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क्यों मैंनेजमेंट-मुलाजिम हो गए एक-दूसरे से दूर?

यह तो दिवाली के अगले दिन की ही बात है जब दिल्ली से सटे औद्योगिक क्षेत्र फरीदाबाद में एक नामी गिरामी कंपनी के एचआर विभाग के प्रमुख की उनकी कंपनी से ही कुछ समय पहले नौकरी से बर्खास्त किए गए एक मुलाजिम ने उन्हीं के दफ्तर में गोली मारकर हत्या कर दी थी। हत्यारा नौकरी से निकाले जाने के बाद से ही एचआर प्रमुख को खुलेआम धमकी भी दे रहा था। उधर,नोएडा की एक चीनी कंपनी से जुड़े कर्मियों ने नौकरी से एक झटके में निकाले जाने के बाद तगड़ा बवाल काटा। उन्होंने अपने ही दफ्तर पर पत्थर भी फेंके। इनका कहना था कि इन्हें बिना किसी नोटिस दिए नौकरी से निकाल दिया गया है। यह घटना भी विगत नवंबर महीने की है।

ये दोनों घटनाएं अपने आप में अपवाद की श्रेणी में नहीं आती हैं। हमारे देश में इस तरह की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हो रही है। यह एक स्पष्ट संकेत है कि प्रबंधन और कर्मियों के रिश्तों में कटुता बढ़ती ही चली जा रही है। इनके बीच सौहादर्पूण संबंध अब नहीं के बराबर रह गए हैं। स्थिति का मारपीट और हत्या तक पहुंचना ही यह सिद्ध कर रहा है कि इस अविश्वास के मूल में गंभीर कारण हैं। उन पर तटस्थ और निष्पक्ष भाव से चिंतन करने की आवशयकता है।

दरअसल उदारीकरण से पहले के दौर में स्थितियां आज की अपेक्षा अलग थीं। तब कर्मियों की यूनियनें हुआ भरा करती थीं। वो मजदूरों के हितों पर प्रबंधन से सार्थक बातचीत करके अनेक जटिल मसलों को सुलझा लेती थीं। मैनेजमेंट का रुख भी कमोबेश उदार या समझदारी ही रहता था। अब तो स्थितियां पूरी तरह से लगभग बदल चुकी हैं। इसकी मोटे तौर पर एक  वजह यह भी समझ आती है कि अब नौकरियों में स्थायित्व का भाव तो रह नहीं गया है। पुश्तैनी नौकरियों की तो बात ही छोड़ दीजिये। पहले एक कर्मी जिस कंपनी से जुड़ता था,फिर वह वहां पर लंबे समय तक नौकरी करता रहता था। प्राय:कर्मी रिटायर होने तक या उसके बाद तक भी नौकरी करते थे। अब वह बात रही नहीं है। अब तो ज़्यादातर नौकरियां कंट्रेक्ट पर आधारित हो गई हैं। ये कंट्रेक्ट आमतौर पर तीन से पांच साल तक के लिए ही होता है। कई जगहों पर नौकरी मात्र एक साल के लिए ही मिलती है। यानी कर्मी के सिर पर सदैव नंगी तलवार टंगी ही रहती है। उसे कभी भी नौकरी से निकाला जा सकता है। उधर, प्रबंधन के सामने भी चुनौतियां कम नहीं हैं। उनके मुनाफे का मार्जिन तो घट रहा है। उन्हें पहले की तुलना में अब कड़े कंपीटिशन से दो-चार होना पड़ रहा है। चीनी माल ने उनका  संकट और गहरा कर दिया है।

यानी दोनों के सामने ही चुनौतियां और कठिनाइयां बढ़ रही हैं। इसका ही शायद दुष्परिणाम है कि प्रबंधन और मुलाजिम एक-दूसरे से दूर हो गए हैं। दोनों में सबंध पूरी तरह से पेशेवराना हो गए हैं। अब उसमें भाईचारा तो समाप्त हो चुका है। इनके आपसी संबंधों में आई अविश्वास की भावना को हर हालत में दूर किया जाना चाहिए। जहाँ एक ओर किसी कंपनी के मैनेजमेंट को अपने कर्मियों को नौकरी से हटाने से पहले दस बार सोचना चाहिए तो कर्मियों को भी अपनी कंपनी के हितों को भी ध्यान में रखना ही होगा। वैसे अब तो पहले वाली स्थितियां तो लौट नहीं सकतीं। पहले तो आप बिना काम किये भी नौकरी में बने रहते थे। कर्मचारी की कोई जवाबदेही नहीं होती थी। लेकिन, अब तो सवाल पूछे ही जाएंगे। यहां मुझे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आजकल चल रहे अध्यापकों के आंदोलन का उल्लेख करने भर की अनमुति दे दीजिए। दरअसल वहां पर अध्यापकों का एक समूह इसीलिए नाराज है क्योंकि उधर बॉयोमैट्रिक मशीन की व्यवस्था लागू कर दी गई है। इसके तहत अब अध्यापकों का विश्वविद्यालय में आने-जाने का समय नोट होने लगा है। जिसका रिकॉर्ड भी कंप्यूटर रखेगायह बात उन्हें गवारा नहीं है। वे तो पहले वाली ही आजादी चाहते हैं। मतलब उनके आने-जाने पर कोई रोक-टोक ना हो, वे चाहे घर सोये रहें या मोमबत्ती जुलूस निकालने में अपना पूरा समय लगा दें, पर उनकी पगार हर साल ज़रूर बढ़ती रहे। अब यह संभव नहीं है। अब आपको अपने को रोज साबित करना होगा। आपकी जवाबदेही भी तय होगी। पहले यह नहीं था। पहले चौतरफा लोकतंत्र की बयार इतनी तेज रफ्तार से बहने लगी थी कि उसने अराजकता वाली स्थिति ही पैदा कर दी थी।

बहरहाल, प्रबंधन को भी अब अधिक मानवीय रुख अपनाना होगा। एक फैक्ट्री का श्रमिक हो, किसी आईटी कंपनी का इंजीनियर हो या किसी सार्वजनिक उपक्रम में काम करने वाला बाबू, उसके अधिकारों की तो अनदेखी नहीं होनी चाहिए। यह कोई अच्छी बात नहीं है कि कोई मैनेजमेंट किसी कर्मी को इस आधार पर नौकरी से चलता कर दे कि वह बीमार रहने लगा है। कुछ समय पहले मैंने एक प्रमुख कंपनी का अपने एक नए कर्मी को दिया गया नियुक्ति पत्र देखा। उसमें दी गई अनेक सेवा शर्तों में कुछ वास्तव में सही नहीं थीं। जैसे कि लगातार बीमार रहने पर कर्मी को नौकरी से बाहर करने वाली शर्त। क्या कोई चाहकर अपनी मर्जी से बीमार होता है?इसके साथ ही मैनेजमेंट को अपने पुराने कर्मियों को कंट्रेक्ट पर लाते हुए कुछ बातों का ख्याल रख लेना चाहिए। जैसे कि कई मैनेजमेंट नई व्यवस्था लागू करते हुए अपने कर्मियों की पुरानी व्यवस्था के दौरान जमा अवकाशों का पैसा नहीं देते। नई व्यवस्था से मतलब कंट्रेक्ट पर कर्मियों को नियुक्ति पत्र देने से है। यह सरासर गलत है। इसका तो सीधा सा मतलब यह हुआ कि मैनेजमेंट अपने कर्मियों को उनके पहले किए काम का भी पैसा नहीं दे रहा। कर्मी ने अवकाश तो काम करने के बाद ही अर्जित किया है न? वो उसे किसी ने उपहार में तो नहीं दिया है।

आप पाएंगे कि ऊपर से नीचे तक कामचोरी,काहिली और निकम्मेपन के कारण एयर इंडिया से लेकर महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल) जैसे बड़े संस्थान गंभीर संकट के दौर से गुजर रहे हैं। इस तरह के दर्जनों सार्वजनिक उपक्रम और भी हैं। एयर इंडिया पर घाटा बढ़ता ही चला जा रहा है। अब वह अपनी बेहतरीन जगहों पर स्थित अचल संपत्तियों को भी बेचना चाह रहा है, ताकि कंपनी का घाटा कम हो। निश्चित रूप से अगर वक्त पर एयर इंडिया मैनेजमेंट ने अपने सभी कर्मियों से सही तरह से काम लिया होता तो आज वाली नौबत तो नहीं आती। यानी मैनेजमेंट की कमियों के चलतेएयर इंडिया जैसे संस्थान में नौकरियां तेजी से घट रही हैं। यही हालात बहुत से अन्य संस्थानों का भी हो रहा है। एक बार ये संस्थान डूबने लगते हैं तो मैनेजमेंट खर्चे घटाने के लिए कर्मियों को निकालने लगते हैं। इसके चलते कर्मी हिंसक भी होने लगते हैं। तो अब मैनेजमेंट और मुलाजिमों को एक ही तरह से चलना भी होगा, सोचना भी होगा। वे अब मान लें कि गुजरा दौर तो कभी नहीं लौटेगा। मैनेजमेंट समझ जाएं कि अब उन्हें बाजार में कड़ी चुनौती मिलती रहेगी। अब उनकी मोनोपोली और दादागिरी का युग समाप्त हो गयालोहा हो तो टाटा का, जूता हो तो बाटा का, चीनी बिड़ला का और कार एम्बेसडर वाला युग अब इतिहास ही बनकर रह जायेगा। अगर वे अपने उत्पादों की गुणवत्तापर ध्यान देंगे तभी वे पहले से जैसे लाभ भी कमाने का सोच सकेंगे। पर अगर हेराफेरी करेंगे,तब वे बाजार से खारिज कर दिए जाएँगे। कर्मियों को भी अब समझना होगा कि उन्हें लगातार अपने को साबित करते रहना होगा। अब उन्हें बिना काम किए कोई तनख्वाह नहीं देने वाला।

आर.के.सिन्हा

(लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)

 

 

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