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अरुण तिवारी की दो नई पुस्तकें

स्वामी सानंद का आत्मकथ्य : लेखक – अरुण तिवारी, प्रकाशक – पानी पोस्ट, कुल पृष्ठ – 156, सहयोग राशि – रुपये 170/- डाक खर्च अतिरिक्त।
 
भारतीय संस्कृति में नदी – विज्ञान व व्यवहार : लेखक अरुण तिवारी, प्रकाशक – पानी पोस्ट, कुल पृष्ठ – 52, सहयोग राशि – रुपये 70/- डाक खर्च अतिरिक्त।
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पुस्तक 01
स्वामी सानंद का आत्मकथ्य
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यह पुस्तक स्वामी श्री सानंद से बातचीत पर आधारित है। इस बातचीत को पढ़कर आप समझ सकेंगे कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि बांध निर्माण की कई परियोजनाओं में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर शामिल रहा एक इंजीनियर, अचानक कुछ बांधों के खिलाफ हो गया ? क्या हुआ कि जो प्रो. जी. डी. अग्रवाल, एकाएक गंगा की तरफ खिंचे चले आये ? कौन से कारण थे कि एक शिक्षक, इंजीनियर और वैज्ञानिक होने के बावजूद प्रो. अग्रवाल ने मां गंगा की अविरलता सुनिश्चित कराने की अपनी यात्रा की नींव वैज्ञानिक तर्कों की बजाय, आस्था के सूत्रों पर रखी ? क्या प्रेरणा थी कि प्रो. अग्रवाल, एक सन्यासी बन स्वामी श्री ज्ञानस्वरूप सानंद हो गये ? कौन सी पुकार थी, जिसने प्रो. अग्रवाल को इतना संकल्पित किया कि वह अपने प्राणांत की तैयारी कर बैठेे ? 
 
समझ सकेंगे कि स्वामी सानंद, गंगा की निर्मलता हेतु नमामि गंगे द्वारा मंजू़र परियोजनाओं पर चर्चा करने की बजाय, गंगा अविरलता सुनिश्चित कराने की मांग पर क्यों अड़े थे ? स्वामी सानंद ने गंगा मंत्रालय द्वारा जारी पर्यावरणीय प्रवाह संबंधी अधिसूचना का अपनी मृत्यु से चंद मिनट पहले तक क्यों विरोध   किया ? स्वामी सानंद क्यों और कैसा गंगा क़ानून चाहते थे ? 
 
जिस जी.डी. ने कभी स्वयं से पूछा कि क्या वह भागीरथी के सच्चे बेटे हैं, उसी जी. डी. ने स्वामी सानंद के रूप में प्रधानमंत्री को लिखे अपने अंतिम पत्र में स्वयं को गंगा का सच्चा बेटा क्यों लिखा ??
 
यह बातचीत गंगा के मुद्दे पर सरकार, नागरिक समाज और धर्माचार्यों के असली और दिखावटी व्यवहार व चरित्र की कई परतें तो खोलती ही है, स्वयं स्वामी सानंद के व्यक्तित्व के कई पहलुओं को भी उजागर करती है। इसके ज़रिए आप स्वामी सानंद की गंगा संकल्प सिद्धि की रणनीति के संबंध में फैली कई शंकाओं का भी समाधान पा सकेंगे। 
इस बातचीत के दौरान उल्लिखित रुङकी इंजीनियरिंग काॅलेज से लेकर बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी तक का उनका छात्र जीवन बताता है कि उस ज़माने में काॅलेज और विश्वविद्यालय सिर्फ उच्च शिक्षा ही नहीं, समाज में गौरव और नैतिकता के उच्च मानकों को स्थापित करने के भी केन्द्र थे। स्वामी सानंद अपनी युवावस्था में क्या विचार रखते थे ? चंद घटनाओं से आपको इसका एहसास होगा। 
 
बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने एक बार कहा था कि रिटायरमेंट के बाद सब आई. ए. एस. संत हो जाते हैं। क्या आई.आई.टी., कानपुर में अध्यापन से लेकर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव के प्रशासनिक पद तक की यात्रा और उसके बाद के सुकृत्यों के आधार पर प्रो जी. डी. अग्रवाल जी के बारे में भी यही कहा जा सकता है ? यह जानना दिलचस्प होगा। 
 
स्वामी श्री सानंद के पारिवरिक जीवन की एक झलक भी इस बातचीत में लेखक को सुनने को मिली। गंगा के विषय में स्वामी श्री सानंद की वैज्ञानिक और आस्थापूर्ण सोच, इस बातचीत का एक मुखर पहलू है ही। 
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पुस्तक 02 
भारतीय संस्कृति में नदी: विज्ञान व व्यवहार
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आज इस 21वीं सदी में हम नदियों को मां कहते ज़रूर हैं, लेकिन नदियों को मां मानने का हमारा व्यवहार सिर्फ नदियों की पूजा मात्र तक सीमित है। बकौल जलपुरुष श्री राजेन्द्र सिंह जी, असल व्यवहार में हमने नदियों को कचरा और मल ढोने वाली मालगाड़ी मान लिया है। 
यदि यह असभ्यता है तो   ऐेसे में क्या स्वयं को सभ्य कहने वाली सज्जन शक्तियों का यह दायित्व नहीं कि वे खुद समझें और अन्य को समझायें कि वे क्या निर्देश थे, जिन्हे व्यवहार में उतारकर भारत अब तक अपनी प्रकृति और पारिस्थितिकी को समृद्ध रख सका ? हमारे व्यवहार में आये वे क्या परिवर्तन हैं, जिन्हे सुधारकर ही हम अपने से रूठती प्रकृति को मनाने की वैज्ञानिक पहल कर सकते हैं ? 
 
मेरा मानना है कि बुनियादी तौर पर इसे समझना और समझाना, सबसे पहले मेरी उम्र की पीढ़ी का दायित्व है, जो खासकर 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी के प्रारम्भ में पैदा हुई संतानों को उतनी सुरक्षित और सुंदर पारिस्थितिकी सौंपने में विफल रही है, जितनी हमारे पुरखों ने हमें सौंपी थी। समझने और समझाने की इस कोशिश को मेरी पीढ़ी के लिए एक ज़रूरी प्रायश्चित मानते हुए मैं इसे कागज़ पर उतार रहा हूं।
 
‘भारतीय संस्कृति में नदी:  विज्ञान व व्यवहार’ पुस्तक इसी दिशा में उठा लेखक का प्रथम कदम है। 

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