भारत-विभाजन के समय के लोमहर्षक नरसंहार से लेकर कश्मीरी पंडितों का विस्थापन, गोधरा की आग, और अब ये मालदा, धुलागढ़, बशीरहाट तक के प्रकरण और अब अनंतनाग की वीभत्स घटनाएँ, ये सब पैदावार हैं उन्ही घटिया और संकर बीजों की, जो आज़ादी के समय भारत के तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व, जी हाँ, बड़बोले चच्चा नेहरू और अलोकतांत्रिक और अव्यवहारिक व्यक्तित्व मोहनदास करमचंद गाँधी की बात कर रहा हूँ, ने अन्य भारतीय नेताओं की असहमतियों और भिन्न विचारधाराओं को दरकिनार कर बलात बोए थे। तिलक-सुभाष, राजेन्द्र प्रसाद-पटेल, इंका-आपातकाल के संदर्भ से लेकर एडविना, मनुबेन, धीरेंद्र ब्रह्मचारी तक के प्रसंगों का निरपेक्ष पुनरावलोकन जिन निष्कर्षों तक हमे-आपको ले जाता, उसकी मुक्त-मीमाँसा और निरपेक्ष-चर्चा तक को इन बगुला-भगतों और उनके राजनैतिक और वैचारिक उत्तराधिकारियों और लाभान्वितों द्वारा मिलकर योजनाबद्ध तरीके से गढ़े गए, खड़े किए गए और पुष्ट किये गए मानदंडों और मर्यादाओं द्वारा राजनैतिक, बौद्धिक और नैतिक स्तर पर वर्जित-क्षेत्र घोषित कर दिया गया है।
सावधान! इसपर उँगली तक उठाने का साहस न कीजिये!
इसके साथ ही तत्कालीन सत्ता-प्रतिष्ठान ने आत्ममुग्ध कम्युनिष्टों का इस्तेमाल कर भारत की भावी पीढ़ी को छ्द्म प्रतिमान, अव्यवहारिक आदर्श, लोकलुभावन योजनाएं और प्रभावी प्रचार में इस कदर उलझाया कि आजादी के सत्तर सालों बाद भी हम तमाम विषबेलों को गले में लपेटे घूमने को विवश हैं और देश इस रास्ते पर इतना आगे आ चुका है कि अब उसमे इतिहास के छ्द्म आभामंडल और तथाकथित गौरवशाली अतीत के इन्द्रजाल को तोड़ने का तो छोड़िये साहब, उसकी समीक्षा-विवेचना-आलोचना-संशोधन तक का साहस और सामर्थ्य नहीं रह गया है।
एक यथास्थितिवादी और समझौतावादी देश, समाज और नागरिकसमुदाय एक नपुंसक राष्ट्र का निर्माण किस प्रकार करता है, हमारा भारत महान आज इसका ज्वलंत उदाहरण है।
छोड़िये अनंतनाग पर छाती पीटना!
आइये, आंखे मूंदकर अतीत में दिखाए गए सुनहरे स्वप्नों को देखें, नक्कारखाने में तूती की तरह अपनी गौरवशाली परंपरा का समवेत गायन कर कष्टकारी वर्तमान से अपना ध्यान हटाकर खुद को बहलायें, और जब मार पड़ने लगे तो ईसा मसीह से लेकर गाँधी तक के मार्ग को अपनाएं। ये बात और है कि यह मार्ग सदा से सूली और गोली तक ले जाता है। हमारी महान लोकतांत्रिक परंपराएं हमसे यही अपेक्षा करती हैं, भले ही यह हमारी बलि ही क्यों न ले ले। बहाने को ख़ून, और कटाने को सिर, हमारे पास आवश्यकता से अधिक तो है भी न?
शल्यचिकित्सा की कष्टकारी प्रक्रिया से गुजरकर स्वस्थ होने के बजाय मीठी गोली चूसकर रोग पोषित करने का परिणाम तो अन्तसमय में ही अनुभव होता है न? प्रतीक्षा कीजिये!
नपुंसक आदर्शों को शिरोधार्य करने वाला आत्ममुग्ध, अकर्मण्य और स्पंदनहीन देश, समाज और नागरिक कर भी क्या सकता है?
महान परंपराओं वाले इस महान देश की महान जनता और उसके महान पथप्रदर्शकों को अनन्तनाग के अभिनव रक्त-तिलक की कोटिशः शुभकामनाएं!!!
श्यामदेव मिश्रा