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क्यों खास है मोदी की इजराईल यात्रा

आर.के.सिन्हा

निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आगामी 4 जुलाई से शुरू हो रही यहूदी देश इजराईल की यात्रा एतिहासिक है। इस यात्रा का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है, क्योंकि यह यात्रा तब हो रही है जबकि दोनों देश अपने राजनयिक संबंधों की रजत जयंती मना रहे हैं। मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री होंगे जो वर्ष में पहली बार यहूदीराष्ट्र इजराईल जाएँगे। हालांकि वे गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में पहले भी एकबार इजराईल का दौरा कर चुके हैं।भारत ने साल 1992 में इजराईल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थपित किए थे, मगर किसी भारतीय प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति ने कभी वहां का दौरा नहीं किया। साल 2003 में तत्कालीन इजराईली प्रधानमंत्री एरियल शेरोन भारत की यात्रा पर आए थे। ऐसा करने वाले वह पहले इजराईली प्रधानमंत्री थे। भारत के साथ दिवपक्षीय संबंधों को रक्षा और व्यापार सहयोग से लेकर रणनीतिक संबंधों तक विस्तार देने का श्रेय काफी हद तक उनको ही जाता है।

संबंधों का नया अध्याय

दरअसल दोनों देशों की सत्तासीन पार्टियां, यहां की भारतीय जनता पार्टी और वहां की लिकुड में राष्ट्रवाद के सवाल पर एक ही राय है। यानी विचारधारा के स्तर पर अनेक समानताएं हैं दोनों देशों में। इसके कारण ही अब दोनों देशों के आपसी संबंधों को विस्तार मिलना तय है। हालांकि, भारत ने जवाहर लाल नेहरु की मुस्लिम परस्ती के कारण 1949 में संयुक्त राष्ट्र में इजराईल को शामिल करने के ख़िलाफ़ वोट दिया। लेकिन, फिर भी इजराईल को शामिल कर लिया गया था। अगले साल ही भारत की इजराईल के अस्तित्व को स्वीकार करना पड़ा था। यही भारत और इजराईल के संबंधों का श्रीगणेश था। भारत ने 15 सितंबर 1950 को इजराईल को मान्यता दे दी। अगले साल बंबई (अब मुंबई) में इजराईल ने अपना वाणिज्य दूतावास खोला। पर भारत अपना वाणिज्य दूतावास इजराईल में नहीं खोल सका। भारत और इजराईल को एक दूसरे के यहां आधिकारिक तौर पर दूतावास खोलने में चार दशकों से भी लंबा वक्त लग गया। मतलब नई दिल्ली और तेल अवीव में इजराईल और भारत के एक-दूसरे के दूतावास सन 1992 में खुले। नई दिल्ली में इजराईल का दूतावास शुरू में बाराखंभा रोड पर स्थित गोपालदास भवन में खुला था।

अरब और भारतीय मुसलमान

निर्विवाद रूप से इजराईल भारत के सच्चे मित्र के रूप में लगातार सामने आ रहा है। हालांकि, फिलस्तीन मसले पर भारत अरब देशों के साथ विगत दशकों में खड़ा रहा, पर बदले में भारत को खादी के देशों से अपेक्षित सहयोग और समर्थन नहीं मिला। भारत अरब देशों की वकालत करता रहा पर कश्मीर के सवाल पर अरब देशों ने सदैव पाकिस्तान का ही साथ दिया। यह ठीक है कि मोदी के खाड़ी देशों की यात्रा के बाद अब वहां पर भी बदली हुई बयार बह रही है। और तो और सऊदी अरब भी पर्दे के पीछे से इजराईल से रिश्तों को स्थापित कर रहा है।

रिश्तों में मुस्लिम फैक्टर

यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं है, जब भारत खुलकर इजराईल के साथ संबंधों को नई दिशा देने से बचता था। केन्द्र में कांग्रेस सरकारों के दौर में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नीति के तहत भारत के कूटनीतिक हितों की बलि दी जाती रही। माना जाता रहा कि इजराईल से संबंध रखने से देश के मुसलमान खफा हो जाएंगे। इस कूटनीतिक विफलता के लिए कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियां ही उत्तरदायी हैं। दुर्भाग्यवश हमारे यहां सत्ता उनके हाथों में लंबे समय तक रही, जिन्हें ये भी लगता था कि इजराईल से संबंध प्रगाढ़ करने से उन प्रवासी भारतीयों के हित प्रभावित होंगे जो खाड़ी के देशों में रहते हैं। इसके अलावा कच्चे तेल के आयात का भी सवाल था। पर देश के हितों की तो घोर अवहेलना हुई। हम उन अरब देशों के साथ खड़े ही रहे जो हमारे शत्रु पाकिस्तान को सदैव खाद-पानी देता रहा।

यहूदियों की की अनदेखी

जब मुसलमानों के तुष्टिकरण के लिए देश के हितों की अनदेखी हो रही रही थी तब किसी भी पूर्ववर्ती सरकार ने भारत के यहूदियों के बारे में कभी नहीं सोचा। भारत में हजारों यहूदी सदियों से रहते हैं। भारत में आज क दिन भी करीब 6 हजार यहूदी हैं। ये केरल, महाराष्ट्र और देश के अन्य भागों में हैं।भारत की पाकिस्तान पर 1971 के युद्ध में जंग के महानायक लेफ्टिनेंट जनरल जे.एफ.आर जैकब थे। वो यहूदी थे। पूर्वी पाकिस्तन (अब बांग्लादेश) में अन्दर घुसकर पाकिस्तानी फौजों पर भयानक आक्रमण करवाने वाले इस्टर्न कमांड के चीफ आफ स्टाफ जनरल जैकब की वीरता की गाथा रोमांचक है। उनका आक्रमण युद्ध कौशल का ही परिणाम था कि नब्बे हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों ने अपने हथियारों समेत भारत की सेना के समक्ष आत्म् समर्पण किया था जो कि अभी तक का विश्व भर का सबसे बड़ा सैन्य आत्मसमर्पण है। मेरा सवाल यह है कि अगर हमने मुसलमानों के लिए इजराईल से दूरियां बनाई तो हमने अपने यहूदी देशवासियों की राष्ट्रभक्ति को भावनाओं का आदर करते हुए इजराईल से मैत्रीपूण संबंध किसलिए नहीं स्थापित किए। क्या यह कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति का ज्वलंत उदाहरण नहीं है ?

सहयोग के कदम

अब दोनों देश एक दूसरे के करीब आ रहे है। सभी क्षेत्रों में आपसी सहयोग बढ़ा रहे हैं। इजराईली वित्तमंत्री मोशे यालून ने अपनी भारत यात्रा के दौरान माना था कि उनके देश के सैन्य उद्योग के लिहाज़ से भारत महत्वपूर्ण है। उन्होंने भारत के साथ तकनीकी दक्षता और विशेषज्ञता को साझा करने की इच्छा भी जताई थी। और नई सरकार के आने के बाद से कई द्वपक्षीय समझौते हुए हैं, जिसमें कृषि, शोध एवं विकास, अर्थव्यवस्था, उद्योग और सुरक्षा में सहयोग शामिल है। कृषि क्षेत्र में आपसी सहयोग द्वपक्षीय संबंधों का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। इजराईल में पानी की भारी कमी है, फिर भी वहां ड्रिप सिंचाई पद्धति के विशेषज्ञ भरे पड़े है। अद्भुत प्रयोग किया है ईजराईलों ने। बागवानी, खेती, बागान प्रबंधन, नर्सरी प्रबंधन, सूक्ष्म सिंचाई और सिंचाई के बाद कृषि प्रबंधन क्षेत्र में इजराईल प्रौद्योगिकी से भारत को काफी लाभ मिल रहा है। इसका हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात में काफी उपयोग किया गया है। विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र की कृषि समस्या दूर करने के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कुछ समय पहलेही इजराईल की यात्रा की थी। दूसरी ओर देखें तो भारत इजराईल को मुख्यत: खनिज ईंधन, तेल, मोती और रत्नों का निर्यात करता है।

साथी संकट का

इजराईल तब भारत के साथ खड़ा था, जब उसे मदद की सर्वाधिक दरकार थी। यानी युद्धों के कठिन दौर में इजर्राइल ने हमारा साथ दिया। इजराईल ने 1965 और 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाइयों के दौरान भी भारत को मदद दी।1965 और 1971 में इजराईल ने भारत को गुप्त जानकारियां देकर मदद की थी। कहा तो यह भी जाता है कि तब भारतीय सुरक्षा या ख़ुफ़िया अधिकारी साइप्रस या तुर्की के रास्ते इजराईल जाते थे। वहां उनके पासपोर्ट पर मुहर तक नहीं लगती थी। उन्हें मात्र एक काग़ज़ का दुकड़ा दिया जाता था, जो उनके इजराईल आने का सुबूत होता था। 1999 के करगिल युद्ध में इजराईल मदद के बाद भारत और इजराईल खासतौर पर करीब आए। तब इजराईल ने भारत को एरियल ड्रोन, लेसर गाइडेड बम, गोला बारूद और अन्य हथियारों की मदद दी। पाकिस्तान के परमाणु बम, जिसे इस्लामी बम भी कहा जाता है, ने भी दोनों देशों को नज़दीक आने में मदद की। इसके साथ ही इजराईल को डर रहा है कि कहीं यह परमाणु बम ईरान या किसी इस्लामी चरमपंथी संगठन के हाथ न लग जाए। आप कह सकते हैं कि हमेशा से ही भारत और इजराईल के बीच सैन्य संबंध सबसे अहम रहे हैं। इजराईल ने करगिल युद्ध के दौरान इस्तेमाल किए गए लेज़र गाइडेड बम और मानवरहित हवाई वाहन भी हमें दिए थे। संकट के समय भारत के अनुरोध पर इजराईल की त्वरित प्रतिक्रिया ने उसे भारत के लिए भरोसेमंद हथियार आपूर्ति करने वाले देश के तौर पर स्थापित किया और इससे दोनों देशों के रिश्ते काफ़ी मज़बूत हुए हैं।

बेशक, भारत-इजराईल संबंधों परिप्रेक्ष्य में चालू साल अपने आप में विशेष महत्व रखता है। इसी बदले माहौल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इजराईल की यात्रा पर जाने वाले हैं। निश्चित रूप से उनकी इजराईल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और बाकी नेताओं से बातचीत से दोनों देशों के संबंधों को नई गति और ऊर्जा मिलेगी।

(लेखक राज्यसभा सांसद एवं हिन्दुस्थान समाचार बहुभाषीय समाचार सेवा के अध्यक्ष हैं)

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