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मेट्रोमेन के बाशिंदो का हक़

संपादक
अनुज अग्रवाल

दिल्ली मेट्रो विश्व की सबसे आधुनिक रेल प्रणाली, 100 से 200 करोड़ रुपये प्रति किलोमीटर जिसकी लागत है।जिसके कर्ता धर्ता रहे श्रीधरन को हम देशवासी सर चढ़ाए रहते हैं ओर भारत रत्न मानते हैं। वो मेट्रो जिसमें ऑटोमेशन तकनीक का ऐसा खेल हुआ कि 80त्न कम कर्मचारियों से ही काम चल गया। जिस जगह से गुजरी वहाँ की जमीन सोना हो गयी। लोग मालामाल हो गए। जिस देश जापान ने कर्ज दिया उसकी लॉटरी लग गयी। मगर उसी मेट्रो में जो थोड़े बहुत कर्मचारी ऑपरेशनल सेवाओं में लगे हैं वे नाराज हैं, परेशान हैं। उनका कहना है उनको लूटा जा रहा है। दुगना काम करा कर आधा वेतन दिया जा रहा है। जी हाँ यह सच है। दुनिया की अत्याधुनिक मेट्रो में काम करने वाले 80त्न कर्मचारियों का औसत वेतन 8 हज़ार से 20 हज़ार के बीच है। सारी भर्ती पैसे लेकर की जाती हैं और अस्थायी होती हैं, वाह क्या गवर्नेन्स मॉडल है। बेचारे कर्मचारी मशीन बन चुके हैं। मेट्रो की दुधारू गाय, जो बिना चारा खाये दूध दे रही है।
अगर यही आधुनिकता है, तकनीक का कमाल है और गवर्नेंस का मॉडल है तो थू है इस पर।
देश मे वर्तमान में सभी कारपोरेट सेक्टरों में ऐसी ही ठेके पर भर्तियों की परंपरा बन गयी है। औसतन वेतन 8 से 20 हज़ार के बीच देश के उद्योग और व्यापार क्षेत्र के 80 प्रतिशत कर्मचारियों का वेतन। औसतन 12 घण्टे काम। रिहायश स्लमों में और कोई सुख सुविधा नहीं। टाटा, बिड़ला, एयरटेल, रिलायंस, बजाज, पतंजलि, मेदांता, अडानी, अंबानी सबकी एक सी कहानी है। लाभ हज़ारों करोड़ ओर उसका 10वा हिस्सा भी कर्मचारियों को नहीं। ऊपर से लाखों करोड़ के बैंक ऋणों का गबन अलग से ओर मुफ्त में हज़ारों एकड़ जमीनें ओर कर छूट भी।
सरकारी क्षेत्र में भी संविदा पर कर्मचारी रखने की परंपरा बन चुकी है। आउटसोर्सिंग के नाम पर निजी और सरकारी क्षेत्र दूसरी कम्पनी को काम का ठेका दे देते हैं और उनके अधिकारी 20 -30प्रतिशत कमीशन पर दूसरी कम्पनियों को जब काम देते हैं तो निश्चित रूप से कितने नोजवानो की कमाई पर डाका डालते होंगे, जरा सोचिए। ठेका लेने वाली कंपनी को भी कुछ कमाना होता है। यानि आधे वेतन पर काम। अधिकांश सरकारी विभागो में ठेके पर कर्मचारियों को रखने में बड़ी धांधली है। हज़ारो कर्मचारी कागजों पर दर्ज हैं और उनका वेतन अधिकारी और राजनेता खा जाते हैं। दिल्ली में कुछ बर्ष पूर्व 70000 घोस्ट कर्मचारियों का घोटाला सामने आया था। नोयडा प्राधिकरण में वर्तमान भी 1000 करोड़ रुपये प्रतिबर्ष घोस्ट संविदा कर्मियों के नाम पर खाया जाता है।
स्पष्ट है कि संविदा यानि ठेके पर कर्मचारियों को रखने की नीति से न तो निजी और न ही सरकारी क्षेत्र को कोई फायदा होता है , बल्कि भ्रष्टाचार, शोषण और लूट बढ़ जाती है। वैसे भी अब जितनी बड़ा समूह/ विभाग होता है, उसमें कुल खर्चों में कर्मचारियों के वेतन का हिस्सा कुल लागत और ऑपरेशनल कोस्ट का 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होता। फिर ऐसी आधुनिक तकनीक का क्या फायदा जो बढ़ती आबादी के बीच जॉब भी कम करती जाए और वेतन भी।देश की 130 करोड़ आबादी में से 100 करोड़ की ओसत मासिक आय 1 हज़ार से 5 हज़ार रुपये प्रति माह है। अगर देश मे विकास दर बढ़ानी है तो इन 100 करोड़ की आमदनी दुगनी करनी होगी। यानि जैसे ही इस वर्ग की आय बढ़ेगी वैसे ही बाज़ार में माँग बढ़ेगी और उद्योग – व्यापार का चक्का तेजी से घूमेगा।
सीधी साधी बात। नो बकवास। समझे जेटली जी और मोदी जी।

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