मिटाने की कोशिश की थी। अदालत ने यह जानने की कोशिश क्यों नहीं की कि सबूतों को मिटाने की वह कोशिश किनके इशारों पर की गई थी? यह बेहतर होता कि सभी अपराधियों को फांसी पर लटकाया जाता। मुझे यह आश्चर्य भी है कि जिन वकीलों ने इन दंडितों को बचाने की कोशिश की, उनका कोई अंतःकरण भी है या नहीं? क्या उनको बिल्कुल भी शर्म नहीं आती? क्या उनके परिवार के लोग यह नहीं समझते कि वे पाप का अन्न खा रहे हैं?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक