उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का एक साल पूरा हो गया है। इस एक साल में उत्तर प्रदेश में परिवर्तन की बयार बह निकली है। व्यवस्था के ढीले पड़े पेंच कसावट महसूस कर रहे हैं। ईमानदार एवं सख्त योगी की नीयत साफ है किन्तु उनके हाथ बंधे हुये हैं। कार्यकर्ताओं की अनदेखी एवं दिल्ली के अनावश्यक हस्तक्षेप से उत्तर प्रदेश में ‘भाजपाराज’ तो स्थापित हुआ है, ‘योगीराज’ नहीं। योगी आदित्यनाथ को करीब से जानने वाले समझते हैं कि अपनों से घिरे योगी बहुत दिनों तक जकडऩ में रहने वाले नेता नहीं हैं। या तो दिल्ली उनकी जकडऩ कम कर देगी या योगी स्वयं इस जकडऩ से बाहर आना जानते हैं। उत्तर प्रदेश में सरकार के एक साल पर ग्राउंड ज़ीरो से अमित त्यागी का एक विश्लेषण।
खिरकार, एक बरस बीत गया। उत्तर प्रदेश सरकार के कामकाज की समीक्षा का यह पहला पड़ाव है। सरकार की समीक्षा दो तरह से की जानी चाहिए। एक प्रशासनिक स्तर पर एवं एक राजनैतिक स्तर पर। सबसे पहले बात करते हैं प्रशासनिक विषय की। योगी सरकार बनते ही प्रशासन में सख्ती दिखने लगी थी। हिंदुवादी छवि के नेता योगी आदित्यनाथ ने आते ही सबसे पहले अवैध बूचडख़ाने बंद करवाए। प्रशासन का तर्क था कि कानून का पालन करवाने के उद्देश्य से बिना लाइसेन्स के बूचडख़ाने बंद किए जा रहे हैं। इसका राजनैतिक निहितार्थ हिंदुवादी निकल रहा था। चूंकि कसाई के काम में ज़्यादातर मुस्लिम समाज के लोग जुड़े थे इसलिए भाजपा का वोट बैंक खुश हुआ। इसके बाद एंटी रोमियो स्क्वाड का काम शुरू हुआ। उत्तर प्रदेश के मनचलों की शामत आ गयी। गली मोहल्लों, चौराहों, महिला विद्यालयों के पास खड़े रहने वाले शोहदों की धर पकड़ शुरू हुयी। उत्तर प्रदेश की जनता को इस पूरी प्रक्रिया में मज़ा आया। पुलिस की सक्रियता जनता में विश्वास पैदा करने लगी। इसके बाद योगी आदित्यनाथ ने शुरू किया एंकाउंटर अभियान। राजनैतिक संरक्षण पाये हुये अपराधियों, गैंगस्टर, शातिर बदमाशों की गिरफ्तारी शुरू हो गयी। इसकी आड़ में ज़बरदस्त तरीके से एंकाउंटर हुये। बदमाशों में खौफ छा गया। कई बड़े बदमाशों ने स्वयं थाने जाकर अपनी गिरफ्तारियां कराई। मीडिया में इन विषयों को पूरे साल खूब सुर्खियां मिलीं। जनता को योगी का यह रूप खूब भाया।
खट्टा मीठा पहला साल
अपने कार्यकाल के शुरुआती 100 दिनों में ही योगी आदित्यनाथ ने रफ्तार पकड़ ली थी। वह भाजपा के बड़े नेता के रूप में स्थापित होते हुये मोदी के बराबर का कद हासिल करते दिखने लगे थे। अपनी ईमानदार छवि के कारण योगी आदित्यनाथ भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने लगे थे। किन्तु बिना भ्रष्टाचार के कमाई नहीं होती है। इसलिए योगी आदित्यनाथ अपनी ही पार्टी के नेताओं की आँख की किरकिरी बनने लगे। एक ओर लखनऊ की गद्दी से दिल्ली की गद्दी दिख रही थी दूसरी तरफ दिल्ली का रुतबा कम हो रहा था। भाजपा को कॉर्पोरेट तरह से चलाने वाले अमित शाह एवं उनके उत्तर प्रदेश में सिपाही सुनील बंसल स्वयं राजनैतिक पृष्ठभूमि पर नजऱ रखने लगे। चूंकि 2014 में अमित शाह उत्तर प्रदेश के प्रभारी थे एवं 2017 के चुनाव सुनील बंसल की देखरेख में हुये थे इसलिए इन दोनों नेताओं के योगदान को कम करके नहीं देखा जा सकता है। जीत के घोड़े पर सवार इन दोनों की जोड़ी ने नगर निगम एवं उपचुनावों के लिए रणनीति बनाई।
धीरे धीरे योगी आदित्यनाथ के हाथ बांध दिये गये। वह सिर्फ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का तमगा लिए बैठे रहे। उत्तर प्रदेश को निर्देश दिल्ली से दिये जाने लगे। अफसरों की तैनाती और राजनैतिक निर्णय के लिए लखनऊ दिल्ली का मोहताज हो गया। उत्तर प्रदेश के दूध से निकली मलाई दिल्ली तक सप्लाई होने लगी। कार्यकर्ताओं को हाशिये पर कर दिया गया। जिन कार्यकर्ताओं ने दिन रात एक करके भाजपा के लिए काम किया था उनके स्थान पर मोदी लहर एवं शाह के प्रबंधन को जीत का आधार मान लिया गया। अपने छोटे छोटे कामों को भी करा पाने में नाकाम भाजपा कार्यकर्ता अंदर ही अंदर दिल्ली और उसकी टीम को कोसने लगा। उसका गुस्सा बढ़ता गया। सिर्फ कार्यकर्ता ही नहीं भाजपा के विधायक भी लाचार नजऱ आने लगे। इन सबके बीच योगी आदित्यनाथ एक सच्चे सिपाही की तरह दिल्ली के निर्देश मानते रहे। अपनी जकडऩ के बावजूद उन्होंने नयी शराब नीति लागू की जिसमें सबसे ज़्यादा भ्रष्टाचार होता था। लगभग 2000 करोड़ का वार्षिक काला धन इस खेल से पैदा होता था जो सत्ताधारी दल को मिलता था। शराब नीति के द्वारा योगी ने ईमानदारी की मिसाल पेश की और अब यह अनुमानित धन सरकार का राजस्व बन गया है।
चुस्त योगी, लचर नौकरशाही
नक़ल विहीन परीक्षा करवाने के क्रम में इस बार प्रशासनिक अमला पूरी तरह मुस्तैद था। सख्ती का परिणाम यह हुआ कि इस बार 12 लाख विद्यार्थियों ने हाईस्कूल एवं इंटर की परीक्षाएं छोड़ दीं। नक़ल विहीन परीक्षा को योगी सरकार के द्वारा शिक्षा सुधार में पहले कदम के रूप में देखा जा सकता है। अब सरकार को अगले कदम के रूप में शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड को गठित करना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा के 26 हज़ार शिक्षकों की भर्ती तुरंत कर देनी चाहिए। 2011 से भर्तियां अटकी होने के कारण एक तरफ बेरोजगारी बढ़ रही है तो दूसरी तरफ भाजपा के वोटबैंक में नाराजगी भी। यदि रोजगार और शिक्षकों की भर्ती की चर्चा को आगे बढ़ाएं तो बेसिक शिक्षा विभाग में 68,500 अध्यापकों एवं माध्यमिक शिक्षा विभाग में 10,768 एलटी ग्रेड शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया का आरंभ हो चुका है। 2016 के 12,460 सहायक अध्यापकों को भी नौकरी देने का आदेश मुख्यमंत्री द्वारा दिया जा चुका है। यह गतिविधियां सकारात्मक पक्ष दिखा रही हैं। पर तस्वीर का स्याह पक्ष भी है। शिक्षा मित्रों का समायोजन उच्चतम न्यायालय से रद्द हुआ। शिक्षा मित्रों ने आंदोलन किए पर वह स्थायी नहीं किए गए। वित्त विहीन शिक्षकों के द्वारा एक हज़ार रुपये महीने का मानदेय समाप्त किए जाने का आंदोलन भी लगातार चल रहा है। उनका आक्रोश खबरों में छाया रहता है। योगी सरकार की सबसे ज़्यादा किरकिरी प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में समय से स्वेटर न बंटने से हुयी। अफसरों की लापरवाही से ठंड में स्वेटर नहीं बांटे जा सके। यूनिफ़ोर्म, जूते मोज़े, स्कूल बैग और किताबों के बांटने में भी अफसरों की लापरवाही ने सरकार की खूब किरकिरी कराई।
चिकित्सा सेवाओं में सुधार के लिए प्रयासरत योगी जी को पहला झटका उनके ही गृह जनपद गोरखपुर में लगा। बच्चों की मौतों ने उत्तर प्रदेश की लचर चिकित्सा व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी। व्यवस्था सुधारने के लिए प्रयासरत सरकार को प्रशासन चिढ़ाता चला गया। झांसी मेडिकल कॉलेज में युवक की कटी टांग को उसका तकिया बना देने का प्रकरण संवेदनहीनता की पराकाष्ठा रहा। पर कुछ स्थानों पर अफसरों ने सराहनीय कार्य भी किये। पूर्वांचल में दिमागी बुखार से बचाव के लिए इस बार सघन टीकाकरण अभियान चलाया गया। इसके लिए पहले डॉक्टरों, स्टाफ नर्स और आशा बहुओं को प्रशिक्षित किया गया। इस अभियान का असर हुआ कि दिमागी बुखार से मौत का आंकड़ा 16.74 प्रतिशत से घटकर 13.42 प्रतिशत हो गया। इसके साथ सरकार ने एलोपैथिक एवं आयुष डॉक्टरों की भर्ती की। मुंह मांगी कीमत पर 235 विशेषज्ञ चिकित्सक नियुक्त किए गए। 2800 यूनानी एवं आयुर्वेदिक चिकित्सक एवं 1600 एमबीबीएस चिकित्सकों को जॉइन करवा कर स्वास्थ्य सेवाओं में कुछ शुरुआत तो की गयी पर अभी एक बहुत बड़ा सुधार इस क्षेत्र में होने की गुंजाइश है।
पारदर्शिता और जवाबदेही का दिखा असर
योगी सरकार के पहले साल में पारदर्शिता दिखाई दी है। ई-गवर्नेंस के द्वारा राशन कार्ड एवं प्रधानमंत्री आवास योजना में करोड़ों रुपयों का फर्जीवाड़ा रुका है। सरकार द्वारा राशन वितरण का काम ई-पास मशीनों द्वारा शुरू किया गया है। इसके द्वारा जुलाई 2017 से फरवरी 2018 तक 51,655.032 मीट्रिक टन खाद्यान्न वितरण से बचा। इस के लिए सरकार की सब्सिडी 129 करोड़ 75 लाख 27 हज़ार 207 रुपये बनती है जो कालाबाजारी रुकने से बच गयी। राशन कार्ड का सत्यापन होने से 29,82,497 अपात्र राशन कार्ड निरस्त हुये। इन राशन कार्डों के निरस्त होने से 162 करोड़ 16 लाख रुपयों का राजस्व बचा। प्रधानमंत्री आवास योजना में 22 हज़ार आवास अपात्रों ने हथिया लिए थे। उनको सरकार ने वापस करा लिया। उजाला योजना के अंतर्गत 2.36 करोड़ एलईडी बल्ब बांटे गए जिसके द्वारा 615 मेगावाट बिजली की बचत हुयी और 1200 करोड़ की बचत हुयी। इसके साथ शराब की दुकानों के आवंटन ई-लाटरी, ठेके खनन के पट्टे ई-टेंडर एवं संपत्ति रजिस्ट्री की ऑनलाइन प्रक्रिया से पारदर्शिता निश्चित रूप से बढ़ी है। जिस समय योगी आदित्यनाथ एवं उनकी सरकार एक साल का जश्न मनाने की तैयारी कर रही थी उसी समय उपचुनावों की हार ने मुख्यमंत्री एवं उप मुख्यमंत्री के चेहरे पर शिकन ला दी। दोनों कद्दावर अपने गृह जनपद में लोकसभा चुनाव हार गए।
राज्यसभा जीत से लिया फूलपुर एवं गोरखपुर का बदला
उत्तर प्रदेश से 10 सीटों पर राज्यसभा के लिए चुनाव हुये। इनमें से नौ सीटों पर भाजपा और एक सीट पर सपा की जया बच्चन विजयी रहीं। मायावती के उम्मीदवार भीमराव अंबेडकर चुनाव हार गए। मायावती ने उपचुनावों में सपा को समर्थन इसी शर्त पर दिया था कि वह राज्यसभा चुनाव में मायावती का समर्थन करेंगे। उपचुनावों में सपा के उम्मीदवार जीत कर लोकसभा पहुंच गए। राज्यसभा में भी सपा का एक उम्मीदवार जीत गया। मायावती को मिला बाबा जी का ठुल्लू। चूंकि मायावती बहुत देर तक शांत नहीं रहती हैं इसलिए उनका गुस्सा और गठबंधन कभी भी फूट सकता है। सपा से उनका सशर्त गठबंधन उनके लिए नुकसान का सौदा साबित हुआ है। विपक्षी एकता को दिखाते हुये अजीत सिंह, राजा भैया, सपा, बसपा, कांग्रेस सब साथ आ गए किन्तु जया बच्चन को छोड़कर कोई भी गैर भाजपाई नहीं जीत सका। जया बच्चन ऐसी सपाई हैं जो स्वयं में पूर्ण राजनीतिज्ञ होने का दंभ भरती हैं। वह यह साबित करती हैं कि उनकी छवि उनके पति अमिताभ बच्चन से अलग है। ऐसा दिखाकर अमिताभ बच्चन के किसी भी सत्ताधारी दल से जुडऩे में आसानी रहती है। कभी उत्तर प्रदेश में सपा तो कभी गुजरात में नरेंद्र मोदी के लिए अमिताभ विज्ञापन करते रहते हैं।
अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई करवट ली जाएंगी। सपा और बसपा के कई बड़े नेता भाजपा का रुख करेंगे। भाजपा के द्वारा कार्यकर्ताओं को तवज्जो दी जाएगी। राज बब्बर के त्यागपत्र के बाद कांग्रेस अब्दुल्ला दीवाना की तजऱ् पर उछलकूद करेगी। चूंकि 2019 के लिए समय बहुत कम बचा है इसलिए अब अहंकार से बाहर आना होगा। जो दल अपने पुराने और समर्पित कार्यकर्ताओं को सम्मान का एहसास दिला पायेगा वह लोकसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन कर सकेगा।