गुलाम नबी आजाद ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों से अधिक सेना ने आम लोगों को मारा। सैफुद्दीन सोज ने कश्मीर को भारत से अलग मनवाने की कोशिश की। सलमान खुर्शीद ने ‘कांग्रेस के हाथों में मुस्लिम खून’ लगे होने का आरोप लगाया। ये सब कांग्रेस के बड़े नेता और सरकार में बड़े पदधारी रहे हैं। इसलिए ये बातें यूँ ही टाली नहीं जा सकती।
सैफुद्दीन सोज पर कुछ कांग्रेसियों ने हीला-हवाला किया। पर आजाद और खुर्शीद पर चुप रहे। यानी सहमति दी या आपत्तिजनक नहीं माना। क्या कांग्रेस 1947 से पहले वाली मुस्लिम लीग में नहीं बदलती जा रही है? उत्तर प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस ने इमरान मसूद को उम्मीदवार बनाया, जिस ने सरे-आम नरेंद्र मोदी को टुकड़े-टुकड़े करने की बात की थी। यानी, हर प्रकार के मुस्लिमों का कांग्रेस में स्वागत है चाहे जो कीमत देनी पड़े।
पर यह कीमत यहाँ हिन्दू समाज को खत्म कर इस्लामी बनाने, या फिर देश तोड़कर कुछ हिस्से इस्लामी बनाने से कम कुछ नहीं होगी! इतिहास साक्षी है कि यहाँ मुस्लिम राजनीति इस के कम कुछ नहीं चाहती। इस के लिए हिंसा, झूठे लांछन, मनमानी शिकायत, हर मामले में इस्लामी कायदे की जिद और संविधान या मानवीयता से बेपरवाही, आदि उन की खुली नीति रही है।
इसी पर डॉ. अंबेदकर ने लिखा था, ”मुस्लिम राजनीति केवल एक अंतर को मान्यता देती है – हिन्दू और मुसलमानों के बीच अंतर। जीवन के किसी मजहब-निरपेक्ष तत्व का मुस्लिम राजनीति में कोई स्थान नहीं है। मुस्लिम राजनीतिक जमात केवल एक ही निर्देशक सिद्धांत के सामने नतमस्तक होती है, जिसे मजहब कहा जाता है।” उन्होंने देखा था कि मुस्लिम राजनीति हिन्दुओं के साथ बराबरी नहीं, बल्कि वर्चस्व हासिल करने के लक्ष्य से प्रेरित है। इसीलिए, मुस्लिम नेताओं की चाह, डॉ. अंबेदकर के शब्दों में, हनुमानजी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती है। उन्होंने झूठी शिकायतों को मुस्लिम राजनीति की नियमित तकनीक बताकर इसे नाम भी दिया था: ‘ग्रवेमन पोलिटिक’।
यह सब डॉ. अंबेदकर ने 1940 में लिखा था। आज भी गुलाम नबी और सलमान खुर्शीद उसे प्रमाणित कर रहे हैं। जम्मू-कश्मीर ही क्यों, पूरे भारत में इस्लामी आतंकवादियों ने जितने लोगों को मारा है, वह लोकतांत्रिक विश्व में किसी भी देश में आतंकी हमलों में मारे गए लोगों की संख्या से अधिक है। यह हालिया इतिहास कोई भी परख सकता है। यह सब जानते गुलाम नबी ने गलतबयानी की।
उसी तरह, सलमान खुर्शीद ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एक छात्र के दंगों संबंधी प्रश्न के उत्तर में कहा कि यहाँ कांग्रेस ने मुसलमानों को मारा। क्या सच यही है? विभिन्न न्यायिक आयोगों की रिपोर्टें क्या कहती हैं? आंकड़े क्या हैं? एक बार कांग्रेस सरकार ने संसद में गृह मंत्रालय की रिपोर्ट रखी थी कि 1968-70 के बीच हुए 24 दंगों में 23 दंगे मुस्लिमों ने शुरू किए थे। फिर खुर्शीद ने ‘हिन्दू खून’ की बात क्यों छोड़ दी? वह किस के माथे है? या कि हिन्दुओं का खून नाले का पानी है जिस की क्या फिक्र!
वस्तुतः बात उलटी है। भारत में दंगे सौ सालों से मुस्लिम राजनीति की जानी-मानी तकनीक है। नेहरू जैसे मुस्लिम-प्रेमी ने भी कहा था कि मुस्लिम लीग का मुख्य काम सड़कों पर हिन्दू विरोधी दंगे करना है। ऐसा नहीं कि मुस्लिम नेता इस से इंकार करते थे, बल्कि गर्व करते थे। स्वयं जिन्ना से घमंड से कांग्रेस को धमकाया था, कि भारत-विभाजन मानो। और नहीं तो ‘हिन्दुओं की जान बचाने के लिए ही।’
वही सिलसिला शेष बचे भारत में भी चल रहा है। 1970 के दशक वाली ग्रृह मंत्रालय रिपोर्ट तो उस का संकेत भर है। पिछला गुजरात दंगा भी गोधरा मे भी मुसलमानों द्वारा 59 निरीह हिन्दुओं को जिन्दा जला देने से ही हुआ। ऐसे तमाम तथ्य सलमान खुर्शीद जानते हैं। फिर भी झूठे आरोप लगाते हैं। यही मुस्लिम लीग ने किया था। अब कांग्रेसी मुस्लिम वही कर रहे हैं। एक मोटा सा तथ्य है कि देश में कोई जिला भी नहीं, जहाँ से मुसलमानों को मार भगाया गया। जबकि पूरे कश्मीर, असम और केरल में जिले के जिले हिन्दुओं से लगभग खाली हो चुके। अन्य राज्यों में भी ऐसे इलाके बढ़ रहे हैं। हाल में कैराना उदाहरण है।
आज जो सब हो रहा है, उस की सत्तर वर्ष पहले कोई कल्पना नहीं कर सकता था। क्या सन् 1950 में कोई कांग्रेस नेता कह सकता था कि ‘भारत के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है’?
केवल पिछले केंद्रीय कांग्रेस शासन का हिसाब करें, तो कांग्रेस ने मुस्लिमों को अनगिन विशेष उपहार दिए। मुस्लिमों को खुश करने के लिए आतंकवाद निरोधी कानून पोटा हटा लिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्व-विद्यालय का ‘अल्पसंख्यक संस्थान’ दर्जा निरस्त कर दिया। फिर भी उसे वही सुविधा दी जाती रही। निजी शिक्षा संस्थानों में आरक्षण में मुस्लिम संस्थानों को छूट दे दी गई।
केंद्र में एक नया मंत्रालय ही ‘अल्पसंख्यकों’ के लिए बनाया गया। मदरसों के प्रमाण-पत्र को सी.बी.एस.ई. के समकक्ष बना दिया गया। जबकि प्रायः संपूर्ण मदरसा पाठ्यक्रम मजहबी है, जिसे सदियों से नहीं बदला गया। बल्कि जिस के असंख्य निर्देश दूसरे धर्मों का अपमान करते हुए हिंसा का आवाहन करते हैं। वही पढ़ाई कर यहाँ विश्वविद्यालयों में प्रवेश मिल जाता है!
कांग्रेस ने मुसलमानों को नौकरियों में आरक्षण देने का वादा किया था और उसे पूरा करने की फिराक में भी थी। वह तो 2014 में सरकार गिर गई, वरना कांग्रेस के सौजन्य से हिन्दुओं पर एक बार फिर मुस्लिम शासन का रास्ता और नजदीक हो जाता। पर सत्ता से बाहर होकर भी इस्लामी मजहब-समाज को सलामी और हिन्दू धर्म-समाज की हेठी कांग्रेस की नीति बनी रही है। मानो कांग्रेस ने अपने को स्वतंत्रता-पूर्व भारत की मुस्लिम लीग में बदलना तय कर लिया है। पिछले वर्ष कर्नाटक में कांग्रेस सरकार द्वारा टीपू सुलतान उत्सव मनाने में वही झलक थी।
टीपू भी इतना पुराना इतिहास नहीं कि उस की लीपा-पोती संभव हो। पूरा दक्षिण भारत जानता है कि टीपू-शासन हिन्दुओं के नाश और इस्लामी विस्तार के सिवा कुछ न था। अंग्रेजों से लड़ाई महज सत्ता के लिए थी। टीपू ने अन्य विदेशियों को भी यहाँ हमला करने का न्योता दिया था, जिन के साथ उस ने हिन्दू जनता को रौंदा था। यह सब विविध यूरोपीय, भारतीय दस्तावजों में सविस्तार दर्ज और दुनिया भर के पुस्तकालयों में उपलब्ध है।
इस प्रकार, टीपू, इमरान मसूद, भारत के टुकड़े चाहने वाले अफजल-भक्त रेडिकल, इस्लामी आतंकी और कश्मीरी अलगाववादी ये सब कांग्रेस को प्रिय हैं। इन सब के बाद भी मुस्लिम नेता कांग्रेस से सदैव नाराज रहे हैं। खुर्शीद का बयान और क्या है? लगता है, कांग्रेस के हिन्दू नेता विवेकहीन तथा बुद्धि व साहस से खाली हो चुके हैं। इसी कारण हमेशा तैयार, सतर्क और उद्धत मुस्लिम राजनीति कांग्रेस को अपना औजार बना रही है। भारत के हिन्दुओं को डॉ. अंबेदकर की चेतावनी व्यर्थ साबित हुई। कोई पार्टी उस चेतावनी को याद तक नहीं करती है!
यह देश के लिए अशुभ संकेत है। भाजपा और हिन्दू संगठनों में मुस्लिम राजनीति की काट की कोई तैयारी नहीं दिखती। देश के अन्य जिम्मेदार लोग, बड़े-बड़े संस्थान संज्ञा-शून्य या तटस्थ रहते हैं। मीडिया इसे केवल कांग्रेस बनाम भाजपा का खेल समझता है। मानो भारत में क्रमशः हिन्दू धर्म-समाज के खात्मे या देश के और टुकड़े होने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ना है। सब से चिन्ताजनक यही है।
शंकर शरण