देश को 80 लोकसभा सांसद देने वाले उत्तर प्रदेश की राजनीति इतनी जटिल है कि बड़े से बड़े धुरंधर विश्लेषकों के पसीने छूट जाते हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक पाठशाला के विद्यार्थी वर्तमान में पूरे देश में ध्वज वाहक बने हुये हैं। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भाजपा का खेल बिगडऩे के बाद सपा-बसपा अब उत्तर प्रदेश में साथ आ गए हैं। कांग्रेस से दोनों दल परहेज दिखा रहे हैं। ऐसा इन्होंने इन तीन राज्यों में भी किया था किन्तु बाद में भाजपा को रोकने का बहाना बनाकर ये तीनों दल साथ आ गए। उत्तर प्रदेश में भी ये ऐसा ही करेंगे। कांग्रेस को अलग अलग दिखाने वाले इन दलों ने अमेठी और रायबरेली सीट से प्रत्याशी न उतारने की घोषणा भी कर दी है। भाजपा के विरोध और सत्ता प्राप्त करने के लिए बन रहा ये गठबंधन वैचारिक मोर्चे से काफी दूर होने के कारण बार बार बनता-बिखरता रहता है। इन सब राजनीतिक घटनाक्रमों के बीच हिन्दुत्व शब्द सब दलों के लिए राष्ट्रीय विमर्श बन चुका है।
अमित त्यागी
उत्तर प्रदेश को यूं ही राजनीति का अखाड़ा नहीं कहा जाता। यहां से निकले लोग पूरे देश की राजनीति की दिशा तय करते हैं। वर्तमान में कई महत्वपूर्ण राज्यों के राज्यपाल उत्तर प्रदेश से आते हैं। एक ओर केशरी नाथ त्रिपाठी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल हैं तो कल्याण सिंह राजस्थान के। लालजी टंडन बिहार के राज्यपाल हैं तो सतपाल मलिक सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश जम्मू और कश्मीर के। चूंकि उत्तर प्रदेश की राजनीति दिल्ली के लिए सदा से अहम रही है इसलिए इन संवैधानिक पदो का सांकेतिक महत्व बढ़ जाता है। दिल्ली के संदर्भ में देखें तो नरेंद्र मोदी एवं राजनाथ सिंह जैसे कद्दावर उत्तर प्रदेश से हैं तो महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द भी। इन सभी में एक खास बात यह है कि ये एक ही विचारधारा से आते हैं और अपने अपने क्षेत्रों में अपनी विचारधारा के हिसाब से काम कर रहे हैं। आज जब भाजपा तीन राज्यों के चुनाव हार चुकी है और उसके लिए 2019 के लोकसभा चुनाव चुनौती बने हुये हैं। ऐसे में कश्मीर विषय और अयोध्या भाजपा के लिए महत्वपूर्ण बन गए हैं। सबसे पहले कश्मीर की बात करते हैं। जबसे सत्यपाल मलिक कश्मीर के राज्यपाल बने हैं तबसे कश्मीर की राजनीति गरमा गयी है। पिछले कई वर्षों से कश्मीरी लोग राजनीति को लगभग भूल गए थे। आतंकवादियों के द्वारा खौफ पैदा करना एवं सुरक्षा बलों के द्वारा उनको मुंहतोड़ जवाब देना ही कश्मीर में खबर बनता था। संघर्ष और संघर्ष विराम की सूचनाओं के बीच कश्मीर में सियासी दांव पेंच कहीं पिछड़ गए थे। इसके बाद जैसे ही उत्तर प्रदेश के रहने वाले और बिहार में राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक कश्मीर के राज्यपाल बने तो कश्मीर में राजनीति दिखाई देने लगी। कश्मीर के संदर्भ में केंद्र के नौकरशाह एक ऐसी धारणा बनाए रहते थे कि कश्मीर को या तो पूर्व सैनिक संभाल सकते हैं या नौकरशाह वहां की स्थिति समझ सकते हैं।
जम्मू कश्मीर में पीडीपी, नेशनल कान्फ्रेंस एवं कांग्रेस समय समय पर अपने पत्ते खंगालते रहते हैं। पीडीपी-भाजपा की सरकार जाने के बाद सभी दल नए विकल्प तलाशने में जुट गए थे। राजनैतिक दलों को किसी चुनाव की जल्दी नहीं थी। सब 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी कर रहे थे। सभी दलों का आंकलन था कि केंद्र सरकार उसी समय विधानसभा चुनाव भी कराएगी। राष्ट्रपति शासन की आशा किसी को नहीं थी। सत्यपाल मलिक की राजनीति यहां सबके सामने आई। चूंकि, राजनीति के नियम तो सब जगह एक से होते हैं सिर्फ स्थान देखकर कुछ परिवर्तन करना होता है। ऐसे में सत्यपाल मलिक का मास्टर स्ट्रोक काम कर गया। कश्मीरी शतरंज की बिसात पर महबूबा और अब्दुल्ला एक बार में चित हो गए। अब जम्मू कश्मीर पर गेंद केंद्र के पाले में है। कुछ ऐसा ही अयोध्या के संदर्भ में है। फैजाबाद को अयोध्या बनाकर योगी आदित्यनाथ ने हिन्दुत्व का कार्ड तो खेल दिया है किन्तु अब राम मंदिर निर्माण के लिए केंद्र पर सारी अपेक्षाएं आकर टिक गयी हैं। उच्चतम न्यायालय तो पहले ही कह चुका है कि मंदिर विषय उसकी प्राथमिकता में ही नहीं है। तो फिर कैसे होगा मंदिर का निर्माण? साढ़े चार साल से ज़्यादा सत्ता में रहने के बावजूद भाजपा ने इस विषय पर कुछ नहीं किया। अब जब संतों ने इस विषय पर मांग उठानी शुरू की तो संघ भी इसमें कूद गया। एक ओर संघ प्रमुख राम मंदिर के लिए कानून को आवश्यक बता रहे हैं तो दूसरी तरफ केंद्र सरकार इस विषय पर ढुलमुल रवैय्या अपनाए है। ऐसे में जनता के बीच जो संदेश जा रहा है उसके अनुसार ऐसी धारणा बन रही है कि भाजपा राम मंदिर विषय पर सिर्फ और सिर्फ राजनीति कर रही है। मंदिर निर्माण के लिए उसके पास न कोई रूपरेखा है और न ही कोई स्पष्ट नीति। इसके विपरीत विपक्षी दल कांग्रेस जनता की नब्ज़ धीरे धीरे पकडऩे लगी है। वह नब्ज़ जो पिछले कुछ सालों से उसके हाथों से छूट सी गयी थी। मोदी सरकार से जिन क्षेत्रों में जनता की अपेक्षाएं पूरी नहीं हुयी हैं वहां वहां राहुल गांधी लगातार प्रहार कर रहे हैं। किसानों की कजऱ् माफी के द्वारा तीन राज्यों में सरकार बनाने का उनका प्रयोग सफल रहा है। वह अब इस प्रयोग को पूरे देश में कर सकते हैं। अब एक तरफ राहुल की कजऱ् माफी है तो दूसरी तरफ मोदी का 2022 तक किसानों की आय दुगनी करने का आश्वासन। चूंकि कर्जमाफ़ी के द्वारा किसान को तुरंत लाभ होता है तो वह उधर ज़्यादा लाभ देकर फिसल जाता है।
भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में एक बड़ा खतरा कांग्रेस की कर्जमाफ़ी की घोषणा से ज़्यादा सपा-बसपा का गठबंधन भी है। एक तरफ जनता की अपेक्षाएं पूरी न होने का मर्म है तो दूसरी तरफ जातिगत आधार पर सुदृढ़ होता गठबंधन। हालांकि, कांग्रेस इस गठबंधन में शामिल नहीं है किन्तु इस गठबंधन के द्वारा अमेठी और राय बरेली में प्रत्याशी न खड़े करने की घोषणा इस बात को साबित करती है कि कांग्रेस अघोषित तौर पर इनके ही साथ है, ऐसी संभावना है कि कांग्रेस के द्वारा सवर्ण उम्मीदवार ज़्यादा उतारे जाएंगे जो भाजपा प्रत्याशी के लिए वोट कटवा ही साबित होंगे। गठबंधन की सीट पर चूंकि बसपा या सपा के किसी एक उम्मीदवार को ही टिकट मिलेगा ऐसे में टिकट काटने वाला प्रत्याशी शिवपाल यादव की पार्टी से चुनाव में उतारने की कोशिश करेगा। शिवपाल इस तरह से लोकसभा 2019 में महत्वपूर्ण भूमिका में आ चुके हैं। मायावती के भाई लालजी टंडन इस समय बिहार के राज्यपाल हैं। मायावती और भाजपा के बीच की वह सबसे अहम कड़ी हैं। बिहार में भी जेडीयू एवं राम विलास पासवान ने भाजपा से काफी सीटें प्राप्त कर ली हैं। भाजपा की गिरती लोकप्रियता की वजह से भाजपा को जेडीयू और पासवान के सामने घुटने टेकने पड़ गए हैं। दलित वोटों पर प्रभाव रखने वाली मायावती 2014 में एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत पायी थीं किन्तु 2019 आते आते वह सबसे महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका में आ चुकी हैं। शायद यही राजनीति की रोचकता है जिसमें खेल का फैसला अंतिम गेंद पर होता है।
2014 के बाद हिन्दू शब्द बना गौरव का प्रतीक
यह सुनने में थोड़ा अजीब जरूर लगता है किन्तु यह एक बड़ा सच है कि 2014 के पहले किसी व्यक्ति के द्वारा स्वयं को हिन्दू कहना मात्र सांप्रदायिक हो जाता था। मजहबी अल्पसंख्यकों की बात करने वालों को सेकुलर कहा जाता था। अब चार साल के बाद स्थितियां बदली हैं। सेकुलर राजनीति करने वाले कई नेता हिन्दुत्व की बात करने लगे हैं। मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने गांव स्तर पर सरकारी गौशाला खोलने की घोषणा कर दी है तो राम गमन मार्ग का निर्माण भी किया जाना प्रस्तावित है। राजस्थान में कांग्रेस के घोषणापत्र में शिक्षा में वेदों को शामिल करने की बात कही गयी तो ममता बनर्जी भी हिन्दू वोट बैंक पर ध्यान देने लगी हैं। एक ओर अखिलेश यादव मथुरा में कृष्ण की मूर्ति बनवा रहे हैं तो दूसरी तरफ वह उत्तर प्रदेश में अंकोरवाट की तजऱ् पर हिन्दू मंदिर बनवाने की बात करते हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक पाठशाला से कढ़े और संघ की पाठशाला में पढ़े बहुत से राजनीतिज्ञों का पूरे देश में फैलना भी इसकी एक वजह हो सकता है। महात्मा गांधी ने 1933 में नेहरू को लिखे एक पत्र में कहा था कि हिन्दुत्व को छोडऩा असंभव है। हिन्दुत्व के कारण ही मैं अन्य धर्मों से प्रेम करता हूं। कल्पना कीजिये अगर वर्तमान में यह बात गांधी जी कहते तो क्या उन पर सांप्रदायिक होने का आरोप नहीं लगता?
अब यदि गांधी जी की इसी बात को आधार माने तो कांग्रेस की जड़ों को सींचने वाले गांधी जी की इस मूलभावना को जैसे ही कांग्रेस ने छोड़ा उसका पतन शुरू हो गया। डॉ. मनमोहन सिंह ने भी एक बार बयान दिया था कि भारत के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है। उनके इस बयान से बहुसंख्यक वर्ग बहुत आहत हुआ था। अब कुछ भी हो और कैसे भी हो रहा हो, एक राष्ट्र के रूप में भारतीय संस्कृति खुश है। अब हिन्दू कहना शर्मनाक नहीं है। ‘हिंदुनेस’ दिख रही है। राजनीतिक रूप से हिंदुनेस बिक रही है। सभी दल हिंदुनेस को अपने वैचारिक राष्ट्रीय चिंतन में स्थान दिये हुये हैं। अब क्या यह पिछले चार सालों की बड़ी उपलब्धि नहीं है? अब उत्तर प्रदेश सरकार कुम्भ की तैयारियों में लीन है। प्रत्येक गांव से लोग यहां लाने की तैयारी है। जब तक राम मंदिर का निर्माण शुरू नहीं होता है तब तक कुम्भ के जरिये ही हिन्दुत्व का कार्ड भाजपा खेलती रहेगी।
हिन्दुत्व का प्रतीक कुम्भ मेला
शास्त्रों के अनुसार चार विशेष स्थान हैं, जहां कुम्भ मेला लगता है। नासिक में गोदावरी नदी के तट पर, उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर, हरिद्वार और प्रयागराज में गंगा नदी के तट पर इसका आयोजन होता है। सबसे बड़ा मेला कुंभ हर 12 साल बाद लगता है और हर 6 साल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है। प्रयाग राज में इस बार अर्धकुंभ है जिसकी तैयारियां कुम्भ जैसी की जा रही हैं। प्रयागराज में अर्धकुंभ 14 जनवरी 2019 से प्रारंभ हो जाएगा और 04 मार्च 2019 तक चलेगा। इसमें करीब 12 करोड़ से ज्यादा लोगों के आने की संभावना जताई जा रही है। अर्धकुंभ मेले की तैयारी में करीब 4200 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं। यूपी सरकार ने इसके लिए केंद्र से एक तिहाई से ज्यादा राशि मांगी है, जो 2013 के कुंभ मेले की राशि से तीन गुना ज्यादा है। इस मेले के लिए रेलवे 800 स्पेशल ट्रेन चलाने जा रही है। इनलैंड वाटरवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया कुंभ क्षेत्र में नाव-बोट की व्यवस्था कर रही है। किलाघाट, सरस्वती घाट, नैनी ब्रिज, सुजावन घाट पर फ्लोटिंग टर्मिनल बनाए हैं। वाराणसी से प्रयागराज के लिए एयरबोट चलेगी, जो एक बार में 80 किलोमीटर की रफ्तार से 16 लोगों को ले जा सकेगी। लग्जरी टेंट की व्यवस्था की जा रही हैं। इसमें सबसे महंगे टेंट का किराया करीब 35 हजार रुपए होगा। कुंभ कैनवास टेंट सिटी में 2500 रुपए में एक रात और 1000 रुपए प्रति बेड के हिसाब से भी टेंट की सुविधा दी जा रही है। कुंभ मेले में पांच बड़े सांस्कृतिक पंडाल (गंगा पंडाल, प्रवचन पंडाल, सांस्कृतिक पंडाल) बनाए जा रहे हैं।
– विष्णु विनोदम महाराज (वृन्दावन)
राम मंदिर निर्माण
इच्छाशक्ति हो तो राह भी है
राम मंदिर निर्माण कैसे हो सकता है उस पक्ष पर हमारा ध्यान होना चाहिए। तुलसीदास ने एक दोहे में लिखा है। राम जन्म मंदिर जहं, लसत अवध के बीच। तुलसी रची मसीत तहं, मीर बाकी खाल नीच॥ गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस हालांकि कानूनी साक्ष्य के रूप में तो ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है किन्तु उस दौर के लोगों की सोच एवं वास्तविकता का परिचायक अवश्य है। अब इस विवाद को समझने के लिए डेढ़ सौ साल पुराने कानूनी इतिहास को कुछ समझना होगा।
सबसे पहले 1853 में हिंदुओं द्वारा आरोप लगाया गया कि भगवान राम के मंदिर को तोड़कर यहां मस्जिद का निर्माण किया गया है। इसके बाद 1859 में ब्रिटिश सरकार ने विवादित भूमि की बैरीकैटिंग करवा दी। मसले का अस्थायी हल निकालते हुये तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार ने विवादित भूमि के आंतरिक और बाहरी परिसर में मुस्लिमों और हिन्दुओं को अलग अलग प्रार्थना करने की इजाजत दे दी। इसके बाद 1885 में पहली बार यह मामला न्यायालय के समक्ष पेश किया गया। यह वाद महंत रघुवरदास द्वारा दायर किया गया था। 1944 में शिया बोर्ड द्वारा इसका हस्तांतरण सुन्नी बोर्ड को कर दिया गया। 1944 का यह हस्तांतरण अब इस वाद का प्रमुख है। 23 दिसम्बर 1949 को करीब 50 हिन्दुओं ने केन्द्रीय स्थल में रामलला की प्रतिमा स्थापित कर दी। 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने फ़ैज़ाबाद अदालत में रामलला की पूजा अर्चना करने की विशेष इजाजत मांगते हुये मूर्ति हटाने पर न्यायिक रोक की मांग की। 5 दिसम्बर 1950 को महंत परमहंस रामचन्द्र दास ने हिन्दू प्रार्थनाएं जारी रखने और विवादित परिसर में मूर्ति को रखने के लिए मुकदमा दायर कर दिया। इस तरह से कई चरणों से गुजरते हुये प्रारम्भिक सौ सालों में यह विवाद आगे बढ़ता चला गया। वर्तमान विवाद के एक बड़े एवं अहम मोड़ के रूप में एक फरवरी 1986 का दिन माना जाता है जिस दिन फ़ैज़ाबाद जि़ला न्यायाधीश ने विवादित स्थल पर हिन्दुओं को पूजा की इजाजत देते हुये ताले खोलने का आदेश दिया।
अब अगर वर्तमान सरकार से मंदिर निर्माण के लिए कानूनी हस्तक्षेप की उम्मीद की जाए तो उसके भी रास्ते हैं। राम जन्मभूमि विवाद करोड़ों हिन्दुओं की आस्था का विषय है। वर्तमान में उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर इस विवाद में तीन पक्षकार हैं। रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा एवं सुन्नी वक्फ बोर्ड। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार 2.77 एकड़ संपत्ति का बंटवारा इन तीनों के बीच कर दिया गया था। न्यायालय का फैसला किसी एक पक्ष के पक्ष में किया निर्णय नहीं था बल्कि तीनों पक्षों में समझौते का प्रयास ज़्यादा था। अब एक महत्वपूर्ण तथ्य देखिये। विवादित ढांचा ध्वस्त होने के बाद तत्कालीन केंद्र सरकार ने 1993 में विवादित स्थान समेत संपूर्ण परिसर की 67 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर खुद का अधिकार कर लिया था। इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने 1994 में अधिग्रहण को मान्यता देते हुए अयोध्या से जुड़े मुकदमों के निस्तारण न होने तक भूमि के इस्तेमाल पर रोक भी लगा दी थी। चूंकि, यह विवादित ज़मीन का दीवानी वाद है इसलिए इसमें ज़मीन का मालिकाना हक़ रखने वाला पक्ष एक पक्ष अवश्य होना चाहिए जबकि इस पूरे विवाद में सरकार कहीं भी कोई पक्ष नहीं है। तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार की अनिच्छा के कारण उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को मुकदमे में औपचारिक पक्ष नहीं बनाया, जबकि संसद द्वारा 1993 में बनाए गए कानून के अनुसार केंद्र सरकार के पास राम-जन्मभूमि परिसर की संपूर्ण भूमि का स्वामित्व है। अब अगर वर्तमान सरकार में इच्छाशक्ति हो तो वह इस तथ्य के आधार पर मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त कर सकती है।
– अमित त्यागी
रावण आखिर क्यों बनाएगा राम मंदिर
आज जितनी भी शिक्षा स्कूल, कॉलेज, कॉन्वेंट स्कूल के रूप में दी जा रही है वह अवैदिक है। गुरुकुल ही वैदिक शिक्षा की पद्धति है। आज रावण को मारने के लिए राम की सेना की जरूरत है। राम सेना ही राम मंदिर भी बनाएगी और वही रावण को भी खत्म करेगी। आज की राजनीति बदल चुकी है। यह रावण की नीति है। आज खाने में जहर दिया जा रहा है। फ्लोराइड जैसा जहर हर एक चीज में आप को दिया जाता है। क्या यह राजनीतिक व्यक्ति नहीं देख रहे हैं? कहां एक तरफ अयोध्या राजधानी था वहां रामराज्य चलता था। कहां आज दिल्ली राजधानी है जहां रावण का राज चलता है। आज जरूरत आन पड़ी है इस समाज को उसी राम की। अब समय आ गया है इसी जनता के लिए कि वह राम और रावण का फर्क समझे। आज जब राजनीति का रावण राम का मंदिर बनाने की बात करता है तो यह असंभव लगने लगता है। ऐसा ना किसी इतिहास में हुआ और ना ही आज होगा। आज राजनीति के दोनों ही पक्ष और सभी राजनीतिक दल 10 शीश रावण के ही भाग हैं। जैसे ही एक पक्ष जीतता है और एक पक्ष हारता है। हार जीत के बाद दोनों गले लगते हैं। यह आखिर किस प्रकार की राजनीति है? समाज के सामने, जनता के सामने एक दूसरे को गाली देते हैं। फिर जीत के बाद एक दूसरे के गले लगते हैं। सच यह है ये सब एक हैं। सनातन धर्म इन लोगों के बीच में अकेला लड़ रहा है। यहां जो धर्मगुरु बन के चोला ओढ़ कर के बैठे हैं वह भी धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं। अब कौन राम है या रावण इसका फैसला तो जनता ही करेगी।
– विष्णु विनोदम महाराज (वृन्दावन)