विनीत नारायण
इस बार का चुनाव बिलकुल फीका है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हिंदू, मुसलमान, कांग्रेस की
नाकामियों को ही चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं। वहीं चार दशक में बढ़ी सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी, किसान को
फसल के उचित दाम न मिलना, बेइंतहा महंगाई और तमाम उन वायदों को पूरा न करना जो मोदी जी
2014 व 2019 में किए थे – ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा का नेतृत्व चुनावी सभाओं में कोई बात ही नहीं कर
रहा। ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे के बावजूद समाज में जो खाई पैदा हुई है, वो चिंताजनक है। रोचक
बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विकास
के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं 2019 में और इस बार क्यों वे इनमें से किसी भी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे
हैं? इसलिए देश के किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों
को भी मोदी जी के भाषणों में रूचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वायदे के अनुसार
कुछ भी नहीं दिया। बल्कि बहुत से मामलों में तो जो कुछ उनके पास था, वो भी छीन लिया गया। इसलिए
यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि वह अपना विरोध खुलकर प्रकट नहीं कर
रहा। पर यहाँ ये उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि प्रतिव्यक्ति हर महीने 5 किलो अनाज मुफ़्त बाँटने का मोदी
जी का फार्मूला कारगर रहा है। जिन्हें ये अनाज मिल रहा है वे कहते हैं कि इससे पहले कभी किसी सरकार ने
उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिया। इसलिए वे मोदी जी के समर्थन में हैं।
पर इस मुद्दे पर बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों की राय भिन्न है। वे कहते हैं कि अगर मोदी जी ने अपने
वायदे के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोज़गार दिया होता तो अब तक 20 करोड़ युवाओं को
रोज़गार मिल जाता। तब हर युवा अपने परिवार के कम से कम पाँच सदस्यों का भरण पोषण कर लेता। इस
तरह भारत के 100 करोड़ लोग सम्मान की ज़िंदगी जी रहे होते। जबकि आज 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन
के लिए भीख का कटोरा लेकर जी रहे हैं।
दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मोदी जी के अन्धभक्त हैं। जो हर हाल में मोदी सरकार फिर से लाना चाहते हैं। वे
मोदी जी के 400 पार के नारे से आत्ममुग्ध हैं। मोदी सरकार की सब नाकामियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे
मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं। क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है। अभी यह बताना असंभव है कि
इस कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की?
सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो
क्या हिंदुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किये, बिना सांस्कृतिक
परंपराओं का निर्वहन किये सब पर थोपा जाऐगा, जैसा पिछले 10 वर्षों में थोपने का प्रयास किया गया।
इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाऐ, हिंदू धर्म और संस्कृति को स्थाई
लाभ नहीं मिलेगा।
भाजपा व संघ दोनों ही हिंदू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं, पर सनातन हिंदू धर्म की मूल
सिद्धांतों से परहेज करते हैं। सैंकड़ों वर्षों से हिंदू धर्म के स्तंभ रहे शंकराचार्य ये मानते हैं कि जिस तरह का
हिंदूत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षों में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिंदू धर्म का
मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिंदू धर्म का हल्ला मचाया गया। हाँ उज्जैन, काशी,
अयोध्या, केदारनाथ आदि धर्मस्थलों पर भगवान के विशाल मंदिरों के निर्माण से हिंदू समाज में अपनी
पहचान के लिए जागरूकता बढ़ी है। पर इसके अलावा जमीन पर ठोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे ये
सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मियों को अधिक दुख है। क्योंकि हम
साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है और
वो सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है। जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव
सबके लिए गुंजाइश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी
पर जमा हुआ है। जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां अपनी अहंकारी नीतियों के कारण कुछ सदियों के बाद
धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।
संघ और भाजपा के राजनैतिक हिंदू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के
लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं पर उदारमना भी है। क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा
डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा और प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षों में
भारत में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ये ऐसे ही चला, तो भारत में
दंगे, खून-खराबे और बढ़ेगे। जिसके परिणामस्वरूप भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और
भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा। तभी आगे चलकर भारत अपने
धर्म और संस्कृति की ठीक रक्षा कर पायेगा, अन्यथा नहीं। अलबत्ता हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए
अगर संघ का संगठन सक्रिय रहता है तो सनातनधर्मियों को अच्छा लगेगा।
जहां तक ‘इंडिया’ गठबंधन की बात है, ये आश्चर्यजनक तथ्य है कि समय और अवसर दोनों प्रचुर मात्रा में
उपलब्ध होते हुए भी इस गठबंधन का सामूहिक नेतृत्व वो एकजुटता और आक्रामकता नहीं दिखा पा रहा जो
उसे बड़ी सफलता की ओर ले जा सकती थी। फिर भी ‘इंडिया’ के समर्थकों का विश्वास है कि इस बार का
चुनाव ‘विपक्ष बनाम भाजपा’ नहीं बल्कि आम ‘जनता बनाम भाजपा’ की तर्ज़ पर लड़ा जाएगा, जैसा
आपातकाल के बाद 1977 में लड़ा गया था। वैसे अगर राज्यवार आँकलन किया जाए तो गुजरात, मध्य
प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान को छोड़ कर कोई भी प्रांत ऐसा नहीं है जहां भाजपा विपक्षी
दलों के सामने कमज़ोर नहीं है। ऐसे में कुछ भी हो सकता है।
लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, समाज के हर वर्ग को अपनी बात
कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाए, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोसकर
या चोर बताकर, अपमानित न करें, बल्कि उसके सहयोग से सरकार चलाए। क्योंकि राजनीति के हमाम में
सभी नंगे हैं। चुनावी बाँड के तथ्य उजागर होने के बाद यह स्पष्ट है कि मोदी जी की सरकार भी इसकी
अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।