कब सुधरेंगे हमारे नगर निकाय?
आर.के.सिन्हा
मुंबई के पॉश परेल इलाके के कमला मिल कंपाउंड के एक बिल्डिंग के छत के ऊपर चलाई जा रही “पब” या “रात्रि दारूखाना और नाचघर” में लगी आग से मची तबाही ने 23 दिसम्बर,1995 को मंडी डबवाली (हरियाणा) और 13 जून,1997 को राजधानी दिल्ली के उपहार सिनेमाघर में लगी दिल-दलहाने वाले अग्निकांडों की डरावनी यादें ताजा कर दीं हैं। एक के बाद एक इस तरह के अग्निकांड हमारे यहां तो हर साल ही होते रहते हैं। पर हमें होश कहॉं आती है।हादसों के बाद रस्मी तौर पर जांच बिठा दी जाती है और मृतकों के परिजनों तथा घायलों को कुछ सरकारी मदद दिलाने के बाद तो सबकुछ भुला ही दिया जाता है। इसी से मिलते-जुलते हादसे बाकी के देशों में भी होते रहते हैं। कुछ समय पहले अमेरिका के शहर केलिफर्निया में भी एक इमारत में “रेव पार्टी” में आग लगने से कम से कम नौ लोगों की मौत हो गई थी। मेक्सिको और ब्राजील से भी इसी तरह के दुखद हादसों के समाचार आते रहे हैं।कुछ वर्ष पहले चीन के शॉंघाई शहर में भी एक बड़े पंडालनुमा जगह में चलाये जा रहे एक नाइट क्लब में आग लगने से सैकडों यवयुवकों- नवयुवतियाँ की दर्दनाक मौत हो गई थी। हमारे देश में तो हादसे थमने का नाम ही नहीं लेते।
नहीं बना नजीर
दिल्ली के दर्दनाक उपहार सिनेमा अग्निकांड से देश भर की सरकारों और नगर पालिकाओं/ निगमों को सबक़ लेना चाहिए था। लेकिन, इतना भयावह हादसा देश की राजधानी में जमी संवेदनहीन सियासी जमात और भ्रष्ट अफ़सरशाही का रवैया भी न सुधार सका,दूसरे शहरों की बात ही क्यों करें? मुंबई में हुई हालिया चौदह मौतों की कहानी का अंजाम भी वही हो जाये तो आश्चर्य ही क्या होगा? यह हमारे देश में न पहली बार हुआ है न आख़िरी बार ही होगा।घोर निराशाजनक स्थिति है! कोई दूसरा देश होता तो इतनी मौतों के लिए सम्बंधित सरकारों और स्थानीय निकायो पर ही आपराधिक मुक़दमा हो गया होता,करोड़ों का हर्ज़ाना-जुर्माना अलग से। तख़्ता पलट हो जाना भी कोई ख़ास बात नही होती! लेकिन, हमारे देश में सब बयान देकर ही बरी हो जाते हैं।उपहार कांड के बाद हर साल अख़बारों में, न्यूज़ चैनलों पर दिल्ली की बहुमंज़िला इमारतों में आग से निपटने के उपायों में लापरवाही पर लंबी लंबी रिपोर्टें छपीं, दिन- दिन भर के प्रोग्राम भी टी. वी. चैनलों पर हुए, लेकिन किसी सरकारी विभाग के चाल, चरित्र में और काम- काज के ढर्रे में तो कोई फ़र्क़ नहीं नज़र आया। उपहार सिनेमा के मालिक अंसल बंधु सुप्रीम कोर्ट तक जाकर आखिरकार राहत ले ही आए और हादसे में अपने दोनों बच्चे खो चुकीं नीलम कृष्णमूर्ति के हिस्से में लंबी लड़ाई हार जाने का दर्द भर ही तो बचा रहा।है। किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता सिवाय उन लोगों के, जिनकी दुनिया हमेशा के लिए वीरान हो जाती है। सरकारें नागरिकों से तगड़ा टैक्स लेती हैं, एमसीडी, बीएमसी की अरबों की आमदनी है । लेकिन, आम शहरी की जान बचाने की ज़िम्मेदारी लेने के लिए कौन तैयार है?
मुंबई के हादसे के बहाने कम से कम 20 नवम्बर,2011 को दिल्ली के दिलशाद गार्डन में हुए अग्निकांड की ही याद कर लेते हैं। उस मनहूस दिनराजधानी में किन्नरों के एक आयोजन के दौरान सामुदायिक भवन में लगी आग में भी 14 लोगों की जानें चली गई थीं। मंडी डबवाली में डीएवी स्कूल में चल रहे सालाना आयोजन में 360 अभागे लोग,जिनमें देश के नौनिहाल स्कूली बच्चे ही अधिक थे, स्वाहा हो गए थे। हालांकि, कुछ लोगों का तो यहां तक दावा है कि मृतकों की तादाद साढ़े पांच सौ से भी अधिक थी।
कैसे गई जानें
मंडी डबवाली से लेकर मुंबई के ताजा अग्निकांडों में कुछ बातें पहली नजर में एक जैसी सामने आईं। इन तीनों स्थानों में आग लगने के बाद मची भगदड़ से बहुत सी जानें गईं। चूंकि तीनों मनहूस जगहों में लोगों के लिए निकलने का रास्ता मात्र एक था जिसके कारण अफरा-तफरी मच गई। उसके बाद जो कुछ हुआ, वो अब बताने की जरूरत नहीं है। मंडी डबवाली में यही हुआ था। स्कूली कार्यक्रम चल रहा था। शामियाने के नीचे बहुत बड़ी संख्या में स्कूली बच्चे,उनके अभिभावक और तमाम दूसरे लोग बैठे थे। उनके वहां से निकलने का सिर्फ एक ही रास्ता था। शामियाने में शार्ट सर्किट के बाद आग लगी और उसने अपनी चपेट में सैकड़ों लोगों को ले लिया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी अग्निकांड में कभी इतने अधिक लोग नहीं मारे गए जितने मंडी डबवाली मारे गए थे। कमोबेश इसी तरह के हालातों से दो-चार हुए. उपहार सिनेमाघर में ‘बार्डर’ फिल्म देख रहे तमाम लोग। उपहार में आग लगने के बाद उसके भीतर धुआं उठने लगा। जब वे अभागे लोग निकलने की चेष्टा कर रहे थे तब उन्होंने पाया कि सिनेमा घर के सभी दरवाजे बंद थे। वे लाख कोशिश करने के बाद भी खुल नही पा रहे थे। उसके बाद जो कुछ हुआ,उसने पत्थर दिल इंसानों की आंखों से भी आंसू निकलवा दिए। सांस घुटने से 59 अभागे लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।
पत्थर दिल इंसान
लेकिन, मुंबई के हादसे के दौरान कुछ नई और डरावनी चींजें सामने आईं। जिनसे साफ है कि समाज कितना संवेदनहीन हो रहा है। अब पता चल रहा है कि अगर वहां मौजूद लोगों पर शराब और सेल्फी का नशा सवार न होता तो लोगों को जल्दी निकालकर भीषण नुकसान से बचा जा सकता था। दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस आज भी में करीब डेढ़-दो दर्जन पब चल रहे हैं। इनमें रोज और वीकएंड पर सैकड़ों लोग मौज- मस्ती के लिए पहुंचते हैं। इन पबों में कभी मुंबई जैसा हादसा नहीं होगा, इसकी गारंटी कौन ले सकता है।बड़ा सवाल यह है कि क्या इस तरह के हादसों के लिए सिर्फ प्रसासन को ही जिम्मेदार मान जाए? शायद नहीं? कम से कम पूरी तरह से तो किसी भी हालात में नहीं। अगर उपहार की बात छोड़ भी दी जाए तो मुंबई और मंडी डबवाली अग्निकांडों के लिए कहीं न कहीं वे तमाम लोग भी दोषी हैं, जो वहां पर चल रहे पब और स्कूल के कार्यक्रम को आयोजित कर रहे थे। मंडी डबवाली में लगे शामियाने में एकत्र लोगों के लिए बाहर निकलने का सिर्फ एक ही रास्ता था। क्या आयोजकों को मालूम नहीं था कि अगर कोई हादसा हुआ तो लोग निकलेंगे कैसे ? सिर्फ एक ही रास्ता होगा तो फिर हादसे की हालत में धक्का-मुक्की तो होगी ही।
कुछेक माह पहले राजधानी के एक पॉश इलाके की एक आवासीय इमारत के कुछ फ्लैटों में किसी कारण से आग लग गई। फायर ब्रिगेड को सूचित किया गया। फायर ब्रिगेड की गाड़ियां आईं तो उन्हें सोसायटी के भीतर प्रवेश करने के लिए लोहे के चने चबाने पड़ गए क्योंकि सोसायटी के दो में से एक गेट को वहां के मैनेजमेंट ने इसलिए बंद कर दिया था क्योंकि उस तरफ एक मंदिर का निर्माण किया गय़ा था। दूसरे गेट पर पचास से अधिक कारें खड़ीं थीं। उन्हें वहां से हटाना इसलिए मुश्किल हो रहा था, क्योंकि कइयों के स्वामी उस वक्त घरों में ही नहीं थे। अब आप ही बताइये कि इन स्थितियों के लिए प्रशासन को कैसे दोषी माना जाए। आपको याद होगा कि उपहार कांड के दौरान भी फायर ब्रिग्रेड के वाहन वक्त पर इसलिए नहीं पहुंच पाए थे क्योंकि उस वक्त उस रास्ते पर भारी जाम लगा हुआ था। जाहिर है, वाहनों को घटना स्थल पर पहुंचने में ही खासा विलंब हो गया। इस कारण वक्त पर मदद न मिलने से बहुत सी जानें चली गईं।
मुंबई हादसे के बाद तो कम से कम हमारी आंखें खुल जानी चाहिए। आखिर हम कब तक चिर निंदा में सोते रहेंगे और आम नागरिक जान खोते रहेंगें। क्या देश आज भी यह सुनिश्चित नहीं कर सकता है कि अब उपहार और मुंबई के पब में हुए हादसों की पुनरावृत्ति नहीं होगी।
(लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)