बीजेपी की मजबूरी है तमिलनाडु में गठबंधन की सियासत
संजय सक्सेनाभारतीय जनता पार्टी और दिवंगत जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके के बीच तमिलनाडु में 2026 के विधानसभा चुनाव को लेकर हुआ गठबंधन ने तमिलनाडु में सत्तारूढ़ द्रमुक पार्टी की नींद उड़ा दी है। यह गठबंधन बीजेपी के रणनीतिकार अमित शाह की देन बताई जा रही है।हालांकि अभी तक दोनों दलों के दिल मिलते नहीं दिखाई दे रहे हैं। वजह हैं एआईएडीएमके नेता ई. पलानीस्वामी के बयानों में बार-बार आ रहा असमंजस। तमिलनाडु की राजनीति में यह कोई पहला मौका नहीं है जब चुनावी गणित के चलते विरोधी दलों ने हाथ मिलाया हो, लेकिन सत्ता साझा करने को लेकर जो स्पष्टता होनी चाहिए, उसकी यहां भारी कमी नजर आ रही है। अमित शाह ने खुद चेन्नई जाकर गठबंधन की सार्वजनिक घोषणा की, यहां तक कि दावा भी कर दिया कि अगली सरकार तमिलनाडु में एआईएडीएमके-बीजेपी की होगी। लेकिन जब पलानीस्वामी से इस बयान पर प्रतिक्रिया मांगी गई तो उन्होंने साफ कह दिया कि उनका बीजेपी के साथ सिर्फ चुनावी गठबंधन है, सरकार साझा नहीं की जाएगी। इससे बड़ा संकेत और क्या हो सकता है कि गठबंधन का भविष्य बेहद अनिश्चित है।
यह सब तब हो रहा है जब बीजेपी ने अन्नामलाई जैसे उभरते नेता को हटाकर नैनार नागेंद्रन को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। तब माना गया कि पलानीस्वामी की शर्त पूरी कर दी गई है और अब गठबंधन में कोई बाधा नहीं रहेगी। लेकिन अब जिस तरह से एआईएडीएमके लगातार यह कह रही है कि बीजेपी के साथ मिलकर सिर्फ चुनाव लड़ेंगे, सरकार नहीं बनाएंगे, उससे साफ है कि उनके इरादे पूरी तरह स्पष्ट नहीं हैं। राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा जोरों पर है कि कहीं यह गठबंधन केवल अन्नामलाई को हटवाने की रणनीति तो नहीं थी? जिस प्रकार से पलानीस्वामी ने पहले अन्नामलाई के खिलाफ मुखर विरोध जताया और अब अन्नामलाई की विदाई के बाद भी नए मुद्दे खड़े किए जा रहे हैं, उससे संदेह और भी गहराता जा रहा है।

गौरतलब है कि तमिलनाडु की राजनीति में हिंदी विरोध, सांस्कृतिक पहचान, और क्षेत्रीय स्वाभिमान जैसे मुद्दे हमेशा हावी रहे हैं। ऐसे में बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी से जुड़ाव अक्सर द्रविड़ दलों के लिए एक राजनीतिक जोखिम बन जाता है। पलानीस्वामी भी शायद इसी वजह से खुलकर बीजेपी के साथ सत्ता साझा करने से बच रहे हैं। वह एक तरफ डीएमके को सत्ता से हटाने के लिए बीजेपी के समर्थन का लाभ उठाना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर बीजेपी से दूरी बनाकर अपने क्षेत्रीय वोट बैंक को भी साधना चाहते हैं। यही वजह है कि वह बार-बार स्पष्ट कर रहे हैं कि केंद्र में नरेंद्र मोदी नेता होंगे और तमिलनाडु में सिर्फ वह यानी पलानीस्वामी। इससे संकेत मिलता है कि एआईएडीएमके नहीं चाहती कि तमिलनाडु में बीजेपी को ज्यादा ताकत मिले।
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इस तरह का गठबंधन तमिलनाडु की राजनीति में नया नहीं है। डीएमके और एआईएडीएमके ने अक्सर चुनावों में गठबंधन किए हैं, लेकिन राज्य की सत्ता में आने के बाद अपने सहयोगियों को सत्ता में भागीदारी देने से कतराते रहे हैं। डीएमके, कांग्रेस और वाम दलों के साथ मिलकर चुनाव जीतती है, लेकिन सरकार सिर्फ डीएमके की बनती है। कुछ ऐसा ही पैटर्न अब एआईएडीएमके भी अपनाना चाहती है। यानी चुनावी फायदा लेने के लिए बीजेपी के साथ हाथ मिलाया जाए, लेकिन सत्ता में उन्हें हिस्सा न दिया जाए। इससे लगता है कि जयललिता की पार्टी, बीजेपी को कहीं सिर्फ एक वोट बैंक के तौर पर तो इस्तेमाल नहीं कर रही है।क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 11 फीसदी से अधिक वोट हासिल हुए थे,जो किसी भी चुनाव में किसी भी दल की जीत हार का अंतर कम और बढ़ा सकते हैं।
अगर हम आंकड़ों पर नजर डालें तो 2021 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और एआईएडीएमके के गठबंधन को लगभग 40 फीसदी वोट मिले थे, जबकि डीएमके और उसके सहयोगियों को 45 प्रतिशत। यानी मुकाबला कड़ा था। लेकिन जब 2023 में अन्नामलाई को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, तब से एआईएडीएमके के साथ बीजेपी के रिश्तों में खटास आ गई। आखिरकार 2023 में यह गठबंधन टूट गया। 2024 के लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा, और नुकसान दोनों को हुआ। एआईएडीएमके को 20.46 फीसदी वोट मिले और बीजेपी को अकेले 11.24 प्रतिशत, यानी एनडीए को कुल 18.28 प्रतिशत। अगर ये दोनों साथ होते तो आंकड़ा लगभग 41 फीसदी के पास पहुंचता, जो डीएमके गठबंधन के 47 प्रतिशत के मुकाबले कुछ हद तक टक्कर दे सकता था।

बीजेपी को इस आंकड़े से यह सीख जरूर मिली कि तमिलनाडु में वह अकेले दम पर अभी सत्ता में नहीं आ सकती। इसलिए उन्होंने फिर से एआईएडीएमके से हाथ मिलाने का फैसला किया। लेकिन अन्नामलाई जैसे नेता की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता और आक्रामक शैली को देखकर पलानीस्वामी ने शायद खतरे की घंटी महसूस की और अन्नामलाई को हटाने की शर्त रख दी। बीजेपी ने यह शर्त मानकर नैनार नागेंद्रन को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया, लेकिन अब भी एआईएडीएमके का रुख सख्त है। इस पूरे घटनाक्रम से यही प्रतीत होता है कि पलानीस्वामी गठबंधन के नाम पर केवल राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं, लेकिन सत्ता में बीजेपी को साझीदार बनाने से कतरा रहे हैं।
यहां एक और दिलचस्प बात यह है कि तमिलनाडु बीजेपी के नए अध्यक्ष नैनार नागेंद्रन ने इस पूरे विवाद पर बहुत सधी हुई प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा कि गठबंधन सरकार बनाने का फैसला दोनों पार्टियों के नेतृत्व द्वारा सही समय पर किया जाएगा। यानी फिलहाल बीजेपी भी खुलकर कुछ कहने से बच रही है। अमित शाह ने भी सीटों के बंटवारे को लेकर यही बात दोहराई थी कि उचित समय पर सब स्पष्ट किया जाएगा। इससे यह साफ होता है कि बीजेपी पलानीस्वामी के बयानों से नाराज तो है लेकिन अभी किसी टकराव की स्थिति नहीं बनाना चाहती।
लेकिन क्या बीजेपी का यह नरम रवैया उसे लंबे समय तक नुकसान नहीं पहुंचाएगा? क्योंकि, अगर चुनाव जीतने के बाद भी उसे सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिलेगी, तो उसके कार्यकर्ताओं में निराशा बढ़ेगी। इससे पार्टी की छवि कमजोर होगी और तमिलनाडु जैसे राज्य में जहां बीजेपी अब तक सत्ता से दूर रही है, वहां वह अपनी पहचान मजबूत नहीं कर पाएगी। वहीं पलानीस्वामी का यह दोहरा खेल यह दिखाता है कि वह एक तरफ बीजेपी का सहारा लेकर डीएमके को हराना चाहते हैं, लेकिन दूसरी ओर बीजेपी को सत्ता से बाहर रखकर अपनी पार्टी की स्थिति को मजबूत भी करना चाहते हैं। यह रणनीति चतुर जरूर है, लेकिन स्थायित्व के लिहाज से बेहद खतरनाक भी है।
बीजेपी के लिए यह गठबंधन एक बड़ा अवसर भी है और एक बड़ी चुनौती भी। अवसर इसलिए कि एआईएडीएमके जैसे मजबूत क्षेत्रीय दल के साथ आकर वह तमिलनाडु में अपनी मौजूदगी को मजबूत बना सकती है। और चुनौती इसलिए क्योंकि अगर एआईएडीएमके ने चुनाव जीतने के बाद बीजेपी को सत्ता में हिस्सा नहीं दिया तो यह गठबंधन सिर्फ चुनावी सौदा बनकर रह जाएगा, जिसका कोई दीर्घकालिक फायदा नहीं होगा। बीजेपी को यह तय करना होगा कि वह सिर्फ वोट बैंक के लिए सहयोगी बने रहना चाहती है या सत्ता में हिस्सेदारी के लिए सख्ती भी दिखाएगी।
वहीं पलानीस्वामी भी शायद इस बात को भली-भांति समझते हैं कि डीएमके को हराने के लिए बीजेपी का साथ जरूरी है। लेकिन वो ये भी जानते हैं कि अगर बीजेपी को सत्ता में साझीदार बना लिया गया तो उनके खुद के नेतृत्व पर सवाल उठ सकते हैं। यही कारण है कि वो एक ऐसी लाइन पर चल रहे हैं जहां दोनों पक्षों को साधने की कोशिश हो रही है डीएमके के विरोधियों को खुश रखने के लिए बीजेपी से गठबंधन और तमिल गौरव तथा क्षेत्रीय स्वाभिमान को बनाए रखने के लिए बीजेपी को सत्ता से दूर रखने की बात।
यह राजनीति का वह खेल है जिसमें हर मोहरा अपने समय पर चलता है। तमिलनाडु में होने वाले 2026 के चुनाव इससे अलग नहीं होंगे। पलानीस्वामी का यह रुख अगर चुनाव के बाद भी बरकरार रहता है तो बीजेपी के लिए यह बड़ा झटका होगा। वहीं अगर बीजेपी अपने वोट बैंक को बढ़ाने में सफल होती है, तो आने वाले समय में वह एआईएडीएमके की तरह किसी दल पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं समझेगी। तब शायद तमिलनाडु की राजनीति का गणित एक बार फिर नया मोड़ ले ले।
अभी के लिए इतना तय है कि यह गठबंधन स्थायी नहीं, बल्कि एक अस्थायी राजनीतिक समझौता है, जिसमें दोनों पार्टियां अपने-अपने फायदे की तलाश कर रही हैं। लेकिन कब यह फायदे नुकसान में बदल जाएं, और कब यह गठबंधन एक बार फिर टूट जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं है। चुनावी जमीन पर असल तस्वीर तभी साफ होगी जब वोटों की गिनती होगी और फैसला सामने आएगा कि तमिलनाडु की जनता इस गठबंधन को किस रूप में देखती है एकजुट ताकत के रूप में या फिर एक जबरन थोपी गई साझेदारी के तौर पर यह आने वाला समय बतायेगा।