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महागठबंधन की उम्मीदें और भाजपा की चुनौतियां

उदार हिंदुत्व की पिच पर अल्पसंख्यक सहयोग से राफेल की उड़ान में पंचर के साथ कांग्रेस को मिली हालिया विधानसभा चुनावों में जीत ने उसकी उम्मीदें बढ़ा दी हैं। चुनाव नतीजों के बाद राहुल गांधी कितने उत्साह में हैं, उसे जाहिर करने के लिए उनके बयान को ही उद्धृत करना काफी होगा। उन्होंने कहा कि अभी विधानसभाओं में हराया है और 2019 में मोदी को लोकसभा में भी इसी तरह हराएंगे। इसके ठीक उलट भारतीय जनता पार्टी की चुनौतियां बढ़ गई हैं।
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी की हार विपक्षी महागठबंधन की अवधारणा को जमीन पर उतारने की दिशा में मददगार बन गई है। हालांकि उत्तर प्रदेश के दो प्रमुख दलों समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने महागठबंधन में शामिल होने से इनकार कर दिया है। अखिलेश यादव ने तो यहां तक कह दिया, ‘बीजेपी के लिए महागठबंधन कोई बड़ी चुनौती नहीं है। 2019 में भी हमारी वापसी होगी, हां यूपी में सपा-बसपा के गठबंधन से कुछ चुनौती जरूर खड़ी हो सकती है।Ó ऐसी खबर है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा विरोधी दोनों प्रमुख दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी साथ आ गए हैं। सूत्रों का दावा है कि दोनों दल महागठबंधन में कांग्रेस को शामिल करने के लिए कांग्रेस को पहले अमेठी और रायबरेली की ही सीटें देने को तैयार थीं, जहां से राहुल गांधी और सोनिया गांधी सांसद हैं। लेकिन खबरें हैं कि अब दोनों दल कांग्रेस को ये दोनों सीटें भी नहीं देना चाहते। राज्य में दोनों दल 39-39 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे और दो सीटें उन्होंने राष्ट्रीय लोकदल को देने का ऐलान किया है। ऐसे में सवाल है कि जब उत्तर प्रदेश में ही महागठबंधन नहीं बन पाएगा तो बाकी राज्यों में अगर वह बन ही जाए तो क्या होगा। शायद यही वजह है कि उत्साह में भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि महागठबंधन का कोई वजूद ही नहीं है।
महागठबंधन को लेकर अगर बड़ी कवायद कहीं चल रही है तो वे राज्य बिहार और झारखंड हैं। दोनों राज्यों में राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा मिलकर महागठबंधन बना रहे हैं। जिसमें उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी शामिल हो चुकी है और भारतीय राजनीति में मौसम वैज्ञानिक के रूप में मशहूर हो चुके रामविलास पासवान की पार्टी भी तैयारी में है। बिहार की चालीस और झारखंड की 14 सीटों को लेकर इन दलों के बीच सीटों का बंटवारा होना है। कहा जा रहा है कि बिहार में कांग्रेस को चार, राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी को छह और राष्ट्रीय जनता दल को 30 सीटें मिल रही हैं। अगर पासवान की पार्टी शामिल हुई तो वह छह सीटें मांग रही है। हालांकि एनडीए में उनकी मांग सात सीटों की है। लेकिन जनता दल यू और भारतीय जनता पार्टी के बीच गठबंधन के बाद उनके लिए शायद ही इतनी सीटें बचे। नीतीश से अपनी पुरानी अदावत के चलते उपेंद्र कुशवाहा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन छोड़ चुके हैं। उन्होंने यह आरोप लगाते हुए गठबंधन को साढ़े चार साल बाद छोड़ा कि प्रधानमंत्री मोदी ने कैबिनेट को रबर स्टैंप बना दिया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे पर सरकार चल रही है। सवाल यह है कि उन्हें यह ज्ञान साढ़े चार साल बाद हुआ। लेकिन यह तय है कि मोदी को हराने के लिए महागठबंधन में पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी कूदी तो तय है कि राष्ट्रीय जनता दल की सीटें घटेंगी। झारखंड में भी गैर झारखंड मुक्ति मोर्चा तीनों दलों को एक-एक सीट मिल सकती है। एक दौर में लालू के चेले रहे नागमणि इन दिनों उपेंद्र कुशवाहा के प्रमुख सलाहकार हैं। उन्हें झारखंड की चतरा सीट से लडऩा है और महागठबंधन में उनकी वजह से चतरा सीट राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी को मिल रही है।
महागठबंधन की आहट तमिलनाडु में भी जोरशोर से सुनाई दे रही है। द्रमुक नेता एम करूणानिधि की मूर्ति के अनावरण समारोह में जिस तरह द्रविड़ मुनेत्र कषगम् प्रमुख स्टालिन ने राहुल गांधी को मोदी को हराने वाला नेता बताया, उससे साफ है कि वे महागठबंधन की ओर एक कदम बढ़ा चुके हैं। इस गठबंधन में बाकी छोटे दलों का क्या रूख होगा, अभी तय नहीं है। सीमित ही सही, रजनीकांत और कमल हासन की पार्टियों का भी वजूद है। उन्होंने अभी अपना रूख तय नहीं किया है। यह तय है कि अगर द्रमुक कांग्रेस की अगुवाई वाले महागठबंधन में शामिल होगी तो उसकी धुर विरोधी अन्ना द्रमुक को भारतीय जनता पार्टी के साथ रहना होगा। तमिलनाडु के दोनों प्रमुख दलों का संकट यह है कि अब उनके चमत्कारिक नेताओं करूणानिधि और जयललिता का निधन हो चुका है। इसलिए वे अब शायद ही अपने दम पर जीत हासिल कर सकें।
महागठबंधन की राह जम्मू-कश्मीर में भी खुल चुकी है। वहां भाजपा के विरोध में पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस में एकता हो चुकी है। महागठबंधन के साथ अपने वजूद के लिए तरस रही वामपंथी पार्टियां भी कदम आगे बढ़ा रही हैं। सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी तो महागठबंधन और मोदी के विकल्प के लिए काफी उत्साहित हैं। वे कह चुके हैं कि मोदी विरोधी गठबंधन को लेकर महागठबंधन की राह में अड़ंगा सिर्फ अखिलेश और मायावती ही नहीं हैं, बल्कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख के चंद्रशेखर राव भी हैं। ममता और चंद्रशेखर राव तो फेडरल फ्रंट बनाने के समर्थन में हैं। महागठबंधन और फेडरल फ्रंट में मोटे तौर पर अंतर यह है कि फेडरल फ्रंट में हर दल के नेता की हैसियत बराबर की होगी, जबकि महागठबंधन एक ही अवधारणा पर चल रहा है कि राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। राहुल गांधी को लेकर पहले मजाक उड़ाया जाता था। लेकिन तीन राज्यों की जीत के बाद उनके प्रति अवधारणा बदली है। बहरहाल ममता हों या चंद्रशेखर राव, दोनों को लगता है कि जिस तरह उनका उनके राज्यों में आधार है, उसकी वजह से अगर चुनाव नतीजों के बाद बड़ा बना तो वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं। वहीं इनकी चिंता यह भी है कि अगर वे कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन में शामिल हुए तो उनके पास जो मुस्लिम वोट बैंक का बड़ा आधार भारतीय जनता पार्टी के विरोध के नाम पर बना है, वह उनसे छिटक जाएगा और वह कांग्रेस के पास चला जाएगा। इस वजह से ये महागठबंधन में शामिल होने से छिटक रहे हैं।
कांग्रेस के साथ महागठबंधन में शामिल होने से समाजावादी और बहुजन समाज पार्टी भी इसीलिए हिचक रही है कि अगर वे कांग्रेस के साथ आए तो उत्तर प्रदेश में उनका जो बड़ा आधार वोटबैंक है, उसमें कांग्रेस सेंध लगाकर अपना आधार बढ़ा सकती है। महागठबंधन में शामिल होने को लेकर उड़ीसा के बीजू जनता दल की भी अपनी कोई साफ राय नहीं है। वैसे मोटे तौर पर माना जा रहा है कि वह महागठबंधन में शामिल नहीं होगी। उसके एक नेता ने तो बयान भी दिया है कि किस गठबंधन में शामिल होना है, इस पर ध्यान चुनाव नतीजों के बाद दिया जाएगा। यानी साफ है कि बीजू जनता दल बिना किसी गठबंधन के लोकसभा चुनावों में उतरने जा रहा है।
महागठबंधन के लिए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू उतावले हैं। इसके पीछे उनकी अपनी वजह है। दरअसल वे आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिलाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने नरेंद्र मोदी को दबाव में लेने के लिए हरमुमकिन कोशिश की, लेकिन वे नाकाम रहे। इसके बाद पहले उन्होंने एनडीए से नाता तोड़ा और उस कांग्रेस से हाथ मिला लिया, जिसके विरोध में ही तेलुगू देशम पार्टी का गठन हुआ था। उन्होंने नरेंद्र मोदी को अपने हितों के लिए सबक सिखाने की ऐसी ठानी है कि वे हर मुमकिन मंच से जाकर मोदी के खिलाफ अभियान चला रहे हैं।
महागठबंधन को लेकर अभी भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी दल शिवसेना का रवैया तो साफ नहीं है, लेकिन यह तय है कि वह महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में अपनी उपेक्षा के चलते पैदा टीस का जवाब जरूर देगा। शिवसेना का गठन कांग्रेस विरोधी नीतियों के विरोध में हुआ। लेकिन अब उसके भी प्रवक्ता संजय राउत कहने लगे हैं कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने लायक हैं।
ऐसा नहीं कि 2014 के बाद उसे हार नहीं मिली। पहले दिल्ली विधानसभा चुनावों में उसे हार का सामना करना पड़ा। उसके बाद भारतीय जनता पार्टी बिहार के मैदान में खेत रही और फिर पंजाब में भी उसने सत्ता खो दी है। इसके बावजूद लगातार मिलती चुनावी जीतों ने भारतीय जनता पार्टी के अजेय बने रहने का मिथ गढ़ दिया। यह मिथ ही था कि उसे कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को आगे बढ़ाने के लिए उत्साहित करता रहा। लेकिन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की हारों ने उसके आत्मविश्वास को हिला दिया है। अब उसके नेता कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को जोरशोर से उछालने से बच रहे हैं। हालांकि हरियाणा के पांच नगर निगमों के आए नतीजों में मिली जीत ने उसके घावों पर मरहम लगाने का काम जरूर किया है। बहरहाल इस जीत के बाद राहुल गांधी ने किसानों की समस्या को प्रमुख मुद्दा बनाकर राज्यों पर दबाव बढ़ा दिया है कि किसानों की कर्ज माफी के लिए वे सोचें। हालांकि कर्नाटक में उनकी और जनता दल एस की सरकार ने किसानों के साथ किया वादा नहीं निभाया है। वहां कर्ज माफी आधे-अधूरे तरीके से ही हुई। लेकिन मध्य प्रदेश में जिस तरह किसानों का कर्ज माफ किया गया, उससे भाजपा शासित गुजरात और असम पर भी दबाव बढ़ा है। और उन्होंने भी कर्ज माफी की घोषणाएं करनी शुरू कर दी हैं।
महागठबंधन में रहना है या बाहर, इसे लेकर वाइएसआर कांग्रेस, पीएमके, डीएमडीके समेत पूर्वोत्तर के राज्यों के छोटे दलों की भी बड़ी भूमिका होगी। वैसे एक दौर था कि भारतीय जनता पार्टी चाहती थी कि मुकाबला उसके बनाम अन्य हो। नरेंद्र मोदी के उभार ने यह हालात उत्पन्न भी किये। लेकिन भाजपा ने एक गड़बड़ी की। उसने एक साथ कई मोर्चे खोल दिए। राजनीति में एक साथ तमाम लोगों को दुश्मन बनाना अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन भाजपा के साथ अब भी बड़ी बात यह है कि नरेंद्र मोदी की निजी छवि खराब नहीं हुई है। लेकिन उसके पास करने को अब बहुत ज्यादा वक्त नहीं बचा है। इसलिए उसे देखना होगा कि महागठबंधन के बीच कितने सुराख हैं और उन सुराखों में अपने पैर किस तरह डालकर उन्हें बढ़ाया जा सकता है।

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बिहार : गठबंधन की गंदगी

राजनीति अब विचारधारा की लड़ाई नहीं रह गई है, बल्कि ये लड़ाई रह गई है अपने शक्ति प्रभुत्व को बढ़ाने की, यही राजनीति दिखने को मिल रही है बिहार में। बिहार में जब से जदयू भाजपा के बीच गठबन्धन हुआ है तभी से रालोसपा व लोजपा भाजपा के साथ गठबन्धन में अपने को असहज महसूस कर रहे थे। उसका उदाहरण देखने को तब मिला जब जीतन राम मांझी ने अपने को भाजपा से अलग किया और अभी कुछ ही दिन पहले रालोसपा ने अपने को एनडीए गठबंधन से अलग किया। इन दोनों पार्टी के अलग होने का कारण कुछ भी रहा हो लेकिन जीतन राम मांझी ने बढ़ते बिहार अपराध के साथ ही शिक्षा व स्वास्थ्य के बिगड़ते हालात पर नीतीश को दोषी ठहराते हुए भाजपा से गठबन्धन तोड़ा। दूसरी ओर उपेंद्र कुशवाहा ने लोकसभा में मन मुताबिक सीट नहीं मिलने के कारण गठबंधन छोड़ा। कुशवाहा का मुख्य कारण यह भी है कि भाजपा गठबंधन में हमेशा उन्होंने अपने को नीतीश से बड़े जनाधार वाले नेता घोषित करने का पूरा प्रयास किया, लेकिन इनको अपनी राह अलग निकलना ही पड़ा। जिस लालू राज को उपेंद्र कुशवाहा जंगल राज की संज्ञा देते थे फिर उसी लालू जी के महागठबंधन का हिस्सा इनको बनना पड़ा, यानी विचारधारा गौण पड़ गई है बिहार की राजनीति में। साथ ही जिस विचारधारा के खिलाफ व जिस महागठबंधन के खिलाफ जीतन राम मांझी व उपेंद्र कुशवाहा चुनाव लड़े थे, मांझी तो लोकसभा हार गए थे, लेकिन उपेंद्र कुशवाहा जीत गए थे, लेकिन अब उसके विपरीत विचारधारा की पार्टी से चुनाव लड़ेंगे तो जनता के बीच ये क्या बोलेंगे? जबकि इन नेताओं को मालूम नहीं कि राजनीति से राष्ट्र के भाग्य का निर्धारण होता है। निर्धारक राजनेता होते हैं और जिस राज्य का राजनेता इस तरह का निकल जाए, उस राज्य का पतन होना स्वभाविक है क्योंकि किसी भी समाज की संस्कृति उसकी राजनीति का चरित्र निर्धारण करती है और राजनेता से ही वहां की जनता की पहचान होती है।
जब लक्ष्य केवल सत्ता प्राप्ति ही हो, चाहे किसी भी तरीके से हो, तो विचारधारा मिले बिना समझौता करना ही पड़ेगा। यही दिखने को मिल रहा है बिहार में। आज बिहार में कोई भी पार्टी के बड़े नेता राजनीति को सत्ता प्राप्ति का खेल मानने लगे हैं। उन्हें आदर्शों की कोई परवाह नहीं है। तभी तो वे कपड़े की तरह पार्टी बदलते हैं। जो अपनी पार्टी बनाये हुए नेता हैं, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता अपना गठबन्धन बदलते हैं। इसलिए दोष इन नेताओं का नहीं, दोष उन लोगों का है जो इन नेताओं के साथ रातो-रात अपना विचार बदल देते हैं, और ऐसे नेता के अनुयायी बन जाते हैं। लेकिन बिहार में ये भी दिखने को मिल रहा है कि समय के साथ इन नेताओं की लोकप्रियता में बहुत ही ज्यादा गिरावट आ रही है।
समाज एवं राष्ट्र को बनाने का दम भरने वाली राजनीति एक ऐसा दलदल बन गई है जिसमें आदर्श या मूल्य के पैर टिक नहीं पा रहे हैं। तभी तो जिस नेता को जिधर मन कर रहा है उधर अपनी विचारधारा को छोड़कर सिर्फ सांसद विधायक मंत्री बनने के लिए, सिर्फ सशरीर चेहरा लेकर जा रहा है।

उमेश चतुर्वेदी

 

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