विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1997 की एक रिर्पोट के अनुसार बाजार में बिक रही चैरासी हजार दवाओं में बहत्तर हजार दवाईओं पर तुरंत प्रतिबंध लगना चाहिए। क्योंकि ये दवाऐं हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। लेकिन प्रतिबंध लगना तो दूर, आज इनकी संख्या दुगनी से भी अधिक हो गई है। 2003 की रिर्पोट के अनुसार भारत में नकली दवाओं का धंधा लगभग डेढ़ लाख करोड़ रूपये प्रतिवर्ष हो गया था, जो अब और भी अधिक बढ़ गया है। भारत में मिलने वाली मलेरिया,टीबी. या एड्स जैसी बीमारियों की पच्चीस फीसदी दवाऐं नकली हैं। कारण स्पष्ट है। जब दवाओं की शोध स्वास्थ्य के लिए कम और बड़ी कंपनियों की दवाऐं बिकवाने के लिए अधिक होने लगे, कमीशन और विदेशों में सैर सपाटे व खातिरदारी के लालच में डॉक्टर, मीडिया, सरकार और प्रशासन ही नहीं, बल्कि स्वयंसेवी संस्थाऐं तक समाज का ‘ब्रेनवॉश’ करने में जुटे हों, तब हमें इस षड्यंत्र से कौन बचा सकता है? कोई नहीं। केवल तभी बच सकते हैं, जब हम अपने डॉक्टर खुद बन जाऐं।
जिस वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति का प्रत्येक क्रांतिकारी आविष्कार 10-15 वर्षों में ही नऐ आविष्कार के साथ अधूरा,अवैज्ञानिक व हानिकारक घोषित कर दिया जाता है। उसके पांच सितारा अस्पतालों, भव्य ऑपरेशन थियेटरों, गर्मी में भी कोट पहनने वाले बड़े-बड़े डिग्रीधारी डॉक्टरों से प्रभावित होने की बजाय यह अधिक श्रेष्ठ होगा कि हजारों वर्षों से दादी-नानी के प्रमाणित नुस्खों व परंपराओं में बसी चिकित्सा को समझकर हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब अपनी खंडित दृष्टि के कारण डॉक्टर औषधि देकर एक नऐ रोग को शरीर में घुसा दें या शरीर में भयंकर उत्पाद पैदा कर दें और शास्त्र की अवैज्ञानिकता को छिपाने के लिए साइड इफैक्ट, रिऐक्शन जैसे शब्द जाल रचें, तब तक अपने आप ‘गिनी पिग’ बनने से बचाने के लिए जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब पैथोलॉजिस्ट-डॉक्टर की सांठ-गांठ से बात-बेबात रक्त-जांच, एक्स-रे, सोनोग्राफी, एमआरआई, ईसीजी आदि के चक्कर में फंसा हमसे रूपये ऐंठे जाने लगे, तब मानसिक तनाव से बचने और समय व धन की बर्बादी को रोकने के लिए जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जिस व्यवस्था में लाखों रूपये खर्च करने पर डॉक्टर बना जाता हो और विशेषज्ञ के रूप में स्थापित होते-होते आयु के 33-34 वर्ष निकल जाते हों, उस व्यवस्था में डॉक्टरों को नैतिकता का पाठ- ‘मरीज को अपना शिकार नहीं भगवान समझें’ पढ़ाने के बजाय यह अधिक जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब चारों ओर इस प्रकार का वातावरण हो कि डॉक्टर भय मनोविज्ञान का सहारा ले रोगी के रिश्तेदारों की भावनाओं का शोषण करने लगे, तब भय के सौदागरों से बचने के लिए जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जिस व्यवस्था में डॉक्टरों को ऐसी भाषा सिखायी जाऐ, जो आम जनता समझ न सके और इस कारण उन्हें रोगी के अज्ञान का मनमाना लाभ उठाने का भरपूर मौका मिले या दूसरे शब्दों में जिस व्यवस्था में धन-लोलुप भेड़ियों के सामने आम जनता को लाचार भेड़ की तरह जाना पड़ता हो, उस व्यवस्था में खूनी दांतों से आत्मरक्षा के लिए यह बहुत जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जिस देश में यूरोपीय-अमरीकी समाज की आवश्यक्ताओं के अनुसार की गई खोजों को पढ़कर डॉक्टर बनते हों और जिन्हें अपने देश के हजार वर्षों से समृद्ध खान-पान और रहन-सहन में छिपी वैज्ञानिकता का ज्ञान न हों, उस देश में स्वास्थ्य के संबंध में डॉक्टरों पर विश्वास करने के बजाय यह अधिक जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जिस दुनिया में कभी डेंगू, कभी एड्स, कभी हाइपेटेटिस बी, कभी चिकनगुनिया, कभी स्वाइन फ्लू के नाम पर आतंक फैलाकर लूटा जाता हो। वहां षड्यंत्रों के चक्रव्यूह से बचने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब स्वास्थ्य विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ रोग बढ़ने लगे, बुढ़ापे में होने वाले हृदय रोग 30-35 वर्ष की आयु में होने लगे, सामान्य प्रसव चीरा-फाड़ी वाले प्रसव में बदलने लगे, उक्त रक्तचाप, मधुमेह (डायबिटीज), कमर व घुटनों में दर्द घर-घर में फैलने लगे, तब इसका तथाकथित विज्ञान से स्वयं की सुरक्षा के लिए यह जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब कोई चिकित्सा मानव प्रेम या सेवा के आधार पर न कर धंधे के लिए करे, तब भी ठीक है। क्योंकि धंधे में एक नैतिकता होती है। लेकिन यदि कोई नैतिकता छोड़ इसे लूट, ठगी, शिकार आदि का स्रोत बना ले, तब बजाय सिर धुनने के समझदारी इसी में है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
बात अजीब लगेगी। अगर स्वस्थ्य रहने के लिए डॉक्टर बनना पड़ेगा, तो बाकी व्यवसाय कौन चलायेगा? ऐसा नहीं है जिस डॉक्टरी की बात यहां की जा रही है, उसके लिए किसी मेडीकल कॉलेज में दाखिला लेकर 10 वर्ष पढ़ाई करने की जरूरत नहीं है। केवल अपने इर्द-गिर्द बिखरे पारंपरिक ज्ञान और अनुभव को खुली आंखों और कानों से देख-समझकर अपनाने की जरूरत है। टीवी सीरियलों, फिल्मों, मैकाले की शिक्षा पद्धति, उदारीकरण व बाजारू संस्कृति ने हमें हमारी जड़ों से काट दिया है। इसलिए भारत की बगिया में खिलने वाले फूल समय से पहले मुरझाने लगे हैं। इस परिस्थिति को पलटने का एक अत्यंत सफल और प्रभावी प्रयास किया है मुबंई के उत्तम माहेश्वरी जी ने अपनी एक पुस्तक लिखकर, जिसका शीर्षक है ‘अपने डॉक्टर स्वयं बनें’। मैंने यह रोचक, सरल व सचित्र पुस्तक पढ़ी, तो लगा कि हम पढ़े-लिखे लोग कितने मूर्ख हैं, जो स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। goseva.rogmukti@gmail.com पर इमेल भेजकर आप उनसे मार्गदर्शन ले सकते हैं। जब ज्ञान बेचा जाए, तो वह धंधा होता है और जब बांटा जाऐ, तो वह परमार्थ होता है। आपको लाभ हो, तो इसे दूसरों को बांटियेगा।
विनीत नारायण