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प्रदूषण : जिम्मेदारी सरकारों की भी हैं

*प्रदूषण : जिम्मेदारी सरकारों की भी हैं*

दिल्ली की दुर्दशा पर एक सरकारी बयान पढ़ने में आया, सरकार फ़रमाती है ‘हवा और पानी तो ऐसे हैं, जिन्हें रोका या बांधा नहीं जा सकता।“सरकार के पास बयानबाज़ी के अलावा विकल्प भी क्या है? जिस समय सर्वोच्च अदालत के ‘कोर्ट रूम’ में प्रदूषण पर सुनवाई चल रही थी, उस समय वहां का वायु गुणवत्ता सूचकांक 994 था। वह ‘बेहद गंभीर’ श्रेणी का प्रदूषण था। दिल्ली के कई इलाकों में वायु गुणवत्ता 978 भी दर्ज की गई। ऐसे प्रदूषण में जीना भी ‘राष्ट्रीय शर्मिन्दगी’ है। सर्वोच्च अदालत का वह विशेष और संवेदनशील कक्ष होता है, जहां की हवा ‘गैस चैंबर’ के हालात को भी लांघ गई थी। यह शर्मनाक स्थिति नहीं है, तो और क्या है? राजधानी दिल्ली की ‘प्रदूषित हवा’ का औसत सूचकांक 500 को पार कर चुका है।

अब एक दिन ऐसा भी आएगा, जब सडक़ों पर ‘मास्कधारी आबादी’ ही दिखाई देगी, लिहाजा अब सर्वोच्च अदालत की फटकार ही पर्याप्त नहीं है। अब सर्वोच्च अदालत सरकारों से सवाल न करे, बल्कि राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मुख्य सचिवों को ‘प्रतीकात्मक जेल’ की सजा सुनाए। प्रदूषण सिर्फ दिल्ली-एनसीआर तक ही सीमित नहीं है। यहां तो ‘गैस चैंबर’ से भी बदतर हालात हैं। अस्पतालों में मरीजों की संख्या 30-35 प्रतिशत बढ़ गई है। सांसें टूट रही हैं। दिल का दौरा पड़ा है। अस्थमा, दमा का अटैक पड़ा है। लोग बुरी तरह खांस रहे हैं। मस्तिष्क पर भी प्रभाव पड़ा है, लिहाजा ऐसे मरीज भी अस्पताल तक दौड़ रहे हैं। आम दृश्यता धुंध में कहीं खो गई है, लिहाजा 100 से अधिक विमान देरी से उड़े, 15 को अन्य राज्यों की ओर मोड़ा गया और कुछ उड़ानें रद्द करनी पड़ीं। यह कोई आपातकाल या संक्रमण काल नहीं है, रोजमर्रा की जिंदगी पर प्रदूषण का प्रभाव है।

प्रदूषण से 22 लाख लोग सालाना मर जाते हैं। करीब 90 करोड़ भारतीय ‘गंभीरतम प्रदूषण’ में सांस लेने को विवश हैं। वे भी हरेक सांस के साथ अकाल मृत्यु की तरफ बढ़ रहे हैं। पर्यावरण में इतना धुआं औसत आदमी एक दिन में 49.2 सिगरेट पीने के समान निगलने को विवश है। हरियाणा में यह औसत 33.25 सिगरेट के धुएं के बराबर है। उप्र और बिहार में प्रतिदिन लोग औसतन 10 सिगरेट पीने को मजबूर हैं। आदमी के दिल, फेफड़े और गुर्दे कब तक साथ देंगे? आम आदमी की उम्र औसतन 8 साल घट रही है। हम लोग छोटे, बौने, निहित स्वार्थ के मुद्दों पर साल भर में औसतन एक लाख से अधिक आंदोलन करने के आदी हैं। जाति, धर्म, आरक्षण, आर्थिक मुद्दों पर भी राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़े गए हैं, लेकिन प्रदूषण जैसे जानलेवा हालात पर कोई आंदोलन नहीं! हालिया चुनावों में भी प्रदूषण पर कोई चर्चा, बहस सामने नहीं आई है। हमारे सामने चीन का उदाहरण है।

वह एक तानाशाही किस्म का देश है, लेकिन वहां लोगों ने ‘गैस चैंबर’ सरीखे प्रदूषण पर ऐसा आंदोलन छेड़ा कि सरकार हिल गई। आज वहां प्रदूषण लगभग नियंत्रण में है। भारत में वैसा क्यों नहीं किया जा सकता? सर्वोच्च अदालत भी फटकारना बंद करे और संवैधानिक दायित्व तय करे, क्योंकि स्वच्छ हवा में सांस लेना भी हमारा संवैधानिक अधिकार है। पराली जलाना, घरेलू धुआं, औद्योगिक प्रदूषण, वाहनों से निकलने वाले जहरीले कण, पाबंदी के बावजूद आतिशबाजी आदि के मद्देनजर ग्रैप-4 की पाबंदियां भी स्थायी और पर्याप्त असरकारक नहीं हैं। बड़े वाहन बंद, निर्माण-कार्य बंद, फैक्ट्रियों में उत्पादन बंद, दफ्तर बंद, स्कूल बंद…आखिर निठल्ले बैठकर प्रदूषण से कैसे लड़ा जा सकता है? प्रदूषण पर असर डालने वाले कारकों पर सोचना होगा, लिहाजा सरकारें विशेषज्ञों की सलाह लें। जिम्मेदारी सरकारों की भी है, बल्कि ज्यादा है।

दिल्ली में ही राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और पूरी कैबिनेट, संसद स्थित हैं। सर्वोच्च अदालत और प्रधान न्यायाधीश भी दिल्ली में ही मौजूद हैं। सभी देशों के दूतावास भी दिल्ली में हैं। राजधानी होने के कारण दिल्ली की अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा है। भारत की छवि कलंकित हो रही है । प्रदूषण से जानलेवा खतरा हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, दलित, पिछड़ों सभी को है, लिहाजा इस मुद्दे पर क्षुद्र राजनीति भी नहीं करनी चाहिए। यदि सरकारें प्रदूषण काबू करने में ही नाकाम, असहाय हैं, तो उन्हें बर्खास्त कर देना चाहिए। प्रदूषण के मोर्चे पर अब लीक से हट कर कुछ सार्थक करने की जरूरत है। सरकारों के पास संसाधन और अधिकार दोनों हैं। वे किसी की भी व्यावहारिक सलाह लेकर उसे लागू कर सकते हैं।

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